मदर टेरेसा

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मदर टेरसा
अग्नेसे गोंकशे बोजशियु

मदर टेरसा
जन्म 26 अगस्त 1910
उस्कुब, ओटोमन साम्राज्य (आज का सोप्जे, मेसेडोनिया गणराज्य)
मृत्यु 5 सितम्बर 1997(1997-09-05) (उम्र 87)
कोलकाता, भारत
राष्ट्रीयता अल्बीनियाई
व्यवसाय रोमन केथोलिक नन, मानवतावादी
हस्ताक्षर

मदर टेरेसा (२६ अगस्त १९१० ५ सितम्बर १९९७) का जन्म अग्नेसे गोंकशे बोजशियु के नाम से एक अल्बेनीयाई परिवार में उस्कुब, ओटोमन साम्राज्य (आज का सोप्जे, मेसेडोनिया गणराज्य) में हुआ था। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं, जिनके पास भारतीय नागरिकता थी। उन्होंने १९५० में कोलकाता में मिशनरीज़ ऑफ चेरिटी की स्थापना की। ४५ सालों तक गरीब, बीमार, अनाथ और मरते हुए इन्होंने लोगों की मदद की और साथ ही चेरिटी के मिशनरीज के प्रसार का भी मार्ग प्रशस्त किया।

१९७० तक वे ग़रीबों और असहायों के लिए अपने मानवीय कार्यों के लिए प्रसिद्द हो गयीं, माल्कोम मुगेरिज के कई वृत्तचित्र और पुस्तक जैसे समथिंग ब्यूटीफुल फॉर गोड में इसका उल्लेख किया गया। उन्होंने १९७९ में नोबेल शांति पुरस्कार और १९८० में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा के जीवनकाल में मिशनरीज़ ऑफ चेरिटी का कार्य लगातार विस्तृत होता रहा और उनकी मृत्यु के समय तक यह १२३ देशों में ६१० मिशन नियंत्रित कर रही थी। इसमें एचआईवी/एड्स, कुष्ठ और तपेदिक के रोगियों के लिए धर्मशालाएं/ घर शामिल थे और साथ ही सूप रसोई, बच्चों और परिवार के लिए परामर्श कार्यक्रम, अनाथालय और विद्यालय भी थे। मदर टेरसा की मृत्यु के बाद उन्हें पोप जॉन पॉल द्वितीय ने धन्य घोषित किया और उन्हें कोलकाता की धन्य की उपाधि प्रदान की।

हार्ट अटैक के कारण 5 सितंबर 1997 के दिन मदर टैरेसा की मृत्यु हुई थी।[1]

आजीवन सेवा का संकल्प

१९८१ ई में आगवेश ने अपना नाम बदलकर टेरेसा रख लिया और उन्होने आजीवन सेवा का संकल्प अपना लिया। उन्होने स्वयं लिखा है - वह १० सितम्बर १९४० का दिन था जब मैं अपने वार्शिक अवकाश पर दार्जिलिंग जा रही थी। उसी समय मेरी अन्तरात्मा से आवाज़ उठी थी कि "मुझे सब कुछ त्याग कर देना चाहिए और अपना जीवन इश्वर एवं दरिद्र नारायण की सेवा कर के क्ंगाल तन को समर्पित कर देना चाहिए।"

समभाव से पीडित की सेवा

मदर टेरेसा दलितों एवं पीडितों की सेवा में किसी प्रकार की पक्षपाती नहीं है। उन्होनें सद्भाव बढाने के लिए संसार का दौरा किया है। उनकी मान्यता है कि 'प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बडी है।' उनके मिशन से प्रेरणा लेकर संसार के विभिन्न भागों से स्वय्ं-सेवक भारत आये तन, मन, धन से गरीबों की सेवा में लग गये। मदर टेरेसा क कहना है कि सेवा का कार्य एक कठिन कार्य है और इसके लिए पूर्ण समर्थन की आवश्यकता है। वही लोग इस कार्य को संपन्न कर सकते हैं जो प्यार एवं सांत्वना की वर्षा करें - भूखों को खिलायें, बेघर वालों को शरण दें, दम तोडने वाले बेबसों को प्यार से सहलायें, अपाहिजों को हर समय ह्रदय से लगाने के लिए तैयार रहें।

विविध पुरुस्कार एवम सम्मान

मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिये विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किय गया है। १९३१ में उन्हें पोपजान तेइसवें का शांति पुरस्कार और धर्म की प्रगति के टेम्पेलटन फाउण्डेशन पुरस्कार प्रदान किय गया। विश्व भारती विध्यालय ने उन्हें देशिकोत्तम पदवी की जो कि उसकी ओर से दी जाने वाली सर्वोच्च पदवी है। अमेरिका के कैतथोलिक विश्वविध्यलय ने उन्हे डोक्टोरेट की उपाधि से विभूशित किय। भारत सरकार् द्वारा १९६२ में उन्हें 'पद्मश्री' की उपाधि मिली। १९८८ में ब्रिटेन द्वारा 'आईर ओफ द ब्रिटिश इम्पायर' की उपाधि प्रदान की गयी। बनारस हिंदू विश्वविध्यलय ने उन्हें डी-लिट की उपाधि से विभूषित किया। १९ दिसम्बर १९७९ को मदर टेरेसा को मानव-कल्याण कार्यों के हेतु नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। वह तीस्री भारतीय नागरिक है जो स्ंसार में इस सबसे बडी पुरस्कार से सम्मानित की गयी थीं।

मदर टेरेसा के हेतु नोबल पुरस्कार की घोशणा ने जहां विश्व की पीडित जनता में प्रसन्नत का संछार हुआ है, वही प्रत्येक भारतीय नागरिकों ने अपने को गौर्वान्वित अनुभव किया। स्थान स्थान पर उन्का भव्या स्वागत किया गया। नार्वेनियन नोबल पुरस्कार के अध्यक्श प्रोफेसर जान सेनेस ने कलकत्ता में मदर टेरेसा को सम्मनित करते हुए सेवा के क्शेत्र में मदर टेरेसा से प्रेरणा लेने का आग्रह सभी नागरिकों से किया। देश की प्रधान्मंत्री तथा अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने मदर टेरेसा का भव्य स्वागत किया। अपने स्वागत में दिये भाषणों में मदर टेरेसा ने स्पष्ट कहा है कि "शब्दों से मानव-जाति की सेवा नहीं होती, उसके लिए पूरी लगन से कार्य में जुट जाने की आवश्यकता है।" उन्होंने यह भी घोषणा की है कि भविष्य में किसी प्रकार के स्वागत समारोह में सम्मिलित नहीं होंगी और निरंतर सेव कार्य में लगी रहेंगी। निस्चित रूप से मदर टेरेसा निष्काम कार्य में विश्वास करने वाली हैं। कर्मयोग का जो दर्शन गीता में परिलक्षित होता है वह मदर टेरेसा के जीवन में छरितार्थ हुआ है।

आलोचना

कई व्यक्तियों, सरकारों और संस्थाओं के द्वारा उनकी प्रशंसा की जाती रही है, यद्यपि उन्होंने आलोचना का भी सामना किया है। इसमें कई व्यक्तियों, जैसे क्रिस्टोफ़र हिचेन्स, माइकल परेंटी, अरूप चटर्जी (विश्व हिन्दू परिषद) द्वारा की गई आलोचना शामिल हैं, जो उनके काम (धर्मान्तरण) के विशेष तरीके के विरुद्ध थे। इसके अलावा कई चिकित्सा पत्रिकाओं में भी उनकी धर्मशालाओं में दी जाने वाली चिकित्सा सुरक्षा के मानकों की आलोचना की गई और अपारदर्शी प्रकृति के बारे में सवाल उठाए गए, जिसमें दान का धन खर्च किया जाता था।

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. "सेवा की साकार मूर्ति थी "मदर टेरेसा"". पत्रिका समाचार समूह. ५ सितंम्बर 2014. http://www.patrika.com/news/mother-teresa-was-a-beacon-to-human-kind/1025603. अभिगमन तिथि: ५ सितंम्बर 2014.