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5.4.14

गाय और आयुर्वेद

एक बड़ी पुरानी कहावत है, हम गाय नहीं पालते, गाय हमें पालती है। हम भी गाय द्वारा ११ वर्ष पालित रहे हैं। गाय का घर में होना स्वास्थ्य के लिये एक वरदान है। खाने के लिये भरपूर दूध, दही, मठ्ठा, मक्खन और घी। खेत के लिये गोबर और ईँधन के रूप में गोबर के उपले। गोमूत्र से कीटनाशक और गाय के बछड़े से खेत जोतने के लिये बैल। खेत में उपजे गेहूँ से ही चोकर, अवशेष से भूसा और सरसों से खली। अपने आप में परिपूर्ण आर्थिक व्यवस्था का परिचायक है, गाय का घर में होना। एक तृण भी व्यर्थ नहीं जाता है गाय केन्द्रित अर्थव्यवस्था में। पहले के समय यही कारण रहा होगा कि देश का किसान कृषिकार्य में केवल अन्न बेचने ही नगर आता था, उसे कभी कुछ खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। किसान सम्पन्न था, कृषिकर्म सर्वोत्तम माना जाता था। 

धीरे धीरे अंग्रेजों ने देश की रीढ़ माने जाने वाले कृषकवर्ग को तोड़ दिया, सहन करने से अधिक लगान लगाकर, भूमि अधिग्रहण कानून बनाकर, उपज का न्यून मूल्य निर्धारित करके और भिन्न तरह के अन्यायपूर्ण कानून बना कर। किसी समय चीन के साथ मिलकर भारत विश्व का ७० प्रतिशत अन्न उत्पादन करता था, अंग्रेजों के शासनकाल उसी भारत में १३ बड़े अकाल पड़े, करोड़ों लोगों की मृत्यु हुयी। कृषिकर्म अस्तव्यस्त हो गया, न खेतों में किसी का लगाव रहा और न ही उसकी संरक्षक गाय को संरक्षण मिला, वह कत्लखाने भेजी जाने लगी। १९४३ के बंगाल के अकाल ने देश को झकझोर कर रख दिया था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्राथमिकता अन्न उत्पादन पर आत्मनिर्भर बनने की थी, हरित क्रान्ति के माध्यम से हम सफल भी हुये, अन्न आयातक से निर्यातक बन गये। इस पूरी प्रक्रिया में संकर बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक आ गये, गाय केन्द्रित कृषिव्यवस्था बाजार केन्द्रित व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी। तीन चार दशक तक रासायनिक खाद और कीटनाशक के प्रयोग ने भूमि की उर्वराशक्ति छीन ली है, आसपास के जल को भी दूषित कर दिया। साथ ही साथ तीक्ष्ण रासायनों से दूषित खाद्यान्न ने हमारे स्वास्थ्य पर भी अत्यन्त नकारात्मक प्रभाव डाला है। 

कृषि व्यवस्था से गाय की अनुपस्थिति ने न केवल भूमि को उसकी उत्पादकता से वंचित किया, वरन हमारे स्वास्थ्य में भी कैंसर आदि जैसे असाध्य रोगों को भर दिया। यही चिन्ता रही होगी कि विश्व आज प्राकृतिक या ऑर्गेनिक खेती की ओर मुड़ रहा है और इस प्रकार उत्पन्न खाद्यान्न और शाकादि सामान्य से कहीं अधिक मँहगे मूल्य में मिलते हैं।

गाय का पौराणिक चित्र, सब देव इसमें बसते हैं
जो महत्व गाय का हमारी कृषि व्यवस्था में रहा है और जिसके कारण हमारा स्वास्थ्य संरक्षित रहने की निश्चितता थी, वही महत्व गाय का आयुर्वेद में भी रहा है। आयुर्वेद में गाय के सारे उत्पादों को महत्व का माना गया है, दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी, गोमूत्र और गोबर। आयुर्वेद में आठ तरह का दूध वर्णित है और उसमें सर्वोत्तम दूध का माना गया है। यह दूध आँखों, हृदय और मस्तिष्क के लिये अत्यन्त उपयोगी है। दूध रस और विपाक में मधुर, स्निग्ध, ओज और धातुओं को बढाने वाला, वातपित्त नाशक, शुक्रवर्धक, कफवर्धक, गुरु और शीतल होता है। गाय का दूध पचाने में आसान होता है, माँ के दूध के पश्चात बच्चों के लिये गाय का ही दूध सबसे अच्छा माना गया है। देशी गाय का दूध जर्सी गाय से कहीं अच्छा होता है, यह शरीर में प्रतिरोधक क्षमता, बुद्धि और स्मरणशक्ति बढ़ाता है। गाय के दूध में विटामिन डी होता है जो कैल्शियम के अवशोषण में सहायता करता है।

जो गायें आलस्य कर बैठी रहती हैं, उनका दूध भी गाढ़ा रहता है, जैसे जर्सी गायें, पर उनमें औषधीय गुण कम रहते हैं। जो गायें चरने जाती हैं, उनका दूध थोड़ा पतला होता है, पर वह बहुत ही अच्छा होता है, उसमें औषधीय गुण अधिक होते हैं। यही कारण है कि सुबह का दूध थोड़ा गाढ़ा होता है, शाम को चर के आने के बाद थोड़ा पलता होता है। हरे पत्ते आदि खाने से वह और भी अच्छा हो जाता है। बकरी छोटी छोटी पत्तियाँ खाती हैं, उसके दूध में औषधीय गुण आ जाते हैं। चरने वाली देशी गाय का सर्वोत्तम होती है।

दही तनिक खट्टा होता है, बाँधने के गुण से युक्त होता है, पचाने में दूध से अधिक गरिष्ठ, वातनाशक, कफपित्तवर्धक और धातुवर्धक होता है। छाछ या मठ्ठा आयुर्वेद की दृष्टि से और भी लाभकारी होता है, यह कफनाशक और पेट के कई रोगों में अत्यन्त प्रभावी होता है। मक्खन आयुर्वेदीय दृष्टि से कई गुणों से पूर्ण रहता है, यह घी जैसा गरिष्ठ नहीं होता है पर रोटी आदि में लगा कर खाया जा सकता है। घी का प्रयोग आयुर्वेद में विस्तृत रूप से किया जाता है। दूध के इस रूप को अधिक समय तक संरक्षित रखा जा सकता है तथा पंचकर्म में स्नेहन आदि से लेकर औषधियाँ बनाने में इसका उपयोग होता है। यही नहीं, भोजन को स्वादिष्ट बनाने के कारण यह प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में खाया जा सकता है। घी सर्वश्रेष्ठ पित्तनाशक माना जाता है।

जो गाय दूध न भी देती हो, वह भी आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यन्त लाभदायक है। गोबर को कृषि कार्यों में उपयोग करने के अतिरिक्त गोबर के ऊपर बनायी भस्मों की क्षमता कोयले पर बनायी भस्मों से कहीं अधिक होती है। वहीं दूसरी ओर गोमूत्र का होना हमारे लिये वरदान है। गोमूत्र वात और कफ को तो समाप्त कर देता है, पित्त को कुछ औषधियों के साथ समाप्त कर देता है। पानी के अतिरिक्त  इसमें कैल्शियम, आयरन, सल्फर, सिलीकॉन, बोरॉन आदि है। यही तत्व हमारे शरीर में हैं, यही तत्व मिट्टी में भी हैं, यह प्रकृति के सर्वाधिक निकट है, संभवतः इसीलिये सर्वाधिक उपयोगी भी। देशी गाय, जो अधिक चैतन्य रहती हो, उसका मूत्र सर्वोत्तम है। उसमें पाया जाने वाला सल्फर त्वचा के रोगों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। खाँसी के रोगों में भी गोमूत्र बहुत लाभदायक है। टीबी के रोगियों पर किये प्रयोगों से अत्यधिक लाभ मिले हैं, यह शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बहुत अधिक बढ़ा देता है। गोमूत्र के प्रयोग कैंसर पर भी चल रहे हैं। जब शरीर में कर्क्यूमिन नामक रसायन कम होता है तो कैंसर हो जाता है। यह रसायन हल्दी के अतिरिक्त गोमूत्र में भरपूर मात्रा में है। इसका सेवन करने में लोग भले ही नाक भौं सिकोड़ते हों, पर वैद्य आज भी गोमूत्र अपनी विभिन्न औषधियों में देते हैं। आँख और कान के रोगों में गोमूत्र का बहुत लाभ है, क्योंकि आँख के रोग आँख में कफ बढ़ने से होता है। गाय का पंचामृत आयुर्वेद के अनुसार अत्यधिक उपयोगी है। 

कुतर्क हो सकता है कि यदि यह इतना ही उपयोगी होता तो गाय उसे छोड़ती ही क्यों, अपने उपयोग में क्यों नहीं ले आती। गाय को तभी तो माता कहा जाता है, क्योंकि गाय यह मूत्र हमारे उपयोग के लिये ही छोड़ती है। गोमूत्र गाय का प्रमुख उपहार है, दूध तो कुछ दिनों के लिये ही देती है। गोबर से उपले और खाद बनती है। जो गाय चरती है, उसके ही उत्पाद और गोमूत्र उपयोगी होता है। जर्सी गाय के मूत्र में तीन ही पोषक घटक है, जबकि देशी गाय के मूत्र में १० पोषक घटक हैं। कभी गाय का पौराणिक चित्र देखा हो तो गाय के मूत्र में धनवन्तरि, गोबर में लक्ष्मी, गले में शंकर बसते हैं। गोबर की खाद से खेती, उपले से ईँधन। गोबर गैस से ईंधन और गाड़ी भी चलायी जा सकती है। पेस्टीसाइट गोमूत्र से मिलता है। गाय हर प्रकार के विष अपने शरीर में ही सोख लेती है, तभी  गले में शंकर का वास माना गया है। इस प्रकार उसके शरीर से जो कुछ भी प्राप्त होता है, सारा का सारा मानव के लिये अत्यन्त उपयोगी है। गाय का संरक्षण हर प्रकार से आवश्यक है, मैंने पाली है, सच में बहुत अधिक आनन्द मिलता है।

यदि आधुनिकता पोषित रोगों के दुष्चक्र से निकलना है तो गाय को संरक्षित करना पड़ेगा। गाय हमारी सामाजिक व्यवस्था का प्राण है। तभी कहावत याद आती है कि हम गाय नहीं पाल सकते, गाय हमें पालती है। कुछ गायें थोड़ा कम दूध देती हैं। पर जो गाय दूध कम देती है, उसके बछड़े मज़बूत होते है। जो गाय अधिक दूध देती है, उसके बछड़े कमज़ोर होते हैं। गाय पालन के प्रति सबके मन में श्रद्धा है, मैंने अपने परिवार में देखा है, पिताजी में देखा है, सुबह से शाम तक प्रेम से गाय की सेवा करते हैं, घंटों उसके पास बैठे रहते हैं। कहते हैं कि जिस घर में गाय रहती है और जिस किसान के पास गाय रहती है, उन दोनों स्थानों पर भाग्य स्वयं आकर बसता है। काश, हमारी गायों का भी भाग्य सँवरे और वे पुनः हमारा भाग्य सँवारें। इति आयुर्वेद चर्चा।

चित्र साभार - www.swahainternational.org

2.4.14

आयुर्वेद का आर्थिक पक्ष

पिछले २०० वर्षों में भारत के स्वास्थ्य में हुये परिवर्तन को यदि एक पंक्ति में कहना हो तो इस प्रकार कहा जा सकता है। तब ५ में से ४ स्वस्थ रहते थे, अब ५ में से ४ अस्वस्थ। विकास और सुख सुविधायें शरीर को सुख देने के लिये होती हैं और यदि शरीर ही अस्वस्थ है तो सारे साधनों का क्या लाभ? दो सौ वर्षों का यह कालखण्ड अंग्रेजों के द्वारा आयुर्वेद को समूल नष्ट करने के व्यवस्थित प्रयासों से प्रारम्भ होता है, समाज को आर्थिक रूप से अशक्त बना मैकालियत को थोपने से उत्थान पाता है और अन्ततः ७-८ पीढ़ियों द्वारा घरों तक सिमटी परम्पराओं की विरासत को आधुनिकता में तिलांजलि देने से समाप्त होता है। क्या करें, किसी को भी सौ बार यह पढ़ाया जाये कि वह मूढ़ है तो वह मान बैठेगा और उसी प्रकार व्यवहार करने लगेगा। परतंत्रता का यह अभिशाप ढोना हमारे भाग्य में तो लिखा था, पर एक बात तो निश्चित है कि यह हमारी पीढ़ी में ही यह अभिशाप अपना अन्त पा जायेगा, हमारी संततियाँ उसके दुष्प्रभाव से मुक्त रहेंगी।

ज्ञान अभी भी जीवित जन में
मेरे एक मित्र बताते हैं कि उपेक्षा से ज्ञान भी दुखी होता है और लुप्त हो जाता है, स्वाभाविक और मानवीय गुण है यह। भाग्य से आयुर्वेद का प्रयोग और ज्ञान उपेक्षा से क्षीण तो हुआ है पर लुप्त नहीं हुआ है। राजकीय, प्रशासनिक और सामाजिक उपेक्षा के बाद भी यह उसकी अन्तर्निहित क्षमता ही है जो उसे जीवित रखे है। जिज्ञासा प्रेरित, अभी तक मुझे जिन क्षेत्रों में जितना भी अवसर गहरे उतरने का मिला है, एक तथ्य तो निश्चयात्मकता से कहा जा सकता है। हमारे पूर्वज अद्वितीय बौद्धिक प्रतिभा से युक्त थे। बौद्धिक उत्थान के जो उत्कृष्ट मानक वे नियत कर गये हैं, उनके समकक्ष भी पहुँच पाना हमारे लिये सम्मान का विषय होगा। अपनी विरासत से प्रतियोगिता कैसी, वह तो गर्व कर आत्मसात करने की विषयवस्तु है। ज्ञान के लिये मानव सभ्यतायें सदा ही लालायित रही हैं, कितना भी ज्ञान हो, सबको समाहित कर लेने का विशाल हृदय मानव ने पाया है। वर्तमान में सारे विश्व ने जिस स्तर पर आयुर्वेद को एक जीवनशैली और विशिष्ट उपचार पद्धति के रूप में स्वीकार किया है, यह ज्ञान अपनी पूर्णता में प्रकट होने वाला है।

स्वीकार्यता की उदात्त मानसिकता से आयुर्वेद की आर्थिक उपयोगिता को देखें तो पायेंगे कि वर्तमान में आयुर्वेद न केवल हमारे देश का स्वास्थ्य सुधार सकता है, वरन उसकी आर्थिक स्थिति को संतुलित कर सकता है। तीन स्तरों पर इसका प्रायोगिक अनुपालन किया जा सकता है। पहला है, आयुर्वेदीय सिद्धान्तों पर जीवन जीने की स्वस्थ परम्पराओं का पुनर्जीवन। ऐसा करने से ही रोगों और रोगियों की संख्या कम हो जायेगी और उनके निवारण में लगे अतिरिक्त संसाधन बचाये जा सकेंगे। बात संसाधन बचाने तक ही सीमित नहीं है, हमारी स्थिति इतनी दयनीय है कि हम सबको स्वास्थ्य सेवायें पहुँचा पाने में असमर्थ हैं। विकसित देशों की तुलना में हम आधे भी संसाधन नहीं जुटा पाते हैं, वहाँ जीडीपी का १० प्रतिशत तक व्यय होता है और हम ४ प्रतिशत भी नहीं पहुँच पाये हैं। 

दूसरा है, चिकित्सा पद्धति में आयुर्वेद का सम्यक उद्भव। आयुर्वेद में प्रयुक्त जो भी दवायें हैं, सब हमारे देश में बहुतायत से उपलब्ध हैं, सस्ती भी हैं। आयुर्वेद के विस्तार से ऐलोपैथी दवाओं के आयात में लगा धन बचाया जा सकता है। यही नहीं, आज भी ७० प्रतिशत जनसंख्या गावों में रहती है, जहाँ पर आधुनिक स्वास्थ्य सेवायें और डॉक्टर, दोनों ही अनुपस्थित हैं। सौभाग्य से वहाँ पर भी आयुर्वेद सम्मत देशी पद्धतियों की जड़ें किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं, उन्हें व्यवस्थित रूप से पुनर्जीवित किया जा सकता है। मैसूर राज्य में अंग्रेजों के आने के पहले हर गाँव में एक वैद्य होता था जो सामान्य रोगों के निदान से लेकर शल्यचिकित्सा तक करता था।

तीसरा है, असाध्य रोगों में ऐलोपैथी का मौन और आयुर्वेद द्वारा जगायी आशा की किरण। ऐलोपैथी की लक्षण आधारित चिकित्सा और रोग को समूल नाश न कर पाने की क्षमता ने लोगों को आयुर्वेद की ओर मोड़ा है। यही एकल कारण हैं कि केरल में ही स्वास्थ्य-पर्यटन के माध्यम से देश विदेश के लोग असाध्य रोगों में लाभ पाते हैं। जहाँ एक ओर हर वर्ष देश में आयुर्वेद पर मात्र १२०० करोड़ रुपये का बजट है, वहीं दूसरी ओर केरल में पंचकर्म के माध्यम से ही देश को लगभग १०,००० करोड़ रुपये की आय होती है।

कई क्षेत्रों में ऐलोपैथी की महत्ता नकारी नहीं जा सकती है, पर जहाँ पर ऐलोपैथी है ही नहीं, वहाँ पर भी उसके गुणगान करने का क्या लाभ। पहले और तीसरे क्षेत्र ऐसे ही हैं। जीवनचर्या और रोगों की असाध्यता पर ऐलोपैथी मौन है, क्योंकि उसका कार्यक्षेत्र रोग आने के बाद ही प्रारम्भ होता है और रोग के लक्षण जाते ही समाप्त हो जाता है। आज आधे से अधिक रोगी जीवनशैली के कारण उस स्थिति पर पहुँचे हैं। रोग होने के पश्चात उपचार करने का क्या लाभ, अच्छा हो हम रोग होने ही न दें, एक ऐसी जीवनशैली अपना कर जो निरोगी रहने के सिद्धान्त विधिवत बताती है। पंचकर्म आदि उपचारों से असाध्य रोगों को दूर करने में आयुर्वेद अपनी सिद्धहस्तता दिखा रहा है। यही नहीं, दूसरे क्षेत्र में भी ऐलोपैथी दवाइयों के दुष्प्रभाव हमें आयुर्वेद जैसी प्राकृतिक और समग्र पद्धति को अपनाने को विवश कर रहे हैं। जिस तरह आजकल एण्टीबॉयोटिक दवाओं में जड़ी बूटियों के प्रयोग को बढ़ावा मिल रहा है, उससे तो लगता है कि ऐलोपैथी भी आयुर्वेद के सिद्धान्त और क्षमताओं को स्वीकार करने में संकोच नहीं कर रहा है। केवल जड़ी बूटियों के क्षेत्र में ही ६००० करोड़ के व्यापार की संभानवायें हैं और प्रतिस्पर्धा में चीन है।

आज स्थिति यह है कि जिस परिवार में किसी को कोई असाध्य या गम्भीर रोग होता है, उस परिवार का आर्थिक स्वास्थ्य भी चरमरा जाता है। मध्यम वर्ग एक रोग के कारण ही निम्न मध्यम वर्ग में आ जाता है, निम्न मध्यम वर्ग का परिवार सीधे गरीबी रेखा में आ जाता है। हृदयाघात और कैंसर जैसी बीमारियाँ व्यक्ति के साथ साथ परिवार को भी पीड़ा दे जाती हैं। कारण इन सब रोगों का इलाज बहुत मँहगा होना है। डायबिटीज़ के संग जीवन बिताना प्रकृति के बड़े दण्ड से कम नहीं और नित्य यदि इन्सुलिन आदि लेना पड़े तो आर्थिक दण्ड ऊपर से। भारत में नगरीय जनसंख्या के १० प्रतिशत और ग्रामीण जनसंख्या के ३ प्रतिशत लोगों को डायबिटीज़ है, यही कारण है कि भारत को विश्व की मधुमेह राजधानी कहा जाता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि जब आने वाले १५ वर्षों में मधुमेह के रोगियों की संख्या ७ करोड़ से बढ़कर १० करोड़ हो जायेगी, तब लोगों को आय का २०-२५ प्रतिशत भाग इस रोग के निदान में खर्च करना पड़ेगा।

मधुमेह ही नहीं, जीवनशैली से जुड़े लगभग सभी रोगों में देश इसी दयनीय आर्थिक स्थिति में पहुँचने वाला है। २०१० में देश में ५ करोड़ हृदयरोगी और ३० लाख कैंसर के मरीज थे। जहाँ हृदयरोग और कैंसर के इलाज के लिये लाखों का खर्च लगता हो, वहाँ के नागरिक अपनी सारी कमाई इन्हीं रोगों को समर्पित करते रहेंगे। २०१२ की डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार लगभग २३ प्रतिशत भारतीय हाइपरटेंशन से ग्रसित हैं। कम गम्भीर रोगों में यह संख्या कहीं और अधिक है, लगभग १२ करोड़ श्वासरोग से, १० करोड़ जोड़दर्द से, १८ करोड़ पेटरोग से और २० करोड़ से अधिक लोग आँखों के रोगों से ग्रसित हैं। इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के आँकड़े अनुपस्थित हैं। गाँवों में डॉक्टरों के न जाने से ७० प्रतिशत जनसंख्या का भाग उपेक्षित है, न रोगों की संख्या ज्ञात है, न उनका निदान उपलब्ध है। अन्य रोग और नियमित रूप से होने वाले ज्वर आदि की संख्या लेंगे तो देश के स्वास्थ्य का दयनीय चित्र उभरेगा।

रोगियों की संख्या हमें चिन्तित करती है, पर उससे भी अधिक घबराहट डॉक्टरों की संख्या देखकर होती है। देश में कुल ६ लाख डॉक्टर हैं, हर २००० व्यक्तियों पर एक, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय मानक के आधार पर डॉक्टरों की संख्या १२ लाख होनी चाहिये। प्रतिवर्ष ३०,००० नये डॉक्टरों से भी यह अनुपात अगले २० वर्षों में भर पायेगा। वह भी तब, जब कोई डॉक्टर विदेश न जाये, रिटायर न हो और साथ ही कोई नया रोगी न बढ़े। यदि वर्तमान में डॉक्टरों की कमी पूरी करनी है तो मेडिकल कॉलेज खोलने और चलाने में १० लाख करोड़ रूपये का अतिरिक्त खर्च आयेगा। जिस देश में स्वास्थ्य का वार्षिक बजट ही ३७००० करोड़ हो, वहाँ पर सबको स्वास्थ्य दे पाने की अवधारणा बेईमानी लगती है।

इन चिन्तनीय परिस्थितियों में आयुर्वेद की यह बात सहारा देती है कि बस आहार और अपनी प्रकृति समझ लेने से ८५ प्रतिशत रोगों का निदान संभव है। समुचित और स्वस्थ जीवनचर्या के माध्यम से रोगों को न आने देना आयुर्वेद का सशक्त आधारस्तम्भ है। आयुर्वेद के इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर सबको अपनी चिकित्सा स्वयं करनी होगी। रोगी अपना चिकित्सक स्वयं ही है। जो पीड़ा झेलता है, यदि उसे तनिक ज्ञान हो तो वह उसका निवारण स्वयं ही कर सकता है। आयुर्वेद, प्रणायाम और आसन के साथ स्वास्थ्य में समग्रता और रोगों से लड़ने की सक्षमता आ जाती है। आयुर्वेद में क्षमता है कि वह देश का स्वास्थ्य ढाँचा संभाल सकता है, देश का आर्थिक स्वास्थ्य स्थिर कर सकता है और आयुर्वेद की क्षमताओं का विश्व में प्रचार व प्रसार कर देश के लिये आर्थिक सम्पन्नता भी ला सकता है। बस आवश्यकता है आयुर्वेद की टूटी हुयी कड़ियों को व्यापक और समग्र रूप से जीवन में पुनः जोड़ने की।

आयुर्वेद पर अन्तिम कड़ी में मेरे मन का प्रिय विषय, गाय और आयुर्वेद।

चित्र साभार - yanashala.com

29.3.14

पंचकर्म

आयुर्वेद में चिकित्सक पहले रोगपरीक्षा करता है, यदि रोग शमन से दूर नहीं हो सकता है तो शोधन का उपयोग करता है। बहुधा शमन के द्वारा निदान हो सकने पर भी शरीर पर औषधियाँ प्रभाव नहीं डाल पाती हैं, तब शोधन के द्वारा शरीर में जमे हुये दोषों को निकाला जाता है। दोष निकल जाने के पश्चात औषधियों का प्रभाव और भी बढ़ जाता है। इस प्रकार शोधन के माध्यम से शमन अधिक उपयोगी और प्रभावी हो जाता है। कई रोगों में शल्यकर्म की भी आवश्यकता पड़ती है और यदि शरीर शल्यकर्म सह सकने में सक्षम नहीं है तो उसके पहले भी शोधन आवश्यक हो जाता है। शोधन से शरीर में शल्यकर्म सह सकने की वांछित सक्षमता आ जाती है। यदि रोग नहीं भी हैं, फिर भी आयुर्वेद के आचार्यों ने स्वस्थ और स्फूर्त रहने के लिये दोषों के प्रकोप के प्रथम माह में ही शोधन कराने का निर्देश दिया है। पंचकर्म शोधन का एक बहुप्रचलित और अत्यन्त लाभदायक प्रकार है।

ऐसा नहीं है कि पंचकर्म सभी पर एक जैसा प्रयुक्त होता है। व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार प्रक्रियाओं, द्रव्यों, समय आदि का चुनाव इसके प्रभाव को बढ़ा देता है। पंचकर्म आयुर्वेद के विशेषज्ञ की देखरेख में करना चाहिये अन्यथा समुचित लाभ नहीं मिल पाता है। पंचकर्म कराने वाले बताते हैं कि इससे न केवल पुराने और जमे हुये रोग चले जाते हैं, वरन शरीर का एक नया जन्म हो जाता है। केरल में पंचकर्म पर्यटन को आकर्षित करने का अंग है। देश विदेश से पर्यटक आते हैं, न केवल केरल का प्राकृतिक सौन्दर्य निहार कर मन से स्वस्थ होते हैं, वरन पंचकर्म के माध्यम से एक नया शरीर लेकर वापस जाते हैं। आयुर्वेद के विशेषज्ञों की राय माने तो केवल पंचकर्म की क्षमता से ही आयुर्वेद को पुनः उसके गौरवपूर्ण पूर्वस्थान पर संस्थापित किया जा सकता है। वर्तमान में पर्यटन पर अधिक निर्भर होने के कारण पंचकर्म थोड़ा मँहगा है, पर इसकी व्यापकता और लाभ जैसे जैसे प्रचारित और प्रसारित होंगे, आयुर्वेद का यह वरदान सर्वजन की पहुँच में आ जायेगा।

पंचकर्म का सिद्धान्त बड़ा ही सरल है। जहाँ पर भी कफ, वात और पित्त संचित हो जाते हैं और असंतुलन का कारण बनते हैं, उन्हें वहाँ से बाहर निकालना। पंचकर्म में पाँच प्रक्रियायें होती हैं, पर शरीर को पंचकर्म के लिये तैयार करने के लिये पूर्वकर्म और पंचकर्म के पश्चात शरीर को पुनर्स्थिर करने के लिये पश्चातकर्म। समान्यतया पंचकर्म की अवधि रोग के अनुसार ७ से ३० दिन की होती है, जिसे पूर्वकर्म, प्रधानकर्म और पश्चातकर्म में विभक्त किया जाता है। चरक के अनुसार ६ माह के शास्त्रीय पंचकर्म करने से शरीर में अद्भुत लाभ होते हैं, पर आधुनिक जीवनशैली में शास्त्रीय पंचकर्म के लिये न तो लोगों के पास समय है और न ही वांछित अनुशासन।

स्नेहन - शिरोधार
पूर्वकर्म में दो प्रक्रियायें हैं, स्नेहन और स्वेदन। स्नेहन में तेल, घृत आदि का प्रयोग कर जमे हुये दोषों को उनके स्थान से ढीला किया जाता है जिससे उन्हें पंचकर्म के माध्यम से शरीर से बाहर निकाला जा सके। स्वेदन में शरीर में पसीना निकाल कर ढीले दोषों को महाकोष्ठ तक लाया जाता है। स्वेदन कृत्रिम रूप से कराया जाता है और किसी अंग विशेष या पूरे शरीर का हो सकता है। स्वेदन स्नेहन के पश्चात होता है और इस प्रक्रिया के समय पथ्य का विशेषरूप से ध्यान रखना होता है। वात से प्रभावित व्यक्तियों के लिये स्नेहन लाभकारी है। कफ या मोटापे से प्रभावित और कम जठराग्नि वाले लोगों को स्नेहन नहीं कराना चाहिये। कफ और वात के दोषों के लिये स्वेदन उपयुक्त है, पर कृशकाय, नेत्र और त्वचारोग के व्यक्तियों को स्वेदन नहीं कराना चाहिये। स्नेहन और स्वेदन दोनों ही कई प्रकार से किया जाता है, शरीर की प्रकृति और रोग के अनुसार प्रक्रिया का निर्धारण विशेषज्ञ द्वारा ही सुनिश्चित होता है। कुछ रोगों की चिकित्सा में स्नेहन को प्रधानकर्म के रूप में भी किया जाता है। चरकसंहिता के सूत्रस्थान के १३ वें अध्याय में स्नेहन और १४वें अध्याय में स्वेदन प्रक्रियाओं का विस्तृत वर्णन है।

पंचकर्म में पाँच अंग होते हैं, वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य और रक्तमोक्षण। वमन से कफ, विरेचन से पित्त, वस्ति से वात, नस्य से सिर, गले का कफ तथा रक्तमोक्षण से रक्तसंबंधी विकार दूर किये जाते हैं। कायचिकित्सा के अनुसार पंचकर्म में रक्तमोक्षण नहीं है और वस्ति में ही दो भाग हैं, आस्थापन और अनुवासन। जबकि शल्यचिकित्सा में रक्तमोक्षण ही पाँचवा पंचकर्म है।

वमन को कफ दोष की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। कफ के जमने का स्थान सर से लेकर आमाशय तक होता है। पहले स्वेदन से कफ वाह्य स्थान से हट कर इसी स्थान पर पहुँच जाता है, तत्पश्चात वमन या उल्टी की प्रक्रिया से वे सारे दोष मुख से बाहर आ जाते हैं। कृत्रिम रूप से वमन कराने के लिये विशेष प्रकार की औषधियों का प्रयोग किया जाता है। साँस के रोग, खाँसी, प्रमेह, एनीमिया, मुखरोग और ट्यूमर वमनयोग्य रोग हैं। गर्भवती स्त्री, कृशकाय, भूख से पीड़ित और कोमल प्रकृति वालों के लिये वमन निषेध है।

विरेचन को पित्त दोष की प्रधान चिकित्सा कहा जाता है। पित्त का स्थान पेट से लेकर आँतों तक होता है। पहले स्नेहन से आँतों में जमा हुआ अमा व अन्य विकार ढीले पड़ जाते हैं, तत्पश्चात विरेचन में औषधि खिलाकर गुदामार्ग से मल को बाहर निकाला जाता है। शिरशूल, अग्निदग्ध, अर्श, भगंदर, गुल्म, रक्तपित्त आदि रोग विरेचनयोग्य रोग हैं। नवज्वर, रात्रिजागृत और राजयक्ष्मा के रोगियों को विरेचन नहीं कराना चाहिये।

वस्ति को वात दोष की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। इसमें शरीर के विभिन्न मार्गों से औषिधीय द्रव और तेल प्रविष्ट कराया जाता है, जो भीतर जाकर वात के प्रभाव को निष्क्रिय करता है। लकवा, जोड़ों के दर्द, शुक्रक्षय, योनिशूल और वात के अन्य रोगों में वस्ति अत्यन्त प्रभावी होती है। खाँसी, श्वास, कृशकाय रोगियों को वस्ति नहीं कराना चाहिये।

नस्य को सिर और गले के रोगों की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। इस भाग में स्थित सारा कफ वमन के माध्यम से नहीं निकाला जा सकता है अतः नस्य का प्रयोग किया जाता है। इसमें नासापुट के द्वारा औषधि डाली जाती है। रोग और प्रकृति के अनुसार नस्य का प्रकार और मात्रा निर्धारित की जाती है। प्रतिश्याय, मुख विरसता, स्वरभेद, सिर का भारीपन, दंतशूल, कर्णशूल, कर्णनाद आदि रोग नस्ययोग्य रोग हैं। कृशकाय, सुकुमार, मनोविकार, अतिनिद्रा, सर्पदंश आदि के रोगियों को नस्य निषेध है।

रक्तमोक्षण का अर्थ है दूषित रक्त को शरीर से बाहर निकालना। शल्यचिकित्सा में इसका विशेष महत्व है और इसे सदा ही विशेषज्ञ की परामर्श और देखरेख में ही करना चाहिये। रक्तमोक्षण की क्रिया शिरावेधन करके भी की जाती है तथा बिना शिरावेधन के भी की जाती है। उसकी सर्वाधिक प्रचलित विधि जलौका(जोंक) द्वारा रक्त मोक्षण है। जोंक को स्थान विशेष पर लगा दिया जाता है तथा दूषित रक्त के चूसने के बाद उसे हटा लिया जाता है। विभिन्न रोगों के लिए विभिन्न शिराओं से रक्त मोक्षण का निर्देश आयुर्वेद में दिया गया है।

पश्चातकर्म में आहार और विहार से संबंधित सावधानियाँ व्यवहार में लानी होती है। यह तब तक करना होता है जब तक शरीर की सारी प्रक्रियायें अपनी पूर्णता में नहीं आ जाती है। किस तरह से भोजन की गरिष्ठता और मात्रा बढ़ानी है, खाद्य और पेय में क्या अनुपात रखना है और अन्य बाते पालन करनी होती हैं। यह लगभग उतने दिन ही चलता है जितने दिन पंचकर्म में लगा होता है, जिस गति से शरीर विकार मिटाने में उद्धत होता है, उसी गति से अपनी समान्य अवस्था में वापस भी आता है।

आयुर्वेद शताब्दियों से लम्बी आयु और उत्तम स्वास्थ्य का आधार रहा है। रोगों को न आने देने से लेकर, विकारों को व्यवस्थित विधि से हटाने के कारण यह मानव सभ्यता के लिये वरदान है। यह कहा गया है कि ४० की आयु के बाद वर्ष में १४ दिन और ६० की आयु के बाद वर्ष में २१ दिन हर व्यक्ति को पंचकर्म के लिये निकालने चाहिये। शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम्, शरीर साधने से जीवन में सब सुख और धर्म सधते हैं। अगली कड़ी में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं के परिप्रेक्ष्य में आयुर्वेद का आर्थिक पक्ष।

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26.3.14

घरेलू चिकित्सा

वैसे तो रसोई में प्रयुक्त हर खाद्य और हर मसाले के गुण वाग्भट्ट ने बताये हैं, यही कारण है कि उनकी कृति को आयुर्वेद का एक संदर्भग्रन्थ माना जाता है। किन्तु उन सबको याद रखना यदि संभव न हो तो भी खाद्यों को उनके स्वाद के अनुसार भी वर्गीकृत किया जा सकता है और उसके गुण बताये जा सकते हैं। हम जो भी खाते हैं, उन्हें मुख्यतः ६ रसों में विभक्त किया जा सकता है। ये ६ रस हैं, मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय। प्रथम तीन रस कफ बढ़ाते हैं, वात कम करते हैं। अन्तिम तीन रस वात बढ़ाते हैं, कफ कम करते हैं। अम्ल, लवण और कटु पित्त बढ़ाते हैं, शेष तीन रस पित्त कम करते हैं। इन रसों के प्रभाव को उनकी मौलिक संरचना से समझा जा सकता है। इन रसों में क्रमशः पृथ्वी-जल, अग्नि-जल, अग्नि-पृथ्वी, आकाश-वायु, अग्नि-वायु, पृथ्वी-वायु के मौलिक तत्व विद्यमान रहते हैं।

किस समय क्या, प्रकृति पर निर्भर है
कोई भी द्रव्य किसी दोष विशेष का शमन, कोपन या स्वस्थहित करता है। बहुत ही कम ऐसे द्रव्य हैं जो कफ, वात और पित्त, तीनों को संतुलित रखते हैं। हरडे, बहेड़ा और आँवला ऐसे ही तीन फल हैं। इन तीन फलों के एक, दो और तीन के अनुपात में मिलने से बनता है त्रिफला, वाग्भट्ट इससे अभिभूत हैं और इसे दैवीय औषधि मानते हैं। त्रिफला तीनों दोषों का नाश करता है। सुबह में त्रिफला गुड़ के साथ लें, यह पोषण करता है। रात में त्रिफला दूध या गरम पानी के साथ लें, यह पेट साफ करने वाला होता है, रेचक। इससे अच्छा और कोई एण्टीऑक्सीडेण्ट नहीं है। आवश्यकता के अनुसार इसे सुबह या रात में खाया जा सकता है। शरीर पर इसका प्रभाव सतत बना रहे, इसलिये तीन माह में एक बार १५ दिन के लिये इसका सेवन छोड़ देना चाहिये।

वात को कम रखने के लिये सबसे अच्छा है, शुद्ध सरसों का तेल, चिपचिपा और अपनी मौलिक गंध वाला। तेल की गंध उसमें निहित प्रोटीन से आती है और चिपचिपापन फैटी एसिड के कारण होता है। जब किसी तेल को हम रिफाइन करते हैं तो यही दो लाभदायक तत्व हम उससे निकाल फेकते हैं और उसे बनाने की प्रक्रिया में न जाने कितने दूषित कृत्रिम रसायन उसमें मिला बैठते हैं। इस तरह रिफाइण्ड तेल किसी दूषित पानी की तरह हो जाता है, गुणहीन, प्रभावहीन। जब सर्वाधिक रोग वातजनित हों तो सरसों के तेल का प्रयोग अमृत सा हो जाता है। हमारे पूर्वजों ने घी और तेल खाने में कभी कोई कंजूसी नहीं की और उन्हें कभी हृदयाघात भी नहीं हुये। तेल की मूल प्रकृति बिना समझे उसे रिफाइण्ड करके खाने से हम इतने रोगों को आमन्त्रित कर बैठे हैं। प्राकृतिक तेलों में पर्याप्त मात्रा में एचडीएल होता है जो स्वास्थ्य को अच्छा रखता है। घर में ध्यान से देखें तो हर त्योहार में पकवान विशेष तरह से बनते हैं। जाड़े में तिल और मूँगफली बहुतायत से खाया जाता और वह शरीर को लाभ पहुँचाता है। इसके अतिरिक्त जिन चीजों में पानी की मात्रा अधिक होती है, वे सभी वातनाशक हैं, दूध, दही, मठ्ठा, फलों के रस आदि। चूना भी वातनाशक है।

गाय का घी पित्त के लिये सबसे अच्छा है। जो लोग शारीरिक श्रम करते हैं या कुश्ती लड़ते हैं, उनके लिये भैंस का घी अच्छा है। देशी घी के बाद सर्वाधिक पित्तनाशक है, अजवाइन। दोपहर में पित्त बढ़ा रहता है अतः दोपहर में बनी सब्जियों में अजवाइन का छौंक लगता है। मठ्ठे में भी अजवाइन का छौंक लगाने से पित्त संतुलित रहता है। उसी कारण एसिडिटी में अजवाइन बड़ी लाभकारी है। काले नमक के साथ खाने से अजवाइन के लाभ और बढ़ जाते हैं। अजवाइन के बाद, इस श्रेणी में है, काला जीरा, हींग और धनिया।

कफ को शान्त रखने के लिये सर्वोत्तम हैं, गुड़ और शहद। कफ कुपित होने से शरीर में फॉस्फोरस की कमी हो जाती है, गुड़ उस फॉस्फोरस की कमी पूरी करता है। गाढ़े रंग और ढेली का गुड़ सबसे अच्छा है। गुड़ का रंग साफ करने के प्रयास में लोग उसमें केमिकल आदि मिला देते हैं जिससे वह लाभदायक नहीं रहता है। चीनी की तुलना में गुड़ बहुत अच्छा है। चीनी पचने के बाद अम्ल बनती है जो रक्तअम्लता बढ़ाती। चीनी न स्वयं पचती है और जिसके साथ खायी जाये, उसे भी नहीं पचने देती है। वहीं दूसरी ओर गुड़ पचने के बाद क्षार बनता है, स्वयं पचता है और जिसके साथ खाया जाता है, उसे भी पचाता है। गुड़ को दूध में मिलाकर न खायें, दूध के आगे पीछे खायें। दही में गुड़ मिलाकर ही खायें, दही चूड़ा की तरह। मकरसंक्रान्ति के समय, जब कफ और वात दोनों ही बढ़ा रहता है, गुड़, तिल और मूँगफली की गज़क और पट्टी खाने की परम्परा है, गुड़ कफ शान्त रखता है और तिल वात। कफ कम करने और तत्व हैं, अदरक, सोंठ, देशी पान, गुलकन्द, सौंफ, लौंग। संभवतः अब भोजन के बाद रात में पान खाने का अर्थ समझ में आ रहा है। मोटापा कफ का रोग है, मोटापे के लिये इन सबका सेवन करते रहने से लाभ है। 


मेथी वात और कफ नाशक है, पर पित्त को बढ़ाती है। जिन्हें पित्त की बीमारी पहले से है, वे इसका उपयोग न करें। रात को एक गिलास गुनगुने पानी में मेथीदाना डाल दें और सुबह चबा चबा कर खायें। चबा चबा कर खाने से लार बनती है जो अत्यधिक उपयोगी है। अचारों में मेथी पड़ती है, वह औषधि है। अचार में मेथी और अजवाइन अत्यधिक उपयोगी है। इन औषधियों के बिना आचार न खायें। चूना सबसे अधिक वातनाशक है। कैल्शियम के लिये सबसे अच्छा है चूना, हमारे यहाँ पान के साथ शरीर को चूना मिलता रहता है। इसकी उपस्थिति में अन्य पोषक तत्वों का शोषण अच्छा होता है। ४० तक की अवस्था में कैल्शियम हमें दूध, दही आदि से मिलता है, केला और खट्टे फलों से मिलता रहता है, उसके बाद कम होने लगता है। पान खाने की परम्परा संभवतः इसी कारण से विकसित हुयी होगी, पान हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है।

गोमूत्र वात और कफ को तो समाप्त कर देता है, पित्त को कुछ औषधियों के साथ समाप्त कर देता है। पानी के अतिरिक्त कैल्शियम, आयरन, सल्फर, सिलीकॉन, बोरॉन आदि है। यही तत्व हमारे शरीर में हैं, यही तत्व मिट्टी में भी हैं। यही कारण है कि गाय का और गोमूत्र का आयुर्वेद में विशेष महत्व है। गाय को माँ समान पूजने की परम्परा उतनी ही पुरानी है, जितना कि आयुर्वेद। गाय की महत्ता का विषय अलग पोस्ट में बताया जायेगा। 

हाई ब्लड प्रेसर आदि रोग जो रक्तअम्लता से होते है, उसमें मेथी, गाजर, लौकी, बिन रस वाले फल, सेव, अमरूद आदि, पालक, हरे पत्ते को कोई सब्जी। इन सबमें क्षारीयता होती है जो शरीर की रक्तअम्लता को कम करती है। नारियल का पानी रस होते हुये भी क्षारीय है। अर्जुन की छाल का काढ़ा वात नाशक होता है, सोंठ के साथ तो और भी अच्छा। दमा आदि वात की बीमारियाँ है, इसमें दालचीनी लाभदायक है। जोड़ों में दर्द के लिये चूना लें, छाछ के साथ। डायबिटीज में त्रिफला मेथीदाना के साथ अत्यन्त लाभकारी होता है। पथरी वाले चूना कभी न खायें, पाखाणबेल का काढ़ा पियें। दातों के दर्द में लौंग लाभदायक है। हल्दी का दूध टॉन्सिल के लिये उपयोगी है। जो बच्चे बिस्तर पर पेशाब करते हैं, उन्हें खजूर खिलायें। जीवन में किसी भी प्रक्रिया को अधिक गतिशील न करें, इससे भी बात बढ़ता है। कोई भी दवा तीन महीने से अधिक न ले, बीच में विराम लें, नहीं तो दवा अपना प्रभाव खोने लगती है।

अभी कुछ दिन पहले फेसबुक पर वात संबंधित एक बीमारी पर चर्चा चल रही थी। उपाय था लहसुन को खाली पेट कच्चा चबा कर खाने का। तभी एक सज्जन ने देशीघी के साथ उसे छौंकने की सलाह दी। उत्सुकतावश अष्टांगहृदयम् से लहसुन के गुण देखे, तो पाया कि लहसुन वात और कफनाशक होती है, पर पित्त बढ़ाती है। देशी घी के साथ छौंक देने से उससे पित्तवर्धक गुण भी कम हो जाता है, और वह वात रोगों के लिये और भी प्रभावी औषधि बन जाती है। अष्टांगहृदयम् के प्रथम भाग में जहाँ द्रव्यों के गुण बताये गये हैं, द्वितीय और तृतीय भाग में रोगों के लक्षण सहित उनका उपचार वर्णित किया गया है। कालान्तर में रसोई स्थिति औषधियों के गुणों के आधार पर उपचार बनते गये और प्रचलित होते गये।

अभी तक आयुर्वेद को जनसामान्य की दृष्टि से समझने और उसकी जीवन शैली में उपस्थिति की थाह लेने का प्रयास कर रहा था। अनुभवी वैद्यों का ज्ञान कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। रोगपरीक्षा और चिकित्सा की विशेषज्ञता उनके पास होने के बाद भी आयुर्वेद को जिस प्रकार जनसामान्य में प्रचारित किया गया है, वह सच में अद्भुत है। अगली पोस्ट में पंचकर्म के बारे में जानकारी।

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22.3.14

चिकित्सा और आयुर्वेद

आयुर्वेद के आधारभूत सिद्धान्तों को हमारी दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में समाहित कर हमारे पूर्वजों ने हमें स्वस्थ रखने के लिये एक व्यवस्थित तन्त्र का निर्माण किया है। एक अद्भुत विधा को प्रत्येक व्यक्ति की जीवन शैली में इतने गहरे और देश के प्रत्येक भाग में इतने विस्तृत बसा कर मनीषियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। निश्चय ही आयुर्वेद लाभकारी रही होगी अन्यथा विधायें इतने लम्बे समय तक मानव जीवन में अपना स्थान नहीं बना सकती हैं। भोजन आदि के एक ही नियम, हर रसोई में लगभग एक तरह के ही मसाले, आयुर्वेद के एक ही सूत्र और न जाने कितनी साम्यतायें देश के हर भाग में दिखें तो आयुर्वेद के विस्तार और विकास की एक सशक्त रूपरेखा दिखायी पड़ती है।

मसाले या आयुर्वेदिक औषधि
भारतीय आहार विहार आयुर्वेदिक आधार तो लिये ही है और उन नियमों का अनुसरण हमें हर प्रकार के रोगों से दूर रखने में सक्षम भी है, पर उसी सिद्धान्तों को और संघनित करने का कार्य हमारी रसोई करती है। भारतीय मसाले स्वाद के लिये सारे विश्व में विख्यात रहे हैं और भारत को व्यापारिक दृष्टिकोण से सदा ही लाभान्वित करते रहे हैं, पर संभवतः यह तथ्य बहुतों को ज्ञात न हो कि यही मसाले आयुर्वेदीय चिकित्सा के मौलिक आधारस्तम्भ भी रहे हैं। मसाला शब्द मुग़लों के साथ भारत में आया, वहाँ इसे मसाला ही कहा जाता था, किन्तु आयुर्वेद की सारी पुस्तकों में इन्हें औषधि के विशेषण से जाना जाता है। यही कारण है कि आज भी रोगों के न जाने कितने उपचारों में आपको रसोई में रखें मसाले ही काम आते हैं। चोट लग जाये तो हल्दी चूना लगा लो, ठण्ड लग जाये तो अदरक, पित्त भड़के तो अजवाइन, और न जाने कितने अन्य देशी उपाय। भले ही हम इन्हें दादी माँ के उपाय मानते रहे हों, पर इन देशी उपायों का आधार आयुर्वेद ही है। इन सारे मसालों के औषधीय गुण वाग्भट्ट कृत अष्टांग हृदयम् के छठे अध्याय में वर्णित है। एक बार उसे पढ़ने के बाद दादी माँ के देशी उपायों का वैज्ञानिक आधार समझ आ जाता है, कुछ भी रहस्य नहीं लगता है।

रोग आने के पहले तक ऐलोपैथी मौन रहती है, यही कारण रहा कि पिछली कड़ियों तक ऐलोपैथी और आयुर्वेद की तुलना का अवसर नहीं मिला। रोगों की चिकित्सा की बात आते ही जब हमारे पास दो विकल्प उपस्थित हों तो भ्रम दूर करने के लिये दोनों के सिद्धान्तों की संक्षिप्त तुलना आवश्यक है। ऐलोपैथी के महत्व व प्रभाव को आधुनिक जीवन में नकारा नहीं जा सकता है। मानव समाज द्वारा विकसित इस विधा ने न जाने कितने लोगों के प्राण बचाये हैं और उन्हें निरोगी  बनाया है। त्वरित पीड़ा निवारण में ऐलोपैथी के उपाय बेजोड़ हैं। फिर भी समग्र स्वास्थ्य की दृष्टि से दोनों की तुलना किसी एक के प्रति आलोचनात्मक न होकर उनके गुण दोषों पर आधारित रहे तभी विश्व को अपनी कृतियों का सर्वोत्तम लाभ मिल सकेगा।

ऐलोपैथिक दवायें प्रभाव डालती हैं, त्वरित डालती हैं, पर समस्या तब होती है जब ये अपना प्रभाव रोग के लक्षणों के अतिरिक्त शरीर के अन्य स्थानों पर कुप्रभाव के रूप में भी छोड़ आती है, इन्हें साइड इफ़ेक्ट कहते हैं। यही नहीं, बहुधा इन दवाओं का प्रभाव रोग की जड़ तक न पहुँच कर उनके लक्षण साधने तक सीमित रहता है, रोग का निवारण समग्रता से नहीं होता है। निवारण मनुष्य की प्रकृति के अनुसार न कर सबको एक सी दवा दी जाती है, जिससे सब पर उसका भिन्न प्रभाव होता है। दवा ऊतकों के स्तर पर प्रभाव न डाल कोशिकाओं के स्तर पर प्रभाव डालती है। बहुधा दवा कृत्रिम रूप से बनाये जाने के कारण बहुत तेजी से और एकतरफा प्रभावित करती है, प्राकृतिक न होने के कारण उसमें दुष्प्रभाव को संतुलित करने वाले तत्व नहीं होते हैं। आजकल इस तथ्य को समझ कर हर्बल आधारित एण्टीबॉयोटिक बनायी जा रही हैं। आयुर्वेद में ये सारे ही दोष नहीं हैं। एक तो इसमें कोई साइड इफेक्ट नहीं होते हैं, रोग को जड़ तक पहुँचा जाता है, प्रकृति के अनुसार निवारण भिन्न होता है, औषधियों का प्रभाव ऊतकों के स्तर पर होता है, सारी औषधियाँ प्रकृति से ही ले जाती हैं। चर्चा आयुर्वेद की है अतः उसके गुणों और पद्धतियों तक ही सीमित रहेगी। उद्देश्य आयुर्वेद के संभावित लाभों के प्रति जन सामान्य को आकर्षित करना भर है, उन तथ्यों को उद्घाटित करना है जो किसी कारण से सामने लाये नहीं जाते हैं। 

आयुर्वेद में चिकित्सा को दो स्तरों पर विभाजित किया जाता है, शमन और शोधन। शमन में किसी भड़के दोष को भोजन या औषधि के द्वारा ठीक किया जाता है, शोधन में वाह्य कारकों का प्रयोग कर भड़के दोष को हटाया जाता है। आहार विहार में किये परिवर्तन, उपवास और औषधियाँ शमन की श्रेणी में आती हैं। दक्षिण भारत में प्रचारित पंचकर्म और सुश्रुत की विख्यात शल्य चिकित्सा शोधन में आती है। दोष विशेष की दृष्टि से देखें तो, वात के लिये बस्ती शोधन और तेल शमन है, पित्त के लिये विरेचन शोधन है और घी शमन है, कफ के लिये वमन शोधन है और शहद शमन है। शमन की आवश्यकता तो सतत है क्योंकि परिवेश, वातावरण और व्यवहार में होने वाले परिवर्तन दोष को प्रभावित करते रहते हैं, शोधन की आवश्यकता तब आती है जब कोई दोष ध्यान न देने के कारण अपने सामान्य रूप से बहुत अधिक बढ़ जाता है। वाग्भट्ट ने कहा है कि यद्यपि स्वस्थ व्यक्ति में कोई रोग प्रकट नहीं होता है, फिर भी ऋतु के अनुसार जिस माह में दोष को प्रकोप हो, उसके प्रथम माह में ही शोधन कर लेना चाहिये। शमन में दोष का कुछ भाग रह जाता है, शोधन में उस दोष का कारण जड़ से नष्ट हो जाता है। शोधन से सारे संचित दोष मिट जाते हैं, तभी शरीर पर औषधियाँ सर्वाधिक प्रभावी भी होती हैं। जिन्होंने पंचकर्म कराया है, वे कहते हैं कि पंचकर्म के पश्चात शरीर का पुनर्जन्म होता है। अत्यधिक उपयोगी इस प्रक्रिया की विस्तृत चर्चा आगामी कड़ी में करेंगे।

शरीर में विकार की पहचान एक बड़ा विषय है, रोग का पता हो तो उसका निदान अत्यधिक सरल हो जाता है। ऐलोपैथी में एक पीड़ा से संबंधित दसियों टेस्ट कराने का विधान है। स्वाभाविक भी है, कोई डॉक्टर विकार की पहचान में पूर्णतया आश्वस्त होना चाहता है, एक लक्षण के कई कारण हो सकते हैं। जिन्हें आयुर्वेद को पास से देखा है, उन्हें उन वैद्यों को देखने का अवसर अवश्य मिला होगा जो केवल नाड़ी देखकर यह तक बता देते हैं कि आप क्या खाकर आ रहे हैं, रोग की पहचान तो सरल ही है। आयुर्वेद में पहचान की प्रक्रिया के तीन चरण हैं, दर्शन, स्पर्शन और प्रश्नम्। रोगी को देखकर वाह्य लक्षणों के आधार पर रोग बताया जा सकता है, अगले स्तर पर नाड़ी देखकर रोग निश्चित किया जा सकता है और अन्त में अन्य संशयों को प्रश्न के आधार पर मिटाया जा सकता है। नाड़ीपरीक्षा पर आधारित पहचान का मूल तीन नाड़ियों पर निर्भर करता है, ये हैं इड़ा, पिंगला और सुषम्ना। साथ ही गर्भनाभि नाड़ी और स्रोत नाड़ी मार्ग के भी आधार नाड़ीपरीक्षा में रहते हैं। कहते हैं कि वात प्रकृति के लोगों की नाड़ी की गति सर्प सी, पित्त प्रकृति की मण्डूक सी और कफ प्रकृति की हंस सी होती है। स्थान, गति, स्पन्दन और गुण के संदर्भ में नाड़ी का बल, लय और पूर्णता मापी जाती है। किस उँगली से क्या मापना है, इसका एक सिद्धान्त है। इससे व्यक्ति की प्रकृति पता चलती है, मन्दाग्नि, अजीर्ण, किस रस का अधिक सेवन किया है, कोष्ठ की स्थिति, रोग असाध्यता आदि जानी जा सकती है। इसी प्रकार खाद्य विशेष का प्रभाव, व्यायाम, मैथुन, निद्रा, वेगावरोध, भाव विशेष आदि नाड़ी परीक्षा से जाने जा सकते हैं। कई नियम हैं जिसमें नाड़ीपरीक्षा सर्वोत्तम होती है। नाड़ीपरीक्षा से रोगी की अवस्था बतायी जा सकती है, पर अभ्यास और अनुभव न होने से इसमें भूल की संभावनायें हैं। यही कारण है कि आजकल नाड़ीपरीक्षा के सिद्धान्तों पर आधारित कम्प्यूटर तकनीक विकसित की जा रही हैं।

आयुर्वेद में रोगों का एक प्रमुख कारण अधारणीय वेगों को रोकना बताया गया है। ये १३ वेग हैं, अपानवायु, मल, मूत्र, छींक, प्यास, भूख, निद्रा, खाँसी, श्रमजन्य श्वास, जम्हाई, अश्रु, वमन और शुक्र। इनको रोकना जितना हानिकारक है, उतना ही इनको बलात करना विकार उत्पन्न करता है। वेगों को रोकने या बलात करने से वात कुपित होती है। अष्टांग हृदयम् के चौथे अध्याय में हर प्रकार के वेग रोकने या बलात करने से होने वाले रोगों का वर्णन और उनका निदान दिया गया है। इनको हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अपानवायु, मल, मूत्र रोकने से नेत्ररोग, हृदयरोग, पिंडलियों में ऐंठन, सरदर्द और न जाने कितने रोग होते हैं। छींक रोकने से शिरशूल, नेत्र और ज्ञानेन्द्रियों की दुर्बलता, प्यास रोकने से निरुत्साहिता, बहरापन, ज्ञानशून्यता और भ्रम, भूख रोकने से शरीर टूटना, अरुचि, ग्लानि, कृशता और चक्कर आना, निद्रा रोकने से मन में बेचैनी, मस्तक और नेत्र में भारीपन, आलस्य, जम्हाई और तन्द्रा, खाँसी रोकने से श्वास वृद्धि, भोजन में अरुचि, हृदयरोग, मुखशोष और हिक्का रोग। इसी प्रकार अन्य वेगों को रोकना हानिकारक है। वात कुपित होने से इसके रोग शरीर के हर भाग में प्रस्फुटित होते हैं।

अब प्रश्न उठ सकता है कि यदि भूख का वेग नहीं रोकना है तो उपवास का इतना महत्व क्यों है? उपवास शरीर की शुद्धि की क्रिया है, इसे लंघन भी कहते हैं। जब लगे कि कुछ अतिरिक्त खा लिया है तो उसके ऊपर और नहीं खाना चाहिये, उपवास कर लेना चाहिये। शाकाहारी और नियमित अनुशासन में भोजन करने वालों को उपवास की कोई आवश्यकता नहीं होती है। यदि सप्ताह में ६ दिन तीन बार भरपेट भोजन किया है या कहीं कुछ ऊटपटाँग खाया हो तो सप्ताह में एक दिन उपवास कर सकते हैं। उपवास निर्जला तो कदापि न करें। उपवास के समय नियमित जल पीते रहें, क्योंकि जठराग्नि अपने समय से भड़कती है, उसे कुछ न मिला तो शरीर की धातुओं का ही पाचन करने लगेगी जिससे वात की अधिकता हो जायेगी। उपवास के समय लौंग का पानी, मूँग का पानी, पानी में घी पियें, पक्का पानी आदि पियें। यदि लम्बे उपवास करने हो तो एक दिन छोड़ छोड़ कर करें। शाकाहारी के लिये लम्बे उपवास अच्छे नहीं हैं। माँसाहारी को लम्बे उपवास करना चाहिये क्योंकि लम्बे उपवास करने से माँसाहार के कुप्रभाव चले जाते हैं। श्रम का कार्य करने वालों को उपवास कदापि नहीं करना चाहिये। ज्वरचिकित्सा में लंघन को उपयुक्त माना गया है पर शरीर का बल किसी भी स्थिति में कम नहीं होना चाहिये, रोग से लड़ने के लिये बल अत्यन्त आवश्यक है।

आयुर्वेद में अमा का सिद्धान्त है जिसका सारूप्य आधुनिक चिकित्सा में नहीं मिलता है। अमा का शाब्दिक अर्थ है, अपका खाना। जो भी खाना ठीक से पचता है उससे रसादि धातुओं का शोषण हो जाता है और वह मल के रूप में शीघ्र ही निकल जाती है। ऐसे पदार्थ जो कि ठीक से पचते नहीं हैं, वे न तो शोषित हो पाते है और न ही मल बन पाते हैं, यह आँतों में धीरे धीरे बढ़ते रहते हैं। ये शेषांश दूषित, भारी, चिपचिपे होते हैं और अमा कहलाते हैं। अमा रसों के शोषण में बाधा पहुचाती हैं और नाड़ियों से ऊर्जा के अन्य प्रवाहों को भी रोकती है। यह धीरे धीरे एकत्र होता रहता है और रोग का कारण बनता है। यही नहीं अवशोषण प्रवाहों को अवरुद्ध करने के कारण अमा औषधियों के प्रभाव को भी मन्द करती है। जब भोजन का अवशोषण अन्य धातुओं के रूप में नहीं हो पाता है तो मेद(चर्बी) अधिक बनती है, जो मोटापे का कारण भी है। चिन्ता और तनाव में भी शरीर ऐसे रसायन छोड़ता है जिससे अमा बढ़ता है। शरीर के अच्छे स्वास्थ्य और स्फूर्ति के लिये इसका नियन्त्रित रहना अत्यन्त आवश्यक है। सशक्त जठराग्नि अमा के निर्माण पर नियन्त्रण रखती है। उदाहरणार्थ जमा हुआ चीज़ अमा की तरह होता है और कठिनता से आगे बढ़ता है, अग्नि के प्रभाव में पिघलने से वह बह जाता है। शोधन से भी अमा शरीर से निकल जाती है, तब औषधि भी और प्रभावी होती है।

दोषों के कुपित होने और दोषोत्पत्ति के कारण जानने के पश्चात उनका शमन और शोधन हम अगली कड़ियों में समझेंगे। शमन का विषय मुख्यतः घरेलू चिकित्सा पर और शोधन का विषय पंचकर्म पर आधारित रहेगा।

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19.3.14

जीवनचर्या

दिनचर्या और ऋतुचर्या के पश्चात जीवनचर्या पर विमर्श स्वाभाविक है। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के लिये आयुर्वेद का उपयोग थोड़ा भिन्न हो जाता है। तीनों अवस्थाओं के लिये नियम समान नहीं रह सकते क्योंकि शरीर की प्रकृति अवस्था के साथ परिवर्तित हो जाती है। बच्चों में कफ, युवाओं में पित्त और वृद्धों में वात अधिक होता है। बच्चों की त्वचा की स्निग्धता और सौम्यता इसका प्रमाण है। काप्य ऋषि के अनुसार कफ के समान्य गुण दृढ़ता, उपचय,, उत्साह, वृषता, ज्ञान, बुद्धि आदि हैं। असामान्य कफ इसके विपरीत गुण लाता है जो क्रमशः शैथिल्य, कार्श्य, आलस्य, क्लीबता, अज्ञान, मोह आदि का प्रेरक है।

कफ में पढ़े न कोय
यह कफ का ही प्रभाव होता है कि बच्चों को बहुत अधिक और गाढ़ी नींद आती है, वहीं दूसरी ओर वात के प्रभाव में वृद्धों की नींद कम और अस्थिर होती है। विकास की दृष्टि से यह नींद आवश्यक है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के लिये शरीर में स्थिरता चाहिये और कफ वह स्थिरता प्रदान करता है। कफ में गुरु का गुण है, गुरु शरीर में रक्त के दबाव को बढ़ाता है, नींद से वह पुनः कम होता है। नींद कम होने से भी कफ कुपित होता है, इससे बच्चे में चिड़चिड़ापन आता है। यदि बच्चा चिड़चिड़ाता है तो सीधा मान लीजिये कि उसकी नींद पूरी नहीं हुयी है। चिड़चिड़ेपन में वह बहुधा आपका कहना भी नहीं मानता है। इस स्थिति में आप उसे बलात पढ़ने बैठा भी देंगे तो वह मेज पर ही सो जायेगा। सोने के बाद ही वह अच्छा अनुभव करता है, प्रसन्नचित्त रहता है और आपकी बात मानता है। नवजात शिशु तो १६ घंटे तक सोता है, ५ से १४ वर्ष तक के बच्चों के लिये १० घंटे तक की नींद पर्याप्त है। संभव हो सके तो यह नींद दो भागों में दी जाये।

कफ की अधिकता के कारण बच्चे को कफजनित रोग ही बहुतायत में होते हैं। कफ का प्रभावक्षेत्र सर से हृदय तक होता है, आँख, कान, नाक, गले में खासीं, ठंड आदि में। बच्चों को यथासंभव कफ की विकृति से बचाना चाहिये। नियमित मालिश, कान में तेल, काजल आदि अधिक एकत्रित कफ को हटा देते हैं। बिगड़े कफ में पढ़ाई भी नहीं हो सकती है, आपकी नाक बह रही हो और आप पढ़कर या ध्यान लगा कर देखिये।

कफ कल्पनाशीलता का भी द्योतक है, यही कारण है कि बच्चों को कहानी सुनना और बातें बनाना बहुत अच्छा लगता है। यदि कल्पनाशीलता न होगी तो मानसिक और बौद्धिक विकास ठहर जायेगा। यदि आप उनकी कल्पना की उड़ानों में सहयोगी नहीं बनेंगे, तो वे टीवी में कार्टून आदि देखकर अपनी कल्पना को आयाम देंगे। उनकी कल्पनाशीलता को शमित करने के स्थान पर उसे भ्रमित या कुंठित करने से कफ व्यथित होता है।। इस कारण से भी बच्चों में चिड़चिड़ापन आता है। इसके कुप्रभाव से अपने बच्चे को किसी भी प्रकार से बचायें। कल्पनाशीलता के साथ कफ प्रेम का भी कारक है, प्रेम के और कफ के गुण देखें तो उनमें एक विशिष्ट साम्यता परिलक्षित होती है। कफ कुपित होने से वही कल्पनाशीलता और प्रेम विकृत हो जाता है। पाश्चात्य देशों में बच्चों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति इसी कफ विकृति का परिणाम है। सामान्य कफ यदि स्थिरता लाता है तो असामान्य कफ अस्थिरता। 

बच्चों को व्यायाम नहीं करने देना चाहिये, व्यायाम से लघुता आती है और वृद्धि बाधित होती है। उन्हें उनके रुचिकर खेल खेलने दें, इससे उनका मनोरंजन भी होता है और अन्यथा वात भी नहीं बढ़ता है। सुबह के विद्यालय बच्चों को सदा ही कष्टकर लगते हैं, उठने की इच्छा नहीं होती है, सुबह का समय कफ का जो होता है। सुबह उठाने के लिये रात में शीघ्र सुलाना आवश्यक है, रात में बड़े लोग स्वयं टीवी देखने के चक्कर में बच्चों को भी जगाते रहते हैं और फिर विद्यालय भेजने के लिये पुनः उठाकर बैठा देते हैं। विद्यालय थोड़ी देर से हों तो बहुत अच्छा, नहीं तो बच्चों को विद्यालय खाली पेट नहीं भेजना चाहिये, भोजन करा कर ही उन्हें विद्यालय भेजें। सूक्ष्म अन्न बच्चों के लिये अत्यन्त हानिकारक है, यह वात बढ़ाता है। मैदे के पकवान, जैसे समोसे, मटरी बच्चों के लिये अनुपयुक्त है। उससे भी अधिक पिज्जा और बर्गर हानिकारक हैं। यदि स्वाद लाना ही है तो घर में ही गेहूँ, मक्के आधारित पकवान बना लें।


युवावस्था पित्त प्रधान होती है। शरीर में पित्त के सामान्य गुण हैं, पाचन, दृष्टि, ऊष्मा, वर्ण, शौर्य, हर्ष। पित्त कुपित होने पर यही गुण क्रमशः अपाचन, दृष्टिक्षयता, ज्वर, वर्णविकृति, भय, क्रोध में बदल जाते हैं। युवावस्था कर्म और धातुसंचय की अवस्था होती है। इसमें ७-८ घंटे की नींद ही पर्याप्त है। दातून, प्रणायाम, व्यायाम, मालिश, स्नान, पोषणयुक्त सुखकारक और स्वादिष्ट भोजन, व्यवसाय निरत रहना आदि इस काल के लक्षण हैं। महिलाओं के सारे व्यायाम रसोई में ही हो जाते हैं। पढ़ने वाले युवाओं के लिये पित्तकारक स्थिति सर्वाधिक हितकारी है, इसी में सबसे अच्छा अध्ययन होता है। पित्त में व्यायाम के बाद मालिश की जाती है, जिनमें वात की अधिकता होती है उन्हें मालिश के बाद व्यायाम लाभकारी होता है। परिवार का पालन, उद्यम और संततियों का लालन पालन इसी काल में होता है। पित्त जीवन को ऊर्जामय रखता है। पित्त कुपित होने से सामान्य जीवन में तनाव आता है। युवावस्था में मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक है, ऐसा नहीं होने से ही अधिकांश रोग आ जाते हैं और वृद्धावस्था में पीड़ा का कारण बनते हैं। युवावस्था १५ से ६० वर्ष तक मानी है, युवावस्था के उत्तरार्ध में वात बढ़ने लगता है।

चीनी पित्त के लिये विशेषरूप से हानिकारक है, आधे से अधिक रोगों की जड़ है और रक्त अम्लता की एकमात्र कारक है। हो सके तो उसके स्थान पर गुड़ खायें, चीनी की चाय के स्थान पर गुड़ की चाय पियें। चीनी पचने के बाद अम्लीय हो जाती है, जबकि गुड़ पचने के बाद क्षारीय रहता है। चीनी में सुक्रोस है, इसमें कुछ भी पोषक गुण नहीं होते हैं, न यह स्वयं पचता है, और जिसके साथ खाया जाये उसे पचने भी नहीं देता है। चीनी में मिला सल्फर शरीर से निकालना कठिन हो जाता है। चीनी बनाने में पानी बहुत व्यर्थ होता है और प्रदूषित पदार्थ को निपटाना कठिन हो जाता है। चीनी के अतिरिक्त प्रकृति की बनायी हर मधुर चीज में फ्रक्टोस है। गुड़ में भी मिठास है और उसकी रासायनिक प्रक्रिया न्यूनतम है। हर भोजन के बाद थोड़ी मात्रा में गुड़ खाने से भोजन शीघ्र पचता है और यदि उसी स्थान पर चीनी खा ली तो पाचन में और समय लगता है। मैं पित्त के प्रभाव वाली अवस्था में हूँ और यह पढ़कर चीनी का प्रयोग यथासंभव बंद कर चुका हूँ। उसके स्थान पर गुड़ का सेवन करने से एसिडिटी आदि से त्वरित आराम है, साथ ही साथ जीवन में गुड़ सा सोंधापन भी आ गया है।

वात के बारे में पिछली कड़ियों में विस्तृत चर्चा हो चुकी है। वृद्धावस्था में सप्रयास वात न बढ़ने दें। ६० के ऊपर व्यायाम निषेध है, मालिश नित्य आवश्यक है क्योंकि इससे वात घटता है। जीवन को मन्दगति पर ले आयें, विश्राम करें और निस्पृह भाव से केवल दिशानिर्देश करें। कोई कहना न माने तो न ही क्रोधित हों और न ही चिन्ता करें। संभवतः इसीलिये ईश्वर की भक्ति का मार्ग इस आयु में स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम माना गया है। 

जीवन को परिवेश के अनुसार चलना चाहिये। जिस स्थान पर रह रहे हैं, जिस मौसम में जी रहे हैं, वहाँ की स्थानीय और तात्कालिक भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार उत्पादों का उपयोग करना चाहिये। कोई भी चीज जिस वातावरण में पैदा होती है, उसमें उस वातावरण से उत्पन्न विकारों से लड़ने की क्षमता होती है। गर्मी में होने वाले फल जल देते है। जाड़े में मूँगफली होती है, जो ऊष्मा देती है, बसा देती है और साथ ही प्रकृति उसे पचाने के लिये अधिक जठराग्नि भी देती है। एक सरल सा सिद्धान्त है कि जो वस्तु जहाँ होती है, वह वहीं के मौसम के अनुकूल होती है। चाय भी ऐसी ही वस्तु है। चाय ठंडी जगहों में होती है और अपने गुण के अनुसार उच्च रक्तचाप बढ़ाती है। ठंडे में रहने वालों लोगों में रक्तचाप कम होता है तो उनको चाय की आवश्यकता होती है। मैदान पर रहने वालों का तो रक्तचाप वैसे ही बढ़ा रहता है, इस स्थिति में चाय हानिकारक हो जाती है। चाय के स्थान पर अपनी प्रकृति के अनुसार काढ़ा पियें, जिससे आपको लाभ हो। यदि चाय की लत लग गयी है तो कम पत्ती डालें। यदि पीना ही पड़े तो हरे पत्ती की चाय लाल पत्ती की चाय से कहीं अच्छी है।

स्वप्रकृति के अनुसार दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या का अनुप्रयोग सामान्य भोजन को ही औषधि का मान दे देता है और यथासंभव रोगों को दूर रखता है। यदि फिर भी रोग हुआ तो आयुर्वेद में चिकित्सा की भी सुदृढ़ प्रस्थापना है। उसके बारे में आगामी कड़ियों में।

चित्र साभार - www.theguardian.com

15.3.14

ऋतुचर्या

यदि पृथ्वी २३.४ डिग्री पर झुकी न होती तो इतनी ऋतुयें न होतीं, तापमान सम रहता। यह हमारा भाग्य है कि हमारे यहाँ ६ ऋतुयें हैं और संसार में जितनी भी प्रकार की जलवायु है, वे किसी न किसी अंश में हमारे देश में उपस्थित है। व्यक्ति की कफ, पित्त, वात प्रकृति, दिन रात का परिवर्तन और ऋतुओं का परिवर्तन, ये तीनों कारक शरीर को विशिष्ट रूप से प्रभावित करते हैं और इसे समझाने के लिये वाग्भट्टजी ने ऋतुचर्या के नाम से एक पूरा अध्याय लिखा है। ऋतुसंबंधी बातों पर ध्यान देंगे तो याद आता है कि हमारे पूर्वजों ने ऋतु के अनुसार खाद्य अखाद्य की एक लम्बी सूची हमें बतायी है, आइये उनके आधार जान लें।

क्या जानूँ, क्या भाव प्रकृति का
६ ऋतुयें हैं, शिशिर, बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त। ऋतुयें सूर्य के चक्र को मानती हैं। प्रथम तीन ऋतुयें सूर्य के उत्तरायण काल में रहती हैं, सूर्य की ऊष्मा से सौम्यता शोषित होने के कारण इसे आदान काल भी कहा जाता है। शेष तीन ऋतुयें सूर्य के दक्षिणायन काल की हैं और बल बढ़ने से इसे विसर्ग काल भी कहा जाता है। सूर्य की खगोलीय स्थिति के अनुसार समझें तो जब दिन और रात की अवधि समान होती है, तो वे बसन्त और शरद के मध्य बिन्दु होते हैं, क्रमशः मार्च और सितम्बर में। जब सूर्य सर्वाधिक उत्तर में होता है तो ग्रीष्म समाप्त होती है, जब सूर्य सर्वाधिक दक्षिण में होता है तब हेमन्त समाप्त होती है। हिन्दी माह के अनुसार देखें तो माघ में शिशिर से प्रारम्भ होकर दो दो माह की एक ऋतु होती है।

सूर्य, जल और वायु, तीनों किन्हीं भी दो ऋतुओं में समान नहीं रहते हैं, कभी गर्मी रहती है, कभी नमी, कभी शुष्कता, कभी शीत, तो कभी गलन। यही परिवर्तन शरीर को प्रभावित करता है और उसका संतुलन बिगाड़ता है, इस प्रकार दोष संचित होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार एक ऋतु में किसी दोष का संचय होता है, उसकी अगली में उसका प्रकोप और उसकी अगली में उसका प्राशय या लोप होता है। कफ का संचय शिशिर में, प्रकोप बसन्त में और प्राशय ग्रीष्म में होता है। वात का संचय ग्रीष्म में, प्रकोप वर्षा में और प्राशय शरद में होता है। पित्त का संचय वर्षा में, प्रकोप शरद में और प्राशय हेमन्त में होता है। इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वाधिक पुष्ट ऋतुयें हेमन्त और शिशिर हैं और सर्वाधिक सावधानीपूर्ण वर्षा है। 

व्यक्ति की जठराग्नि उसके शारीरिक बल के समानुपाती होती है। शरीर में जितना अधिक बल रहेगा, भूख उतनी ही खुल कर लगेगी, उतना ही अच्छा पाचन भी होगा। व्यायाम करने से बल बढ़ता है, बल से जठराग्नि बढ़ती है, बढ़ी जठराग्नि से पोषण अच्छा होता है और व्यायाम के लिये और ऊर्जा मिलती है, यही शरीर के पोषण का चक्र है। पर जब सूर्य या किसी अन्य वाह्य प्रभाव से शरीर का बल कम होने लगता है, तब जठराग्नि भी उसी अनुपात में प्रभावित होती है। ग्रीष्म और वर्षा में अल्प, बसन्त और शरद में मध्य, हेमन्त और शिशिर में उच्च बल और जठराग्नि रहती है। ऋतुचर्या जठराग्नि और कफ, वात और पित्त के प्रभाव के आधार पर ही भोजन और रहन सहन की सलाह देती है।

हेमन्त और शिशिर में शीत वात की चादर और गर्म कपड़े शरीर की ऊष्मा को बाहर जाने से रोकते हैं, जिससे जठराग्नि बढ़ती है। जब जठराग्नि बढ़ी हो तो उस समय ऐसा भोजन करना चाहिये जो गरिष्ठ हो और उसे पचने में अधिक समय लगे। ऐसा नहीं करने पर किया हुआ भोजन शीघ्र ही पच जाता है और शेष बची अग्नि रसादि धातुओं को भी पचाने का कार्य करने लगती है, जो वातकारक होता है। उस समय वात बढ़ने से अग्नि को और बल मिलता है और वह और भड़कती है, जब तक वह शमित न हो जाये। इस ऋतु में भूखे रहने से शरीर की हानि होती है। यही समय होता है कि हम अपने शरीर का अधिकतम पोषण कर सकते हैं, इस समय का खाया सब पच जाता है। कितने सुखद आश्चर्य की भी बात है कि प्रकृति भी इस समय मुक्त हस्त से सब लुटाती है, खेत, खलिहान, पेड़, पौधे आदि बस जीवों के पोषण में रत दीखते हैं। इस समय घी, दूध, मूँगफली, गुड़, तिल आदि जो भी मिले, खाना चाहिये, यह मानकर कि यही वर्ष का पोषण काल है। उस खानपान को साधे रखने के लिये और अतिरिक्त कफ को बाहर निकालते रहने के लिये मालिश, व्यायाम करते रहें। शिशिर में वातावरण में तनिक रुक्षता बढ़ जाती है, उस समय वातवर्धक भोजन से स्वयं को बचा कर रखें।

शिशिर के बाद बसन्त ऋतु आती है और हेमन्त शिशिर का एकत्र कफ पिघलने लगता है, यह कफ का प्रकोप काल भी है। कफ की अधिकता जठराग्नि को मन्द करती है। इस ऋतु में व्यायाम करें और उबटन लगायें, उबटन भी कफनाशक होता है। जल ऊष्ण पियें, यह भी कफ कम करने में सहायक होता है। कहते हैं कि बसन्ते भ्रमणं पथ्यं, अर्थात बसन्त में टहलने से पोषण बढ़ता है। ग्रीष्म में आकाश से अग्नि बरसती है और कफ का प्राशय होता है। तेज चलती गर्म हवाओं में सूक्ष्मता होती हैं, ये वातकारक वातावरण है, इस समय वातसंचय होता है। वात को दूर करने के उपाय इस काल की ऋतुचर्या है। शीतल पेय यथासंभव पियें और आप देखेंगे कि इस समय के फलों में पर्याप्त मात्रा में जल रहता है, जैसे तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी आदि। किसी और ऋतु में दिवास्वप्न या दोपहर में सोने का निषेध है, पर ग्रीष्म में कफ संरक्षित करने की दृष्टि से दोपहर में सोना आवश्यक है। रात के समय हल्के कपड़ों में चन्द्रमा के नीचे और छत पर सोना चाहिये।

वर्षा में वात का प्रकोप और पित्त का संचय होता है। चिलचिलाती धूप और वाष्पित होते पानी से पित्त कुपित हो जाता है। नम वाष्प त्रिदोष का संतुलन बिगाड़ देती है। जठराग्नि कम होने से भोजन पचता नहीं है, जिससे धातुक्षय होता है और वात बढ़ता है। अग्नि यदि हल्की हो तो वात उस पर विपरीत प्रभाव डालता है और उसे बुझा देता है, जिससे जठराग्नि और भी कम हो जाती है। पसीने के द्वारा शरीर की ऊष्मा भी बाहर निकलती रहती है। इस समय भोजन अत्यन्त सीमित करना चाहिये और पित्त को और भड़कने से रोकना चाहिये। साथ ही जल और शाक दूषित होने से संयमित आहार विहार का भी पालन करना चाहिये। चातुर्मास में एक स्थान पर रह कर ही आहार विहार का प्रावधान है, इस ऋतु में स्वास्थ्य रक्षा सर्वाधिक आवश्यक है। शरद में पित्त का प्रकोप होता है, आहार मध्यम रखना चाहिये और पित्त कम करने के सभी उपाय करने चाहिये। इस ऋतु में न्यूनतम श्रम करना चाहिये।

जह हर ऋतुचर्या अलग अलग हो तो ऋतुसन्धि में विशेष रूप से सावधान रहना होता है। शरीर स्वयं को त्वरित परिवर्तन में ढाल नहीं पाता है। ऋतुसंधि का ध्यान नहीं रखने से असात्म्यज रोग हो जाते हैं। इसके लिये १५ दिन के संधिकाल में व्यवस्थित रुप से एक ऋतुचर्या निकल कर दूसरे में प्रवेश करना चाहिये। ऋतुसंधि की रूपरेखा अष्टांगहृदयं में व्यवस्थित रूप से समझायी गयी है।


भारतीय मनीषियों ने ऋतुचर्या को अत्यधिक महत्व दिया है, एक ऋतु का सदुपयोग पिछले प्रकोपित दोषों को दूर करने के लिये किया जा सकता है और आहार विहार मात्र से ही रोगों को दूर रखा जा सकता है। ऐसा नहीं करने से ऋतुयें रोग का निमित्तिकारण बन जाती है। कोई आश्चर्य नहीं कि आधुनिक चिकित्सा ऋतु आधारित रोगों के उद्गम को स्वीकार कर रही है। अपराह्न में होने वाला सरदर्द वात के कारण होता है और वर्षा में होने वाले सारे रोग भी वात के कारण ही होते हैं। त्वचा के रोग जो पित्त के कारण होते हैं, वे भी शरद में ही अधिकता से क्यों होते हैं। बसन्त में कफ से जुड़े एलर्जी के रोग बंगलोर जैसे शहर में भी बाढ़ से आ जाते हैं।

अपने आयुर्वेद से दूर होते हुये और पाश्चात्य की नकल करते हुये हमें मधुमेह की वैश्विक राजधानी होने का सम्मान मिल चुका है। जीवनशैली से संबंधित अन्य रोग, जैसे उच्च रक्तचाप, मोटापा और हृदयरोग में भी हम बहुत उन्नति कर रहे हैं। इस दुर्गति का सारा श्रेय आयुर्वेद को भूलने को जाता है। चलिये मान लिया कि जब तक अंग्रेज थे, उन्होने कुटिलतावश संस्कृति के इस पक्ष को चरवाहों की बकबक माना। अब तो हम स्वतन्त्र भी है और बुद्धिमान भी, तो क्यों अपने चारों ओर धुँआ सुलगाये बैठे हैं। सब कुछ तो स्पष्ट लिखा है, पढ़ें।

अगली पोस्ट में जीवनचर्या व अन्य रोचक सूत्र। 

चित्र साभार - blogs.rediff.com

12.3.14

दिनचर्या

पूरे विद्यार्थी जीवन में न जाने कितनी बार दिनचर्या बनायी गयी, उसे बड़े से कागज पर सुन्दर अक्षरों में लिखकर पढ़ने के स्थान पर सजाया गया, अनुपालन को ब्रह्मसत्य मान मन को अनुशासित किया, जितने दिन चल पाया उसे निभाया और अन्त में जो भी लाभ हुआ, उसे भगवान का प्रसाद मान पुनः स्वच्छन्द हो लिये। लगभग हर एक के जीवन में यही क्रम रहा। ध्येय था कि अधिकतम समय पढ़ाई के लिये निकाला जा सके। आयुर्वेद में भी दिनचर्या का महत्व शरीर को अधिकतम स्वस्थ रखना है। इसमें निर्देशों की विस्तृत सूची नहीं, बस कुछ ध्यान रखने योग्य बिन्दु हैं। आयुर्वेद में दिनचर्या कभी भी स्वतन्त्र रूप से नहीं चलती है, उस पर ऋतुचर्या और जीवनचर्या का प्रभाव रहता है। ऋतुचर्या और जीवनचर्या के सिद्धान्तों को बाद में समझेंगे, वर्तमान में दिनचर्या के मूलभूत आधार समझ लें। यद्यपि दिनचर्या के कुछ सिद्धान्तों को पृथक रूप से पिछली पोस्टों में रखा है, पर सरलता और सहजता की दृष्टि से उनको बीच बीच में उद्धृत करना आवश्यक रहेगा।

दिनारंभ, शुभारंभ, प्रकृतिलयता
मेरे लिये सुबह बहुत जल्दी उठना सदा ही पिछली रात का अपूर्ण प्रण बना रहा, फिर भी सदा प्रयास करता रहा। क्या करें पिताजी कहते थे कि सूर्योदय के पहले उठने से तेज बढ़ता है और जो सूर्योदय के बाद जो सोता है, सूर्य उसका तेज हर लेते हैं। प्रकृति उस समय सर्वाधिक शुद्ध होती है, शरीर की यह प्रकृतिलयता शरीर को भी शुद्ध बनाती है। वात ऊर्जा वातावरण में व्याप्त होती है, वात गतिमयता का प्रतीक है, अतः शरीर को ऊर्जान्वित और गतिमय करने का सर्वाधिक प्रभावी समय है यह। वहीं दूसरी ओर सूर्य निकलते ही कफ का प्रभाव बढ़ने लगता है, यदि सोते रह गये तो अधिक कफ बढ़ने से आलस्य धर लेगा, अधिक कफ जठराग्नि को मन्द कर देता है और कालान्तर में शरीर निस्तेज होने लगता है। पिताजी ने तो कभी आयुर्वेद पढ़ा नहीं, पर वाग्भट्ट के ये सूत्र किसी न किसी ने तो हमारे पूर्वजों को सिखाये ही होंगे, सरल भाषा में, निष्कर्ष रूप में। सुबह उठने से हाथ में दो घंटे अतिरिक्त मिल ही जाते हैं, बहुधा आत्मचिंतन और स्वाध्याय के काम आते हैं। हमें तो कभी रात में पढ़ने में मन लगा ही नहीं, रात को पढ़ना भी पड़ा तो कभी काम आया नहीं। घर में भी बस सुबह पढ़ लेने को उकसाया जाता रहा। सुबह पढ़ लो, विद्यालय जाओ, वापस आकर जीभर खेलो, थको और खाकर गहरी नींद में सो जाओ। बड़े होते गये तो आलस्य गहराता गया। पिताजी आज भी ५ बजे उठ जाते हैं, उनके घर में रहते हम भी सुधर लेते हैं।

उठने के बाद गुनगुना जल, तत्पश्चात शौचनिवृत्ति। आयुर्वेद में दातून का महत्व बताया गया है, १२ प्रकार की दातूनों का वर्णन है, नीम, बबूल आदि, जैसी परिवेश में उपलब्धता हो। दातून में कषाय, तिक्त और कटु रस होते हैं। कषाय रस मसूड़ों को संकुचित करता है, जिससे दाँत सशक्त होते हैं। तिक्त और कटु रस लारों को स्राव करते हैं जिससे दाँत संबंधी और दोष दूर होते हैं। कुछ रोगों में जिनमें लार की कमी होती है या तन्त्रिकातन्त्र प्रभावित होता है, उन रोगों के लिये दातून का निषेध है, वे लोग दंतमंजन कर सकते हैं। जीभी करने से जीभ पर जमे आमदोष के अवशेष चले जाते हैं और मुख पूर्णतया शुद्ध हो जाता है। आँखें आग्नेय होती है और पित्त प्रकृति से पोषित होती हैं, पित्त भी संतुलित मात्रा में, न कम न अधिक। रात भर सोने से उस पर रात का शेष पित्त और कफ जम जाता है। आँखों का लाल होना शेष पित्त के संकेत हैं, आँखों को शीतल जल से धोने से वह चला जाता है। काजल या अंजन में कफस्राव के गुण होते हैं। काजल लगाने से आँखों से संचित कफ कीचड़ के रूप में निकल जाता है। बताते चलें कि बच्चों में कफ स्वाभाविक बढ़ा रहता है, अतः उनकी आँखें संरक्षित रहें, इसके लिये बचपन में काजल का बड़ा महत्व है। जो लोग काजल को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं, वे नहीं जानते कि यह भी आयुर्वेद सम्मत और वैज्ञानिक कार्य है, जो जीवन भर आँखों की ज्योति बनाये रखता है और कफजनित मोतियाबिन्द जैसे रोगों को दूर रखता है। आयुर्वेद में मोतियाबिन्द ठीक करने के लिये कफस्राव कराने वाली ही औषधियाँ दी जाती हैं।

आयुर्वेद में नित्यप्रति मालिश(अभ्यंग) करने को कहा गया है, सिर, कान और पैरों की विशेषरूप से। माँसपेशियों पर घर्षण से शरीर स्वस्थ होता है और त्वचा में स्निग्घता आती है। तेल में ऊष्ण और सूक्ष्म गुण होते हैं जो कफ को कम करते हैं। सर पर तेल की मालिश करने से अतिरिक्त कफ का नाश होता है। कानों में तेल डालने से अपने स्निग्ध गुणों के कारण वायु संतुलित रहती है। पैर भी वात के स्थान हैं, अधिक चलने फिरने से पैरों में रुक्षता आ जाती है, जिसे विवाई फटना कहते हैं। पैरों के मूल से होकर दो शिरायें आँखों तक जाती हैं अतः इसका प्रभाव आँखों पर भी पड़ता है। पैरों की मालिश से रुक्षता चली जाती है और आँखों की रक्षा भी होती है। जिनको कफ की कमी के कारण रोग होते हैं, उन्हें मालिश का निषेध है।

प्राणायाम का महत्व पिछली कड़ी में स्पष्ट किया जा चुका है। व्यायाम करने से शरीर में लघुता आती है, कार्य करने की सामर्थ्य बढ़ती है, अग्नि प्रदीप्ति होती है और चर्बी(कफजनित) का क्षय होता है। दौड़ना, तैरना, कसरत, कुश्ती आदि व्यायाम के प्रकार हैं। शास्त्रों में आसन और सूर्यनमस्कार को श्रेष्ठ माना गया है। १०-१२ साल तक के बच्चों को व्यायाम नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनका विकास कफ आधारित रहता है। वृद्धों को भी व्यायाम का निषेध है क्योंकि इससे वात में वृद्धि होती है और उनके अन्दर आयु के कारण वात वैसे ही बढ़ा रहता है। पसीना आते ही व्यायाम बन्द कर देना चाहिये। शीतकाल में सामान्य व वसन्त व ग्रीष्म में अर्ध व्यायाम ही करना चाहिये। आयुर्वेद के अनुसार व्यायाम की अधिकता हानिकारक है। व्यायाम करने वालों को समुचित घी दूध का सेवन करना चाहिये।

पहले के समय में साबुन का प्रयोग नहीं था, उसके स्थान पर उबटन लगाया जाता था। इससे शरीर का मैल निकल जाता था और रोमछिद्र खुल जाते थे। स्नान करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। सामान्य रूप से स्नान शीतल जल से ही करना चाहिये पर ठंड में गुनगुना पानी प्रयोग किया जा सकता है। नेत्ररोग, मुखरोग, अतिसार और अजीर्ण से पीड़ित लोगों को स्नान नहीं करना चाहिये। भोजन के पश्चात तो कभी भी स्नान नहीं करना चाहिये। स्नान के बाद भोजन करने से पाचन सर्वोत्तम होता है। भोजन और जल के बारे में आयुर्वेद के नियम पिछली कड़ियों में बताये जा चुके हैं। प्रातकाल का समय स्वयं के लिये निकाल लेने से जीवन भर के लिये स्वास्थ्य सधा रहता है। सामान्यतः भोजन के बाद हम सब अपने कार्यों में लग सकते हैं। दोपहर में अल्प और रात्रि में अत्यल्प भोजन के साथ दिन भर की गतिविधियों का समुचित निर्वाह कर सकते हैं। रात्रि में दस बजे तक सो जाने से सुबह उठने में सुविधा रहती है। यही नहीं, रात में ९ से १२ का समय कफ का होता है और कफ के प्रभाव में आयी नींद सबसे गाढ़ी होती है। रात में जगने वालों के लिये बस यही प्रार्थना है कि उनका पाचन ठीक रखे ईश्वर, क्योंकि जगे रहने से पाचन प्रभावित होता है। यही समय शरीर अपने भिन्न अंगों के अवयवों को पुनर्निमित करता है, नींद में वह सारे कार्य ठीक से होते हैं।

शरीर दिनचर्या के अनुसार स्वयं को ढालने में सक्षम होता है, पर प्रकृति विरुद्ध जाने में अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाता है। पता नहीं चलता है पर त्रिदोषों का असंतुलन धीरे धीरे होता रहता है और अंततः वह विकार बनकर प्रकट होता है। आयुर्वेद के अनुसार आदर्श दिनचर्या यदि निभा पाना संभव न भी हो, तो भी यथासंभव सिद्धान्तों की दिशा में बढ़ना चाहिये। दिनचर्या में कोई बदलाव सहसा नहीं करना चाहिये, धीरे धीरे और सारे पक्षों का ध्यान रखकर ही करना चाहिये, क्योंकि शरीर औचक बदलाव स्वीकार नहीं करता है और उसके विरुद्ध स्पष्ट संकेत देता है। उदाहरणार्थ सुबह उठने में एक घंटा कम करने का कार्य मैंने चार चरणों और एक माह में पूरा किया है।   मुझे सच में इस बात पर आश्चर्य होता है कि किस प्रकार शिफ्टों में कार्य करने वाले लोग अपने शरीर की क्रियाओं में संतुलन ला पाते होंगे। रेलवे के कर्मचारियों में रात और दिन का यह भ्रम पर्याप्त मात्रा में हैं और कुछ श्रेणियों में तो पूरी तरह से अस्त व्यस्त है। उसका स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है और उसके कुप्रभावों को कम करने के क्या उपाय है, इसके स्पष्ट उत्तर मैं खोज नहीं पाया, पर विश्वास है कि आयुर्वेद के ही सिद्धान्तों से उत्तर निकलेंगे, संभवतः किसी विशेषज्ञ की सहायता से।

जब रसोई के ऊपर चर्चा चल रही थी, तब कई पाठकों ने एक सहज प्रश्न पूछा था कि आधुनिक जीवनशैली की बाध्यताओं और विवशताओं के परिप्रेक्ष्य में किस स्तर तक आयुर्वेद को निभाया जा सकता है? जब सिद्धान्त पता होता है तो हल निकल आता है, जब सिद्धान्त का पता नहीं होता है तो वही नियम पत्थर की तरह राह में खड़ा सा लगता है। कई लोगों को जानता हूँ जो गाड़ी में जाते समय भ्रस्तिका, कपालभाती और अनुलोम विलोम कर लेते हैं। कुछ लोग अपने कार्यालय में ही लिफ्ट का प्रयोग न कर सीढ़ियों से चढ़ने को अपना व्यायाम बना लेते हैं। मेरे एक मित्र अपने कक्ष में टहल टहल कर फोन पर सबसे बतियाते हैं। मेरे एक कनिष्ठ अधिकारी अपनी व्यस्त जीवनशैली में सुबह समय नहीं निकाल पाते हैं तो सायं ४ किमी दूर स्थित अपने घर पैदल जाते हैं। मालिश, उबटन आदि दैनिक करना संभव न हो तब भी उन्हें सप्ताहान्त में किया जा सकता है, बचपन में तो हमारे यहाँ रविवार का दिन इन सबके लिये नियत था। कहीं पढ रहा था कि एक अभिनेता तो दिनभर की व्यस्तता के बाद घर में नियमित मालिश कराते हैं।

आयुर्वेद प्रदत्त दिनचर्या की संरचना तार्किक रूप से मस्तिष्क में पसर गयी है। अब विद्यार्थी जीवन की तरह प्रयोगों की आवश्यकता नहीं है। बौद्धिक ग्राह्यता और शारीरिक उत्थान दिनचर्या के किन पक्षों में छिपा है, दिन के किन भागों में सर्वोत्तम है, इसकी विस्तृत विवेचना हमारे महर्षि बहुत पहले कर चुके हैं। नियमों के आधार में सुदृढ़ सिद्धान्त हैं और सदियों का प्रायोगिक अनुभव भी। बात बहुत देर से समझ आयी पर अब आ गयी है। कुछ दिन पहले बिटिया ने अपने बाबा को फोन पर बताया कि पिताजी सुबह उठने लगे हैं और उठकर योग भी करने लगे हैं, तो वे बड़े प्रसन्न हुये। अब मुझे वर्षों पहले दी गयी उनकी सलाहों की अवहेलना पुत्र का अधिकारपूर्ण लाड़ प्यार नहीं लगता है, अब मुझे उन सलाहों के पीछे वाग्भट्ट जैसे समर्थ आचार्य खड़े दिखायी पड़ते हैं, जिन्हें न स्वीकार करना मेरी मूढ़ता भी होगी और उनके करुणामयी योगदान का निरादर भी। यहाँ लाभ मेरा ही है, यदि यह परमार्थ भी होता तो भी स्वीकार करता।

आगे की कड़ी में ऋतुचर्या के बारे में चर्चा करेंगे। अपने देश के लिये इसका औचित्य और भी गहरा है, ईश्वर ने हमें ६ ऋतुओं का वरदान दिया है, पर इस वरदान का किस तरह सदुपयोग करना है, जानेंगे आयुर्वेद के परिप्रेक्ष्य में।

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