Showing posts with label kavita. Show all posts
Showing posts with label kavita. Show all posts

Friday, August 7, 2020

मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत -सतीश सक्सेना

हम तो केवल हंसना चाहें  
सबको ही, अपनाना चाहें
मुट्ठी भर जीवन पाए हैं
हंसकर इसे बिताना चाहें
खंड खंड संसार बंटा है ,
सबके अपने अपने गीत ।
देश नियम,निषेध बंधन में, क्यों बांधा जाए संगीत ।

नदियाँ,झीलें,जंगल,पर्वत
हमने लड़कर बाँट लिए।
पैर जहाँ पड़ गए हमारे ,
टुकड़े,टुकड़े बाँट लिए।
मिलके साथ न रहना जाने,
गा न सकें,सामूहिक गीत ।
अगर बस चले तो हम बांटे,चांदनी रातें, मंजुल गीत ।

कितना सुंदर सपना होता
पूरा विश्व हमारा होता ।
मंदिर मस्जिद प्यारे होते
सारे धर्म , हमारे होते ।
कैसे बंटे,मनोहर झरने,
नदियाँ,पर्वत,अम्बर गीत ।
हम तो सारी धरती चाहें , स्तुति करते मेरे गीत ।

काश हमारे ही जीवन में
पूरा विश्व , एक हो जाए ।
इक दूजे के साथ बैठकर,
बिना लड़े,भोजन कर पायें ।
विश्वबन्धु,भावना जगाने,
घर से निकले मेरे गीत ।
एक दिवस जग अपना होगा,सपना देखें मेरे गीत ।

जहाँ दिल करे,वहां रहेंगे
जहाँ स्वाद हो,वो खायेंगे ।
काले,पीले,गोरे मिलकर
साथ जियेंगे, साथ मरेंगे ।
तोड़ के दीवारें देशों की,
सब मिल गायें मानव गीत ।
मन से हम आवाहन करते, विश्व बंधु बन, गायें गीत ।

श्रेष्ठ योनि में, मानव जन्में
भाषा कैसे समझ न पाए ।
मूक जानवर प्रेम समझते
हम कैसे पहचान न पाए ।
अंतःकरण समझ औरों का,
सबसे करनी होगी प्रीत ।
माँ से जन्में,धरा ने पाला, विश्वनिवासी बनते गीत ?

मानव में भारी असुरक्षा
संवेदन मन, क्षीण करे ।
भौतिक सुख,चिंता,कुंठाएं
मानवता का पतन करें ।
रक्षित कर,भंगुर जीवन को,
ठंडी साँसें लेते मीत ।
खाई शोषित और शोषक में, बढती देखें मेरे गीत ।

अगर प्रेम,ज़ज्बात हटा दें
कुछ न बचेगा मानव में ।
बिना सहानुभूति जीवन में
क्या रह जाए, मानव में ।
पशुओं जैसी मनोवृत्ति से,
क्या प्रभाव डालेंगे गीत !
मानवता खतरे में पाकर, चिंतित रहते मानव गीत ।

Monday, February 5, 2018

हम रहें या न रहें पदचिन्ह रहने चाहिए -सतीश सक्सेना


अबतक लगभग 300 गीत कवितायेँ एवं इतने ही लेख लिख चुका हूँ मगर प्रकाशनों, अख़बारों, कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों में नहीं जाता और न प्रयास करता हूँ कि मुझे लोग पढ़ें या सुने ! 300 कविताओं में मुझे अपनी एक भी कविता की कोई भी छंद पंक्ति याद नहीं क्योंकि मैं उन्हें लिखने के बाद कहीं भी सुनाता नहीं , न घर में न मित्रों में और न बाहर , मुझे लगता है अगर मैंने साफ़ स्वच्छ व आकर्षण लायक लिखा है तो लोग उसे अवश्य पढ़ेंगे चाहे समय कितना ही लगे , लेखन अमर है बशर्ते वह ईमानदार हो ! कवि नाम से चिढ है मुझे अब यह नाम सम्मानित नहीं रहा , कवि उपनाम धारी हजारों व्यक्ति अपनी दुकानें चमकाते चारो और बिखरे पड़े हैं !

मुझे पहला उल्लेखनीय सम्मान आनंद ही आनंद संस्था ने दिया जब विवेक जी ने मुझे राष्ट्रीय भाष्य गौरव पुरस्कार के लिए हिंदी साहित्य से, लोगों के चयन का जिम्मा लेने के लिए अनुरोध किया था , आश्चर्य यह था कि मैं आनंद ही आनंद संस्था और उसके संस्थापक आचार्य विवेक जी के बारे में पहले से कुछ नहीं जानता था मगर उन्हें मेरे लेखन को पढ़कर मेरी ईमानदारी पर भरोसा हुआ जिसे मैंने इस वर्ष तक सफलता पूर्वक निभाकर अब उनसे इस पदमुक्ति (अध्यक्ष भाष्य गौरव पुरस्कार ) के लिए अनुरोध किया है, लम्बे समय तक एक पद से जुड़े रहना मुझे उचित नहीं लगता !

पिछले माह भारत पेट्रोलियम स्टाफ क्लब में विशिष्ट अतिथि के रूप में आमत्रित किया गया जहाँ मैं किसी को नहीं जानता था, हिंदी साहित्य जगत में लम्बे समय से कार्यरत एवं हिंदुस्तानी भाषा अकादमी के अध्यक्ष सुधाकर पाठक जी का अनुरोध था कि मैं वहां के स्टाफ को अपने स्वास्थ्य अनुभव के बारे में दो शब्द कहूं , इससे पहले सुधाकर पांडेय जी से न कभी भेंट हुई और न कोई परिचय था वे मेरी रचनाओं के मात्र मूक पाठक थे जिनसे मेरा कोई पूर्व परिचय न था !
भारत पेट्रोलियम ने मुझे मंच सहभागिता का अवसर मिला जाने पहचाने ओलम्पियन गोलकीपर रोमिओ जेम्स के साथ , वे लोग समझना चाहते थे कि रिटायर होने के बाद भी मैं मैराथन कैसे और क्यों दौड़ा और उससे क्या स्वास्थ्य लाभ मिले ? और इस वार्षिक उत्सव के अवसर पर उन्होंने बिना कोई मशहूर नाम के चुनाव के मुझ जैसे एक अनजान व्यक्ति को चुना , मुझे लगता है सुधाकर पाठक का व्यक्तित्व इस नाते विशिष्ट है और उनसे मिलने के बाद विश्वास है कि वे हिंदी जगत में नए आयाम कायम करेंगे !
ऐसे ईमानदार सम्मान अच्छे लगते हैं बशर्ते उसके पीछे अन्य उद्देश्य और प्रयास निहित न हों ! अफ़सोस कि हिंदी जगत में अधिकतर सम्मान प्रायोजित अथवा निहित व्यक्तिगत फायदे लिए होते हैं इस माहौल में आचार्य विवेक जी जैसे व्यक्तित्व का होना सुखद है एवं निश्चित ही शुभ संकेत है !

हिंदी जर्जर, भूखी प्यासी

निर्बल गर्दन में फंदा है !
कोई नहीं पालता इसको
कचरा खा खाकर ज़िंदा है !
कर्णधार हिंदी के,कब से
मदिरा की मस्ती में भूले !
साक़ी औ स्कॉच संग ले
शुभ्र सुभाषित माँ को भूले
इन डगमग चरणों के सम्मुख, विद्रोही नारा लाया हूँ !
भूखी प्यासी सिसक रही,अभिव्यक्ति
को चारा लाया हूँ !




Friday, March 24, 2017

न जाने कौन सी तकलीफ लेकर दौड़ता होगा -सतीश सक्सेना

आज मैराथन रनिंग प्रैक्टिस में दौड़ते दौड़ते इस रचना की बुनियाद पड़ी , शायद विश्व में यह पहली कविता होगी जिसे 21 किलोमीटर दौड़ते दौड़ते बिना रुके रिकॉर्ड किया ! लगातार घंटों दौड़ते समय ध्यान में बहुत कुछ चलता रहता है उसकी परिणति आज इस रचना के रूप में हुई ! 

न जाने दर्द कितना दिल में लेकर, दौड़ता होगा
कभी छूटी हुई उंगली, किसी की, ढूंढता होगा !


सुना है जाने वाले भी , इसी दुनिया में रहते हैं ! 
कहीं दिख जाएँ वीराने में शायद खोजता होगा !

कोई सपने में ही आकर, उसे लोरी सुना जाए
वो हर ममतामयी चेहरे में, उनको ढूंढता होगा !

छिपा इज़हार सीने में , बिना देखे उन्हें शायद 
पसीने में छलकता प्यार, उनको भेजता होगा !

अकेले धुंध में इतनी कसक मन में लिए, पगला  
न जाने कौन सी तकलीफ लेकर , दौड़ता होगा !

Friday, December 30, 2016

मक्कारों के दरवाजे से ये दीप नहीं बुझने पाए ! -सतीश सक्सेना

पहचान करो  गद्दारों की,
खादी पहने मक्कारों की !
दोनों हाथों से लूट रहे ,
इस घर के बेईमानों की !
इनकी चौखट पर जा जाकर
इक दीप जलाएंगे ऐसा 
जिससे विशेष पहचान रहे
दुनियां में इन दरवाजों की 
बारिश हो या तूफ़ान मगर यह दीप नहीं बुझने पाये !

धूर्तों के  दरवाजे  जाकर 
इक अक्षयदीप जलाना है 
जो देशभक्त का रूप रखे
उनका चेहरा दिखलाना है
बस्ती समाज बरबाद किये
बरसों से  श्वेत दीमकों ने !
जाकर थूकें, घर को खाते 
इन ध्यान लगाए बगुलों पर  
बेईमानी के उद्गम  पर,  श्रमदीप नहीं बुझने पाये ! 

यह दीपक आँखें खोलेगा
मूर्खों को राह दिखायेगा  
मानव की सुप्त चेतना को
ये दरवाजे, दिखलायेगा !
धूर्तों के चेहरे, नोच तुम्हें 
असली चेहरे दिखलायेगा
भ्रामक विज्ञापन के जरिये  
आस्था गरीब की बेच रहे ,
बाबाओं के दरवाजे से, जनदीप नहीं बुझने पाये !

Sunday, August 21, 2016

जाने कितने बरसों से यह बात सालती जाती है - सतीश सक्सेना

जैसे कल की बात रही 
हम कंचे खेला करते थे !
गेहूं चुरा के घर से लड्डू 
बर्फी,  खाया करते थे !
बड़े सवेरे दौड़ बाग़ में 
आम ढूंढते  रहते थे ! 
कहाँ गए वे संगी साथी 
बचपन जाने कहाँ गया  !
कस के मुट्ठी बाँधी फिर भी, रेत फिसलती जाती है !
इतनी जल्दी क्या सूरज को ? 
रोज शाम गहराती है !

बचपन ही भोलाभाला था
सब अपने जैसे लगते थे !
जिस घर जाते हँसते हँसते
सारे बलिहारी होते थे !
जब से बड़े हुए बस्ती में
हमने भी चालाकी सीखी
औरों के वैभव को देखा
हमने भी ,ऐयारी सीखी !

धीरे धीरे रंजिश की, कुछ बातें खुलती जाती हैं !
बचपन की निर्मल मन धारा
मैली होती जाती है !

अपने चन्दा से, अभाव में 
सपने कुछ पाले थे उसने !
और पिता के जाने पर भी 
आंसू बाँध रखे थे अपने !
अब न जाने सन्नाटे में,
अम्मा कैसे रहतीं होंगी !   
अपनी बीमारी से लड़ते,
कदम कदम पर गिरती होंगीं !
जाने कितने बरसों से, यह बात सालती जाती है !
धीरे धीरे ही साहस की परतें 
खुलती जाती हैं !

Sunday, July 17, 2016

अच्छे दिन भी आते होंगे , हर हर मोदी बोल किसानों -सतीश सक्सेना


मेहनत करते जीवन बीता,मेहनत करते रहो ,किसानों !
अच्छे दिन भी आते होंगे ,हर हर मोदी बोल किसानों !


जित्ती चादर ले के लाये, पैर मोड़ सो जाओ किसानों !
भला करेंगे, राम तुम्हारा, कोई शक न करो किसानों !

रखो भरोसा नेताओं पर , क्यों हताश होकर मरते हो,
बेटी की शादी में तुमको, लाला देगा, कर्ज किसानों !

अफ्रीका में खेत दाल के, लगते सुंदर बहुत किसानों !
दाल उगाएं वे, हम खाएं , हर हर गंगे बोल किसानों !

केजरी झक्की , खांसे इतना , नींद न आने दे, रातों में ,
कांग्रेस,मीडिया,कचहरी और भी गम हैं,बहुत किसानों !


Friday, July 1, 2016

आ जाएँ , बैठें पास मेरे , बतलायें, भारत कहां लिखूं - सतीश सक्सेना

लो आज  कष्ट की स्याही से
संतप्त ह्रदय का गान लिखूं
धनपतियों से इफ्तार दिला 
मैं निर्धन का रमजान लिखूं 
बतलाओ तुमको यार कहूँ ,
या केवल मित्र सुजान लिखूं !
अनुराग कहां सम्मानित हो
मनुहार  रचाये  चरणों में  !
आ जाएं कभी आनंदमयी, बतलायें  व्यथा मन कहां लिखूं ! 

नेताओं को कह देश भक्त ,
अधपके देश की शान लिखूं 
धन पर मरते, सन्यासी को  
दरवेशों का लोबान लिखूं !
या बरसों बाद मिले, जीवन 
में,भूखे का जलपान लिखूं 
धनपति बनने को राष्ट्रभक्त 
उग आये, रातों रात यहाँ !
कह जाएं किसी दिन रूपमयी , मन का वृंदाबन कहां लिखूं !

सूरज  को श्रृद्धानत होकर , 
मंत्री का स्वागत गान लिखूं !
या तिल तिल कर मरते,निर्जल 
इन वृक्षों को , उपहार लिखूं !
उम्मीदों में , बादलों  सहित, 
आती वारिश जलधार लिखूं !
कोसों तक प्यार नहीं दिखता 
नफ़रत फैलाती , दुनियां में !
पथ दिखलायें ,अनुरागमयी, बोलें  न , बुलावन कहां लिखूं !

संक्रमण काल में गीत बना
कर छंदों का अपमान लिखूं 
या धूर्त काल में गीतों की 
चोरी कर काव्य महान लिखूं
फिर महागुरु के चरण पकड़ 
कर,उनको दिव्य सुजान लिखूं 
कवितायें जन्म कहाँ लेंगीं  ,
गुरुशिष्य बिकाऊ जिस घर में,
आ जाएं एक दिन दिव्यमयी, कह जाएं, स्तवन कहां लिखूं  !

बंगाल सिंध कश्मीर कटा, 
नफरत में, हिंदुस्तान लिखूं ,
जिसके रिश्ते, आधे उसमें 
उस घर को, पाकिस्तान लिखूं !
गांधार,पाणिनी आर्यक्षेत्र को 
अब अफ़ग़ानिस्तान लिखूं !
कुल, जाति, धर्म, फ़र्ज़ी गुरुर 
पाले, नफरत में  हांफ रहे !
आ जाएं किसी दिन करुणमयी , समझाएं तपोवन कहां लिखूं !

Saturday, May 21, 2016

मन है भारी अगर, आइये दौड़िए - सतीश सक्सेना

लड़ना अवसाद से , आइये दौड़िये 
मन हो भारी अगर तो उठें, दौड़िये !

क्या पता,भूल से दिल दुखाया कोई 
गर ह्रदय पर वजन हो, तभी दौड़िए !

आने वाली नसल , आलसी न बने  
इनकी हिम्मत बढ़ाने को ही दौड़िए !

वायदे कुछ किये थे, किसी हाथ से 
अंत तक है निभाना , तो भी दौड़िये !  

शक्ति ,साहस, भरोसा, रहे अंत तक 
हाथ में जब समय हो, जभी दौड़िए !

Monday, April 11, 2016

सब तो रोये थे मगर हम तो, रो नहीं पाये -सतीश सक्सेना

कल ही कुछ याद किया, रात सो नहीं पाये
औ तड़प के जो बुलाया भी , तो नहीं पाये !

तेरी रुखसत का भरोसा ही नहीं है मुझको 
सब तो रोये थे मगर हम तो, रो नहीं पाये !

कसम खुदा की सिर्फ खैरियत बता जाएँ ! 
खिले वसंत अहले दिल से,खो नहीं पाये !

जाने कब से थे मेरे साथ,जानता ही नहीं 
बिन कहे जान सकें अक्ल ,वो नहीं पाये !

तुझे हर बार मना ही किया था मिलने को
आज मन ढूंढता अहसास, जो नहीं पाये !

Friday, April 8, 2016

सितारे भूल गलती से मेरे आँगन में आ बरसे - सतीश सक्सेना

तुम्हारी ओर के बादल, मेरे आँगन में आ बरसे !
लगा जैसे चमन को भूल कंटक बन में आ बरसे !

फरिश्तों से हुई गलती, पता अम्बर का देने में ,
सितारे भूल गलती से, मेरे दामन में आ बरसे !

लगा सहला गयीं यादें, उन्हें हमसे बिछड़ने की
बिना आवाज आहिस्ता से सूनेपन में आ बरसे ! 

हमारा घर तो कोसों दूर था, जल के किनारे से,
अचानक फूट के झरने, मेरे जीवन में आ बरसे !

हमारा क्या अकेले हैं, कहीं सो जाएंगे थक के
तुम्ही पछताओगे ऐसे, कहाँ निर्जन में आ बरसे !

Saturday, March 26, 2016

हम जैसे सख्त जान भी, बरबाद हो गए ! -सतीश सक्सेना

कुछ श्राप भी दुनियां में आशीर्वाद हो गए,
जब भी तपाया आग में,फौलाद हो गए !

यह राह खतरनाक है , सोंचा ही नहीं था ,
हम जैसे सख्तजान भी, बरबाद हो गए !  

कितने तो कट गए बिना आवाज किये ही
बच वे ही सके, जो कहीं आबाद हो गये !

ख़त ध्यान से पढ़ने की जरूरत ही नहीं थी 
हर शब्द के मनचाहे से, अनुवाद  हो गए !

क्यों दर पे तेरे आके ही सर झुक गया मेरा 
काफिर न जाने क्यों यहाँ , सज़्ज़ाद हो गए !

न जाने कब से तेरे सामने बेबस रहे थे हम 
इस बार उड़ाया तो , हम आज़ाद हो गए !

Saturday, January 16, 2016

यह आवाज,अजान नहीं है -सतीश सक्सेना

 चंदा तो  मेहमान नहीं है,
लोगों पर अहसान नहीं है !

अपने बच्चों को वर देना
वैसे भी, अनुदान नहीं है !

मंदिर ,मस्जिद, स्पीकर की ,
यह आवाज,अजान नहीं है !

बेबस निर्बल पशु हत्या है
ये कोई बलिदान नहीं है !

सब के मन की पूरा करना ,
इतना भी आसान नहीं है !

तुम्हें मुक्त कर हम सो जाएँ
और कोई अरमान नहीं है !

जितना संग दिया सपनों में
भुला सकें आसान नहीं है !


Monday, January 4, 2016

शायर बनकर यहाँ गवैये आये हैं - सतीश सक्सेना

काव्यमंच पर आज मसखरे छाये हैं !
शायर बनकर यहाँ , गवैये आये हैं !

पैर दबा, कवि मंचों के अध्यक्ष बने,
आँख नचाके,काव्य सुनाने आये हैं !

रजवाड़ों से,आत्मकथाओं के बदले 
डॉक्ट्रेट , मालिश पुराण में पाये हैं !

पूंछ हिलायी लेट लेट के,तब जाकर 
कितने जोकर, पद्म श्री कहलाये हैं !

अदब, मान मर्यादा जाने कहाँ गयी,
ग़ज़ल मंच पर,लहरा लहरा गाये हैं !

Tuesday, December 29, 2015

एक अजनबी जाने कैसा गीत सुनाकर चला गया -सतीश सक्सेना

सो न सकूंगी आसानी से 
याद  दिलाती  रातों में !
बंद न हो पाएं  दरवाजे
कुछ तो था उन बातों में !
ले कंगन मनिहार बेंचने 
आया इकदिन आँगन में,
जाने कैसे सम्मोहन में , 
छेड़छाड़ कर चला गया !
पहली बार मिला, जूड़े में फूल सजा के चला गया !

रोक न पायीं अनजाने को
मंत्रमुग्ध सा आवाहन था !
सागर जैसी व्याकुलता में 
लगता कैसा मनमोहन था !
हृदय जीत ले गया चितेरा 
चित्र बनाकर, चुटकी में, 
सदियों से थे ओंठ कुंवारे, 
गीले करके , चला गया !
बैरन निंदिया ऐसी आयी, मांग सज़ा के चला गया !  

उसके हाथ सुगन्धित इतने
मैं मदहोशी में खोयी थी !
उसकी आहट से जागी थी
उसके जाने पर सोयी थी !
केशव जैसा आकर्षण ले 
वह निशब्द ही आया था  
जाने कब मेंहदी से दिल का, 
चिन्ह बनाकर, चला गया !
कितनी परतों में सोया था दिल,सहला कर चला गया !

उसके सारे काम, हमारी
जगती आँखों मध्य हुए थे !
जाने कैसी बेसुध थी मैं ,
अस्तव्यस्त से वस्त्र हुए थे !
सखि ये सबके बीच हुआ
था,भरी दुपहरी आँगन में ,

पास बैठकर हौले हौले ,
लट सहला के चला गया !
एक अजनबी जाने कैसा, गीत सुनाकर चला गया !


Saturday, December 12, 2015

खूब पुरस्कृत दरबारों में फिर भी नज़र झुकाएं गीत - सतीश सक्सेना

जिन दिनों लेखन शुरू किया था उन दिनों भी, एक भावना मन में थी कि अगर मेरी कलम ईमानदार है तो किसी से प्रार्थना करने नहीं जाऊंगा कि मेरे लेखन को मान्यता मिले, आज नहीं तो कल, देर सवेर लोग पढेंगे अवश्य !
आश्चर्य होता है कि यहाँ के स्थापित विद्यामार्तंड, किस कदर चापलूसी पसंद करते हैं ……… 
 हमें हिंदी के सूरज और चांदों का विरोध करना चाहिए और जनता के सामने लाना चाहिए हो सकता है इन ताकतवर लोगों के खिलाफ बोलने से, इनके गुस्से का सामना करना पड़े मगर हमें इस तरह के घटिया सम्मान की परवाह नहीं करनी चाहिए ! मंगलकामनाएं हिन्दी को, एक दिन इसके दिन भी फिरेंगे !

कैसे कैसे लोग यहाँ पर
हिंदी के मार्तंड कहाए !
कुर्सी पायी लेट लेट कर 
सुरा सुंदरी,भोग लगाए !
ऐसे राजा इंद्र  देख कर , 
हंसी उड़ायें मेरे गीत !
हिंदी के आराध्य बने हैं, कैसे कैसे लोभी गीत !

कलम फुसफुसी रखने वाले
पुरस्कार की जुगत भिड़ाये
जहाँ आज बंट रहीं अशर्फी
प्रतिभा नाक रगडती पाये !
अभिलाषाएं छिप न सकेंगी
कैसे  बनें यशस्वी गीत  ?
बेच प्रतिष्ठा गौरव अपना,पुरस्कार हथियाते गीत !


इनके आशीषों से मिलता
रचनाओं का फल भी ऐसे
एक इशारे से आ जाता ,
आसमान, चरणों में जैसे !
सिगरट और शराब संग में 
साकी के संग बैठे मीत !  
पाण्डुलिपि पर छिडकें दारु,मोहित होते मेरे गीत !

चारण,भांड हमेशा रचते
रहे , गीत  रजवाड़ों के  !
वफादार लेखनी रही थी
राजों और सुल्तानों की !
रहे मसखरे, जीवन भर ही, 
खूब सुनाये  स्तुति गीत !
खूब पुरस्कृत दरबारों में फिर भी नज़र झुकाएं गीत !

Friday, August 14, 2015

जब तुम पास नहीं हो मैंने, सब कुछ हारा सपने में -सतीश सक्सेना

ऐसा क्या करता है आखिर संग तुम्हारा सपने में
कितनी बार विजेता होकर तुमसे हारा सपने में !

पूरे जीवन हमने अक्सर  छल मुस्काते पाया है,
निश्छल मन ही रोते देखा, टूटा तारा सपने में !

सारे जीवन थे अभाव पर,महलों के आनंद लिए
बेबस जीवन को भी होता एक सहारा सपने में !

कई बार हम बने महाजन कंगाली के मौसम में
कितनी बार हुई धनवर्षा,स्वर्ण बुहारा सपने में !

यादें कौन भुला पाया है, जाने या अनजाने ही,
धीरे धीरे भिगो ही जाता, एक फुहारा सपने में !

Saturday, June 6, 2015

चापलूसों को भी कुछ सम्मान मिलना चाहिए ! - सतीश सक्सेना

चापलूसों को भी कुछ सम्मान मिलना चाहिए ,
इनकी मेहनत को,वतन से मान मिलना चाहिए !

काम टेढ़ा कम नहीं पर जब भी नेताजी दिखें 
शक्ल कुत्ते सी लगे और पूंछ हिलना चाहिए !

दांत तीखे हों,नज़र दुश्मन पे, मौक़ा ताड़ कर
मालिकों के दुश्मनों पर, वार करना चाहिए !

मालिकों की शान में जितने कसीदे हों, पढ़ें 
धूर्त को योगी , विरागी ही बताना चाहिए !

पार्टियों में सूट हो पर , जाहिलों के बीच में
राष्ट्रभक्तों को धवल खद्दर, पहनना चाहिए !

Sunday, May 10, 2015

कोई माँ न झरे ऐसे जैसे,आंसू से भरी बदली जैसी !-सतीश सक्सेना

यह एक संपन्न भरेपूरे घर की वृद्धा का शब्द चित्र है , जो कहीं दूर से भटकती एक बरगद की छाँव में अकेली रहती हुई ,अंतिम दशा को प्राप्त  हुई ! भारतीय समाज के गिरते हुए मूल्य हमें क्या क्या दिन दिखलायेंगे ? 

अच्छा है बुढ़िया चली गयी,थी थकी हुई बदली जैसी
दर्दीली रेखाएं लेकर, निर्जल, निशक्त, कजली  जैसी !

बरगद के नीचे ठंडक में कुछ दिन से थी बीमार बड़ी !
धीमे धीमे बड़बड़ करते,भूखी प्यासी कुम्हलायी सी !   

कुछ  बातें करती रहती थी, सिन्दूर,महावर, बिंदी से  
इक टूटा सा विश्वास लिए,रहती कुछ दर्द भरी जैसी !

भूखी पूरे दिन रहकर भी, वह हाथ नहीं फैलाती थी,
आँखों में पानी भरे हुए,दिखती थी अभिमानी जैसी ! 

कहती थी, उसके मैके से,कोई लेने,आने वाला है ! 
पगली कुछ बड़ी बड़ी बातें,करती थीं महारानी जैसी !

अपनी किस्मत को कोस रहीं, अम्मा रोयीं सन्नाटे में  
कुछ प्रश्न अधूरे से छोड़े,बहती ही रही पानी जैसी !

कल रात हवा की ठंडक में,कांपती रहीं वे आवाजें !
कोई माँ न झरे ऐसे जैसे,आंसू से भरी बदली जैसी !

Monday, March 23, 2015

दीवानों का , परिचय क्या ? - सतीश सक्सेना

लोग पूंछते परिचय मेरा, बेगानों  का ,परिचय क्या ?
कलम अर्चना करते आये दीवानों का,परिचय क्या ?

कितना सुख है कमजोरों की, रक्षा में कुछ लोगों को
मुरझाये अंकुर सहलाती बदली का दूँ, परिचय क्या ?

प्यार,नेह, करुणा और ममता, घर से जाने कहाँ गए !
धर्मध्वजाओं को लहराते विष का दूँ,मैं परिचय क्या ?

जिस समाज में जन्म लिया था रहने लायक बचा नहीं
मानव मांस चबाने वाले, मानव का दूँ ,परिचय क्या ?

जहाँ लड़कियां घर से बाहर निकलें सहमीं, सहमीं सी !
धूल भरे माहौल में जन्में काव्यपुरुष का,परिचय क्या ?

Thursday, March 19, 2015

राजनीति के अंधे कैसे समझें कष्ट किसानों का -सतीश सक्सेना

बुरे हाल मे  साथ न छोड़ें, देंगे साथ किसानों का !
यवतमाळ में पैदल जाकर जानें दर्द किसानों का !

जुड़ा हमारा जीवन गहरा ,भोजन के रखवालों से !
किसी हाल में साथ न छोड़ें,देंगे साथ किसानों का

इन्द्र देव  की पूजा करके, भूख मिटायें मानव की  
राजनीति के अंधे कैसे समझें कष्ट किसानों का !

यदि आभारी नहीं रहेंगे मेहनत और श्रमजीवी के     
मूल्य समझ पाएंगे कैसे इन बिखरे अरमानों का !

चलो किसानों के संग बैठे, जग चेतना जगायेंगे 
सारा देश समझना चाहे कष्ट कीमती जानों का !

(यवतमाळ पदयात्रा १५-१९ अप्रैल २०१५ के अवसर पर )
Related Posts Plugin for Blogger,