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असहमति में बसते हैं लोकतन्त्र के प्राण

एक थे रमेश दुबे। शाजापुर के विधायक थे। 1967 में भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चुने गए थे किन्तु बाद में, तत्कालीन मुख्य मन्त्री द्वारकाप्रसादजी मिश्र के प्रभाव से काँग्रेस में आ गए थे। यह किस्सा उन्होंने मुझे तो नहीं सुनाया था किन्तु जिस जमावड़े में सुनाया था, उसमें मैं भी मौजूद था।

बात आपातकाल की थी।  अखबारों पर सेंसरशिप लागू थी। तत्कालीन काँग्रेसाध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने ‘इन्दिरा ही भारत और भारत ही इन्दिरा’ (इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा) का नारा देकर अपनी अलग पहचान बनाई हुई थी। काँग्रेस का सिण्डिकेट जिस इन्दिरा गाँधी को ‘गूँगी गुड़िया’ कह कर कठपुतली की तरह नचाने के मंसूबे बाँधे हुए था वही इन्दिरा गाँधी सबको तिगनी का नाच नचा रही थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ‘दूसरी आजादी’ का उद्घोष कर चुके थे। पूरा देश उनके पीछे चल रहा था। जेपी समेत तमाम जेपी समर्थक काँग्रेसियों सहित विरोधी दलों के नेता जेलों में बन्द किए जा चुके थे। सेंसरशिप के बावजूद चुप न रहनेवाले पत्रकार भी कैद किए जा रहे थे। इन्दिरा गाँधी दहशत का पर्याय बन चुकी थी। किन्तु इन्दिरा खेमे में जेपी के नाम की दहशत थी। उन्हें खलनायक बनाने के उपक्रम शुरु हो चुके थे। इन्हीं में से एक उपक्रम था - फासिस्ट विरोधी सम्मेलन। गाँव-गाँव में ऐसे सम्मेलन आयोजित किए जा रहे थे। काँग्रेसी इन्हें ‘फासिस्ट सम्मेलन’ कहते थे। 

ऐसे ही एक सम्मेलन में तत्कालीन मुख्य मन्त्री प्रकाशचन्द्रजी सेठी ने जेपी को चुनौती दे दी - ‘मध्य प्रदेश में कहीं से विधान सभा  चुनाव जीतकर बता दें।’ उनका कहना था कि दुबेजी उठ खड़े हुए और बोले - ‘ओ साब! बस करो। आज ये कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसा कहने की भूल मत करना। हमारे गाँवों में पंचायतों के ऐसे वार्ड भी हैं जहाँ इन्दिराजी भी नहीं जीत सकती। किसी सड़कछाप आदमी  ने इन्दिराजी को ऐसी चुनौती दे दी तो, आप तो चले जाओगे लेकिन हम लोगों को लेने के देने पड़ जाएँगे। बोलती बन्द हो जाएगी। जवाब देते नहीं बनेगा।’ सेठीजी अपनी सख्ती के कारण अलग से पहचाने जाते थे। लेकिन कुछ नहीं बोले। अपना भाषण खत्म किया और बैठ गए। यह चुनौती उन्होंने कहीं नहीं दुहराई। 

बिलकुल ऐसा का ऐसा तो नहीं लेकिन मूल विचार में ऐसा ही किस्सा बैतूलवाले राधाकृष्णजी गर्ग वकील साहब ने सुनाया था। गर्ग साहब काँग्रेस के जुझारू मैदानी कार्यकर्ता रहे। यह किस्सा भी 1967 के विधान सभा चुनावों का है। उन्हें पूरा भरोसा था कि काँग्रेस की उम्मीदवारी उन्हें ही मिलेगी। उनकी तैयारी और भागदौड़ भी तदनुसार ही थी। किन्तु निजी नापसन्दगी के कारण द्वारकाप्रसादजी मिश्र ने किसी और को उम्मीदवारी दे दी। गर्ग साहब ने आपा नहीं खोया। सीधे जाकर मिश्रजी से मिले और बोले - ‘दादा! आपने मेरा टिकिट काट दिया। कोई बात नहीं। किन्तु मैं यह कहने आया हूँ कि मैं चुनाव लडूँगा और काँग्रेसी उम्मीदवार बन कर लडूँगा। मैं यही कहूँगा कि नाराजगी के कारण मिश्रजी ने भले ही मुझे उम्मीदवार नहीं बनाया किन्तु असली काँग्रेसी उम्मीदवार मैं ही हूँ। आज निर्दलीय लड़ने का मजबूर कर दिया गया हूँ लेकिन जीतने के बाद काँग्रेस में ही जाऊँगा। आपसे एक ही निवेदन है कि प्रचार के लिए आप मेरे विधान सभा क्षेत्र में मत आना। वहाँ आपके बनाए काँग्रेसी उम्मीदवार की हार तय है। आप प्रचार पर आओगे तो लोग इसे आपकी हार कहेंगे। यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा। आपने भले ही मुझे टिकिट नहीं दिया लेकिन मेरे नेता तो आप ही हो।’ मिश्रजी चुपचाप सुनते रहे। कुछ नहीं बोले।

अपनी बात कह कर गर्ग साहब लौट आए और काम पर लग गए। मिश्रजी ने गर्ग साहब का कहा माना। बैतूल क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। हुआ वही जो गर्ग साहब घोषित करके आए थे। काँग्रेसी उम्मीदवार को पोलिंग एजेण्ट नहीं मिले। गर्ग साहब अच्छे-भले बहुमत से जीते। वे ‘निर्दलीय’ के रूप में विधान सभा में पहुँचे लेकिन लोगों ने उन्हें काँग्रेसी विधायकों के बीच ही पाया। 

ये किस्से यूँ ही याद नहीं आए। गए दिनों प्रधानमन्त्री मोदी ने भाजपाई सांसदों को कुछ भी पूछताछ न करते हुए, चुपचाप, हनुमान की तरह दास-भाव से काम करने की सलाह दी। वही देख/पढ़कर मुझे दुबेजी और गर्ग साहब याद आ गए। दोनों ने अपने-अपने नेता को अनुचित पर टोका और टोकने के बाद भी निष्ठापूर्वक अपनी-अपनी जगह बने रहे। इसके समानान्तर यह भी उल्लेखनीय कि दोनों नेताओं ने इनकी बातों की न तो अनुसनी, अनदेखी की न ही इनकी बातों का बुरा माना। ये दोनों अपने नेताओं से असहमत थे लेकिन नेताओं ने इनकी असहमति को ससम्मान सुना और परिणाम आने से पहले ही स्वीकार किया। 

देश हो या दल, लोकतन्त्र के प्राण तो असहमति को सुनने और संरक्षण देने में ही बसते हैं। अंग्रेजी का ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ इन्दिरा गाँधी को ‘अ.भा. काँग्रेस समिति की एकमात्र पुरुष सदस्य’ (ओनली मेल मेम्बर ऑफ एआईसीसी) लिखता था। जिस पर इन्दिरा गाँधी की आँख टेड़ी हो जाती, उसका राजनीतिक जीवन समाप्त मान लिया जाता था। उन्हीं इन्दिरा गाँधी की इच्छा के विपरीत युवा तुर्क चन्द्रशेखर  काँग्रस समिति का चुनाव लड़े भी और जीते भी। लेकिन काई अनुशासनात्मक कार्रवाई करना तो दूर रहा, इन्दिरा गाँधी ने सार्वजनिक रूप से अप्रसन्नता भी नहीं जताई। ऐसा ही एक और मौका आया था जब जतिनप्रसाद चुनाव लड़े थे। वे हार गए थे किन्तु इन्दिरा गाँधी ने तब भी कोई कार्रवाई नहीं की थी। 

लेकिन कालान्तर में इन्दिरा गाँधी ने, पार्टी अध्यक्ष और प्रधान मन्त्री पद पर एक ही व्यक्ति रखने की शुरुआत कर काँग्रेस का आन्तरिक लोकतन्त्र खत्म कर दिया। काँग्रेस के क्षय का प्रारम्भ बिन्दु आज भी यही निर्णय माना जाता है। 

समाजवादी आन्दोलन का तो आधार ही असहमति रहा है। समाजवादियों से अधिक वैचारिक सजग-सावधान लोग अन्य किसी दल में कभी नहीं रहे। समाजवादियों की तो पहचान ही ‘नौ कनौजिए, तेरह चूल्हे’ बनी रही। एक समाजवादी सौ सत्ताधारियों पर भारी पड़ता था। संसद की तमाम प्रमुख बहसें आज भी समाजवादियों के ही नाम लिखी हुई हैं। समाजवादियों के कारण ही सत्ता निरंकुश नहीं हो सकी। किन्तु समाजवादियों का सत्ता में आना हमारे लोकतन्त्र की सर्वाधिक भीषण दुर्घटना रही। 

जहाँ तक संघ (भाजपा) का सवाल है, वहाँ तो आन्तरिक लोकतन्त्र की कल्पना करना ही नासमझी है। वहाँ तो ‘एकानुवर्तित नेतृत्व’ की अवधारणा ही एकमात्र घोषित आधार है। ऐसे में मोदी का, अपने सांसदों को चुप रहने की सलाह देना ही चकित करता है। याने, लोग बोलने लगे थे! यह तो संघ की रीत नहीं! वहाँ तो असहमति विचार ही अकल्पनीय है। भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में अग्रणी और भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक को आज कितने लोग जानते, याद करते हैं? वे मरे तो, दलगत आधार पर दस लोग भी नहीं पहुँचे। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने की सजा भुगतते आडवाणीजी को सबने देखा। कीर्ति आजाद, शत्रुघ्न सिन्हा की दशा सामने है। 

सवाल न करना, चुप रहना जीवन की निशानी नहीं। वह तो निर्जीव होने की घोषणा है। केवल ‘क्रीत दास’ (खरीदा हुआ गुलाम) ही सवाल नहीं करता। हमारी तो पहचान ही यह बोलना है - ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे। बोल! जुबाँ अब भी है तेरी।’ 

केवल सन्तुष्ट गुलाम ही सवाल नहीं करता। और सारी दुनिया जानती है कि आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन सन्तुष्ट गुलाम ही होता है।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) में दिनांक 20 अप्रेल 2017 को प्रकाशित जिसमें मैंने गलती से देवकान्त बरुआ की जगह हेमकान्त बरुआ लिख दिया।

चार्वाक : अमरीकियों के आदर्श?


यहाँ चिपकाया गया समाचार पढ़कर मुझे अनायास ही महर्षि चार्वाक याद आ गए। अपनी विख्यात उक्ति ‘ऋणं कृत्वा, घृतं पीवेत्’ लिखते समय उनके मानस में अमेरीका था या अमरीका ने चार्वाक की उक्ति को अपनी आर्थिक नीतियों का आधार बना लिया?

सुनता हूँ कि दुनिया का सबसे कर्जदार देश अमरीका ही है। यह भी सुनता हूँ कि अमरीका अपने नागरिकों को बेरोजगारी भत्ता देता है। शायद इसी कारण समूचे अमरीकी समाज ने उपभोक्तावाद को अपना रखा है। इसीलिए वे आज को, ‘खाओ-पीयो-मौज करो’, को जीते हैं। ‘कल के लिए’ बचाने में विश्वास नहीं करते। उन्हें इसकी आवश्यकता अनुभव ही नहीं हुई होगी। हो भी क्यों? सरकार जो है! बचत क्यों की जाए? किसके लिए की जाए? बेरोजगारी के आलम में भी भूखों मरने की नौबत तो आने से रही! याने, जीवन-यापन के लिए किसी अमरीकी को न तो बचत करनी जरूरी और न ही कर्ज लेना। इसीके चलते यह मजेदार (और विचारणीय) स्थिति है कि एक भी अमरीकी कर्जदार नहीं है लेकिन उनका देश दुनिया का सर्वाधिक कर्जदार देश!

हम अलग हैं। सारी दुनिया से। अपने कल की बेहतरी सुनिश्चित करने के लिए अपना आज बिगाड़ देते हैं। हम आज भूखे रह लेते हैं ताकि कल हमारे बच्चे भूखे न रहें। हम ‘उड़ाने’ में नहीं, ‘बचाने’ में विश्वास करते हैं। ‘खाओ-पीयो-जीयो’ के स्थान पर ‘रूखी-सूखी खाय के ठण्डा पानी पीव’ पर अमल करते हैं। हम सरकार के भरोसे नहीं रहते। रह ही नहीं सकते। ‘भार वहन’ के मामले में सरकार हमारे लिए शायद ही हो किन्तु सरकारों का भार वहन करने के लिए तो हम ही हैं। हम व्यक्तिगत रूप से भी कर्जदार हैं और सरकार के स्तर पर भी। भारतीय भी कर्जदार और भारत भी! कोई साढ़े तीन-चार साल पहले आए वैश्विक मन्दी के दौर में भी हमारे पाँव टिक रहे तो इसका श्रेय हमारी सरकार और उसकी नीतियों को कम और ‘बचत’ करने की हमारी ‘मध्यमवर्गीय मानसिकता’ को ज्यादा है।

अमरीकी अपने लिए कुछ नहीं बचाते। कमाते हैं और खर्च कर देते हैं। लेकिन सुनता हूँ कि इस खर्च में सरकार को चुकाए गए कर भी शामिल होते हैं। कहीं पढ़ा था कि सुबह घर से निकला अमरीकी शाम को घर लौटता है तो कम से कम 53 टैक्स चुका कर आता है। हम ऐसा नहीं करते। हम अपनी सरकार को ‘चोट्टी सरकार’ मानते/कहते हैं (ऐसा मानने/कहने के लिए हमारे नेताओं ने हमे विवश जो कर दिया है!) इसलिए भला चोरों को, अपनी कड़ी मेहनत की कमाई कैसे दे दें? इसीलिए हम, कर देने में कम और देने से बचने में (यहाँ ‘बचने’ के स्थान पर मैं ‘चुराने’ प्रयुक्त करना चाह रहा हूँ किन्तु ‘लोक पिटाई’ के भय से ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ) अधिक विश्वास करते हैं और तदनुसार ही अमल भी करते हैं।

हमारी सरकार सारी दुनिया से खुद भी कर्ज लेती है, हमसे भी लेती है फिर भी हमारी देखभाल नहीं करती। उधर अमरीकी सरकार है जो खुद कर्ज लेकर अपने नागरिकों को कर्ज-मुक्त रखती है।

कहीं इसीलिए तो अमीरीकियों ने अनजाने में ही चार्वाक को आत्मसात नहीं कर रखा है?

कुन्दन बनें गडकरी


ऐसा बहुत कम होता है जैसा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किया है। राष्ट्रकुल खेलों में हुए आर्थिक घपलों और भ्रष्टाचार को लेकर जितने सुस्पष्ट और सुनिश्चित आरोप गडकरी ने लगाए हैं, भारतीय राजनीति में वह शायद पहली ही बार है।

गडकरी ने प्रधान मन्त्री और प्रधान मन्त्री कार्यालय का सुस्पष्ट नामोल्लेख करते हुए इन पर न केवल भ्रष्टाचार के सुस्पष्ट आरोप लगाए अपितु साफ-साफ कहा कि भाजपा के पास भ्रष्टाचार के प्रमाण भी हैं। गडकरी ने यह भी साफ-साफ कहा कि इन खेलों में हुए भ्रष्टाचार का पैसा मारीशस-मार्ग से देश के बाहर भेजा गया है।

मेरी अल्प जानकारी में ऐसी सुनिश्चितता और सुस्पष्टता तथा प्रमाण होने की बात, इतने आत्म विश्वास और इतनी जिम्मेदारी से इससे पहले किसी ने नहीं की है। कुछ ही दिनों पहले, लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने, भोपाल गैस काण्ड में किसी बिचौलिये के होने की बात कही थी। यह उल्लेख उन्होंने किसी पुस्तक के हवाले से किया था। जब उनसे बिचौलिये का नाम पूछा गया था तो उन्होंने जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए, घुटे हुए राजनेताओं का पारम्परिक जवाब दिया था - आप किताब पढ लीजिए।

मुझे यह जवाब बिलकुल भी नहीं रुचा था। जिम्मेदारी से बच कर स्वराज ने अपने आरोप की गम्भीरता और गहनता ही नष्ट कर दी थी। बिचौलिये का उल्लेख उन्होंने अपने सूत्रों के हवाले से नहीं, किताब के हवाले से किया था। यदि वे नाम बता देतीं तो उन पर किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं आती। वे पहले ही किताब का हवाला दे चुकी थी। ऐसे में, बिचौलिए का नाम न बता कर उन्होंने उन तमाम लोंगों को जानकारी से (जानबूझकर) वंचित कर दिया जिन तक किताब नहीं पहुँची या नहीं पहुँच सकेगी। संक्षेप में, उन्होंने देश के करोड़ों नागरिकों को बिचौलिये का नाम जानने से वंचित कर दिया।

किन्तु गडकरी ने वैसा कुछ भी नहीं किया है। किन्तु उन्होंने घपले की रकम, व्यक्तियों के नाम तथा प्रकरणों की संख्या आदि का भी कोई उल्लेख नहीं किया। प्रथमदृष्टया यह सम्भव भी नहीं लगता। किन्तु गडकरी ने बात को यदि यहीं समाप्त कर दिया तो उनकी और भाजपा की विश्वसनीयता और सार्वजनिक प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाएगी।

ऐसे में गडकरी से मुझ जैसे सड़कछाप लोगों की सहज अपेक्षा (और आग्रह, अनुरोध भी) है कि वे शुंगलु कमेटी के समक्ष अपने सारे प्रमाण, विस्तार से तथा असंदिग्ध स्पष्टता से प्रस्तुत कर दें। जैसा कि होता है, इसके बाद भी यह सन्देह बना ही रहेगा कि शुंगलु कमेटी इन प्रमाणों की अनदेखी या उपेक्षा कर दे और दोषियों को साफ बचा ले जाए जिसकी कि आशंका पूरे देश को है।

इसलिए, गडकरी को सावधानी बरतते हुए, शुंगलु कमेटी के समक्ष प्रस्तुत किए जानेवाले सारे प्रमाण, सीलबन्द लिफाफों में, फौरन ही अपनी मनपसन्द समाचार चैनलों और अखबारों को भी सौंप देना चाहिए ताकि यदि शुंगलु कमेटी, गडकरी के प्रमाणों को हजम कर जाए तो वे समाचार चैनल और अखबार उन्हें सार्वजनिक कर सकें।

केवल आरोप लगाने भर से बात पूरी नहीं हो जाती। बात को मुकाम तक पहुँचाया जाना चाहिए। यदि गडकरी ऐसा नहीं करते हैं तो लोग, कांगे्रस प्रवक्ता मनीष तिवारी की उस बात पर सहजता से विश्वास कर लेंगे कि अपने समर्थक व्यापारी मित्तल पर पड़े छापों से ध्यान हटाने के लिए ही गडकरी ने ये आरोप लगाए हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि गडकरी ने जो साहसभरी पहल की है, उसे बीच में ही नहीं छोड़ा जाएगा। 70 हजार करोड़ के इस घपले की कीमत देश के आम आदमी ने चुकाई और पैसेवालों ने मलाई खाई है।

गडकरी ने शानदार शिकंजा कसा है। सारे देश की निगाहें और आशाएँ अब गडकरी पर टिकी हैं। यह गडकरी की अग्नि परीक्षा है। उम्मीद करें कि वे कुन्दन बन कर सामने आएँगे।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

देश? क्या होता है देश?


दन्तेवाड़ा में हुए नक्सली हमले के बाद एक बार फिर राष्ट्र भक्ति का ज्वार आ गया है। हर कोई सरकार को कोस रहा है, सरकार की असफलताएँ उजागर कर रहा है। शहीदों के परिजनों को आर्थिक सहायता दिए जाने का मखौल उड़ाते हुए कोई कह रहा है कि प्रधानमन्त्री और गृह मन्त्री ऐसे हमलों में मरकर दिखाएँ तो वह इतने-इतने करोड़, इन दोनों के परिजनों को दे देगा। हर कोई अपने आप को सबसे बड़ा देश प्रेमी और सबसे बड़ा देश भक्त साबित करने के लिए छटपटा रहा है।


ढोंग है यह सब। कोई सचाई नहीं है इन सारी बातों में और ऐसी सारी बातों में। बात कड़वी लगेगी किन्तु सच यह है कि हमारे खून में देश कहीं नहीं रह गया है। देश हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नहीं है। देश तो हमारे लिए ऐसा झुनझुना बन कर रह गया है जिसे हम अपनी सुविधानुसार बजा-बजा कर अपने देशप्रेमी होने का प्रमाण पत्र खुद के लिए ही जारी करते रहते हैं। हममें से हर कोई उपदेशक बना हुआ है। चाह रहा है कि बाकी लोग देश के लिए कुछ करें या फिर पूछ रहा है कि बाकी लोग देश के लिए क्या कर रहे हैं?


बात कुछ इस तरह पेश की जा रही है मानो देश के लिए मरना ही देश प्रेम या देश भक्ति का एक मात्र पैमाना बन कर रह गया है। क्या वाकई में ऐसा ही है? जी नहीं। ऐसा बिलकुल ही नहीं है। देश तो हमारे आचरण में झलकना चाहिए। इस बात पर हँसा जा सकता है किन्तु एक बार फिर कड़वी किन्तु सच बात यह है कि देश सदैव बलिदान नहीं माँगता वह तो छोटी-छोटी बातें ही हमसे माँगता है।


क्या है ये छोटी-छोटी बातें? कुछ नमूने पेश हैं - हम यातायात के नियमों का पालन करें, अपना वाहन व्यवस्थित रूप से पार्क करें, विचित्र ध्वनियोंवाले हार्न अपने वाहन में न लगाएँ, अपने अवयस्क बच्चों को वाहन न सौंपें, वयस्क बच्चों को बिना लायसेन्स वाहन न चलाने दें, अपने देय कर समय पर जमा कराएँ, सरकारी या नगर पालिका/निगम की जमीन पर अतिक्रमण न करें, जो उपदेश दूसरों को दें उस पर खुद पहले अमल करें आदि आदि।


हम लोकतन्त्र-रक्षा के भी उपदेशक बने हुए हैं। लोकतन्त्र के क्षय और हनन के प्रत्येक क्षण पर स्यापा करने में सबसे आगे रहने के लिए मरे जाते हैं। चाहते हैं कि सबसे पहला रुदन हमारा ही हो और वही सबसे पहले सुना जाए। किन्तु लोकतन्त्र की रक्षा के लिए हम करेंगे कुछ भी नहीं। अपने लोकतन्त्र को हम केवल अपना अधिकार मानते हैं। जानबूझकर (बेशर्मी से) भूल जाना चाहते हैं कि लोकतन्त्र हमारी जिम्मेदारी, हमारा कर्तव्य भी है। हमने अपने नेताओं को उच्छृंखल छोड़ दिया है। उन्होंने लोकतन्त्र को ‘गरीब की जोरु’ बना दिया है - जब चाहते हैं, उससे अश्लील हरकतें कर लेते हैं। विधायी सदनों को व्यर्थ साबित करने की उनकी प्रत्येक कुचेष्टा हमें उत्तेजित तो करती है किन्तु हम उनमें से किसी से कुछ भी नहीं कहते। कहेंगे भी नहीं। कहना चाहते ही नहीं। क्या पता, कब, किस नेता से काम पड़ जाए? इसलिए हम तमाम नेताओं को दोषी ठहराने की समझदारी बरत कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। एक की कुचेष्टा को पूरी बिरादरी की कुचेष्टा प्रमाणित कर हम खुश होकर बैठ जाते हैं। हम वो माहिर लोग हैं जो खीर बनाने के लिए मँगवाए दूध में नींबू निचोड देते हें और फिर दूध के फट जाने की शिकायत करते हैं - इसके लिए दूसरे को जिम्‍मेदार ठहराते हुए।


हम ही सरकार बनाते हैं और अपनी ही बनाई सरकार को निकम्मी, भ्रष्ट करार देने में देर नहीं करते। जिस देश के नागरिक सचेत, सतर्क, ईमानदार नहीं होंगे उस देश की सरकार भला सक्रिय और ईमानदार कैसे हो सकती है? हम सरकार को दोषी करार देते हैं किन्तु उस सरकार को बनाने की जिम्मेदारी कभी नहीं लेते। देश (के प्रान्तों) में कहीं न कहीं लगभग प्रत्येक प्रमुख राजनीतिक दल की सरकार चल रही है। किन्तु एक और कड़वा सच यह है कि किसी भी सरकार को नागरिक योगदान नहीं मिल रहा। हम सब सरकार को ऐसा कोई तीसरा पक्ष मानकर चलते हैं जिससे हमारा कोई लेना-देना नहीं, जिसके प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।


मुझे कोई भी क्षमा न करे। मेरी धारणा है कि देश हमारे खून में कहीं नहीं है। रह ही नहीं गया है। हम तो बेशर्म, स्वार्थी समाज बन कर रह गए हैं और स्वार्थी के लिए ‘स्व-अर्थ’ ही महत्व रखता है, देश-वेश जैसी बातें तो फालतू हैं। यदि हमें मालूम हो जाए कि कल से हमारे देश पर चीन का कब्जा हो जाएगा तो कल का सूरज उगने से पहले ही हम लोग दीपक-कुंकुम सजी पूजा की थालियाँ लेकर हिमालय के पार खड़े नजर आएँगे।


देश बलिदान माँगता है, उपदेश और आशा/अपेक्षा नहीं। यह बलिदान केवल प्राणों का नहीं होता। हमारे क्षुद्र स्वार्थों का बलिदान, हमारी अनुचित हरकतों का बलिदान, उपदेशक की भूमिका में बने रहने का बलिदान, खुद की गरेबान में झाँकने की बजाय दूसरों की हरकतों की चैकीदारी करने की आदत का बलिदान।


देश बातों से नहीं, आचरण से बनता और चलता है। है हममें हिम्मत कि हम अपनी गरेबान में झाँकें और खुद को दुरुस्त करने में जुट जाएँ - यह चिन्ता किए बिना कि दूसरा क्या कर रहा है?
नहीं। हममें यह हिम्मत नहीं है। यह देश मेरा है जरूर किन्तु इसकी चिन्ता, इसकी रखवाली, इसकी देख-भाल, सब-कुछ आप करेंगे। मैं नहीं। देने के लिए मेरे पास कुछ है ही कहाँ? मैं तो दीन-हीन, बेचारा, अक्षम, असहाय, निरुपाय हूँ।


आप किस देश की बात कर रहे हैं? कौन सा देश? किसका देश? इस देश ने मुझे दिया ही क्या है? जो कुछ आज मेरे पास है, वह तो मैंने अपनी मेहनत से, अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया है। देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए मैं कहीं दोषी नहीं। वह तो आप सबने देश को इस मुकाम पर पहुँचा दिया है।
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मुख्‍यमन्‍त्री : नौकरों का नौकर

‘यह दुर्भाग्य ही है कि आप लोगों को हड़ताल करनी पड़ रही है, धरना-प्रदर्शन करना पड़ रहे हैं। आज सरकार भले ही हठधर्मी कर, आपकी बात नहीं मान रही है किन्तु मुझे साफ नजर आ रहा है कि आपको यूजीसी वेतनमान मिलेगा। शिवराज सरकार सौ जूते भी खाएगी और सौ प्याज भी।’ गत वर्ष, 15 से 20 सितम्बर के बीच वाले किसी दिन, ऐसा ही कुछ कहा था मैंने, मेरे कस्बे के महाविद्यालयीन प्राध्यापक समुदाय से। वे, शासकीय कला-विज्ञान महाविद्यालय के दरवाजे के बाहर, मंच बना कर धरने पर बैठे थे। वे विश्व विद्यालय अनुदान आयोग का वेतनमान प्राप्त करने के लिए संघर्षरत थे। उनकी माँग जायज थी किन्तु सरकार उनकी बात नहीं सुन रही थी।
यह वेतनमान प्राप्त करने के लिए मध्य प्रदेश के महाविद्यालयीन प्राध्यापकगण बार-बार सरकार का दरवाजा खटखटा रहे थे और सरकार थी कि कानों में अंगुलियाँ डाले, न सुनने का नाटक करती हुई, इंकार में मुण्डी हिला रही थी।

प्राध्यापकों ने तीन अगस्त 2009 से ही अपना आन्दोलन शुरु कर दिया था। तीन अगस्त से पचीस अगस्त तक वे पढ़ाई खत्म करने के बाद इकट्ठे होते, नारेबाजी करते, वे सब, एक के बाद एक, समूह को सम्बोधित करते और फिर बिखर जाते। किन्तु विरोध प्रदर्शन के ऐसे तरीकों पर कार्रवाई करना तो दूर, उनका तो नोटिस भी नहीं लिया जाता! ‘कक्षाएँ बराबर लग रही हों, विद्यार्थियों को कोई शिकायत नहीं हो, महाविद्यालय में कोई बखेड़ा नहीं हो तो करते रहो ऐसे विरोध प्रदर्शन जिन्दगी भर! हमारे ठेंगे से।’ कुछ ऐसा ही रवैया रहा मध्य प्रदेश सरकार का।


अपनी माँग मनवाने के लिए प्राध्यापकों ने अन्ततः स्थापित और चिरपरिचित तरीका अपनाया। कानूनों की खानापूर्ति करते हुए वे शिक्षक दिवस याने 5 सितम्बर 2009 से हड़ताल पर चले गए। पढ़ाना बन्द कर दिया। भोपाल के प्राध्यापकों ने अतिरिक्त सक्रियता बरती। आठ सितम्बर को उन्होंने सड़कों पर प्रदर्शन किया तो भारतीयता, संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देनेवालोंकी सरकार ने ‘गुरु समुदाय’ की ‘सेवा-वन्दना’ लाठियों से की। ‘नारी शक्ति’ का मन्त्रोच्चार करनेवालों की सरकार ने महिला प्राध्यापकों को भी समान निर्मम भाव से पीटा।


इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। प्राध्यापक समुदाय ने पूरे प्रदेश में जुलूस निकाले, सरकार के प्रतिनिधि कलेक्टरों को ज्ञापन दिए। कई स्थानों पर विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिरों की घण्टियाँ बजाईं, उनकी प्रतिमाओं को भी ज्ञापन अर्पित किए। प्राध्यापकों के धरने, प्रदर्शन, ज्ञापन मानो दिनचर्या बन गए। धरने पर बैठे प्राध्यापकों के प्रति समर्थन और सहानुभूति जताने के लिए समाज के तमाम वर्गों के लोगों का आना और माइक पर अपनी बात कहना प्रमुख घटना बनने लगा। मैं भी इसी क्रम में पहुँचा था और अपनी बात कही थी।


कहीं कोई असर होता नजर नहीं आ रहा था। आन्दोलन अखबारों का स्थायी स्तम्भ बन गया था। प्रदेश का कोई भी मन्त्री कहीं मिल जाता तो अखबार और मीडियावाले सवाल करते। उच्छृंखल और गैरजिम्मेदार मिजाज के मन्त्रियों ने प्राध्यापकों को ‘व्यापारियों की तरह व्यवहार न करें’ जैसे मूल्यवान परामर्श भी दिए। शिक्षा मन्त्री के वक्तव्य उन दिनों कभी चुटकुलों की तरह तो कभी झुंझलाए हुए विवश व्यक्ति के अस्त व्यस्त (मानों अखबारवालों से पीछा छुड़ाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह गया हो) जुमलों की तरह पढ़ने को मिले।


जब प्राध्यापकों का धैर्य जवाब दे गया तो अपनी ‘प्रबुद्ध छवि’ को खूँटी पर टाँग कर वे 22 सितम्बर को क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठ गए। किन्तु तीसरे ही दिन, 24 सितम्बर को उन्हें न केवल भूख हड़ताल बन्द करनी पड़ी वरन् अपना आन्दोलन फौरन बन्द कर अगले ही दिन काम पर लौटना पड़ा। प्रदेश के उच्च न्यायालय, जबलपुर में एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने प्राध्यापकों को फौरन ही काम पर लौटने का निर्देश दिया। इस जनहित याचिका पर जिस तरह से कार्रवाई हुई उससे यह भ्रम फैला मानो सरकार ने न्यायालय को ‘मेनेज’ कर लिया हो। किन्तु शुक्र है कि वास्तविकता ऐसी नहीं थी। हड़ताल टूट गई। सरकार ने प्राध्यापकों का, हड़ताल अवधि का वेतन काट लिया।


मामल कोर्ट में चला तो पेशियाँ शुरु हुईं। सरकार की पेशानी पर छलकनेवाली, पसीने की बूँदों की संख्या और उनका आयतन प्रत्येक पेशी पर बढ़ने लगा। ‘सरकार विचार कर रही है’ वाली सूचना हर पेशी पर पेश की जाने लगी। किन्तु एक तर्क से एक बार ही तो राहत मिल सकती है! सो, कानून की जितनी भी गलियों का उपयोग कर पाना सम्भव था, उन सबका उपयोग सरकार ने किया। प्राध्यापकों का कटा वेतन भी इस बीच लौटा दिया गया। किन्तु आखिरकार वह बन्द गली में घिर ही गई। न्यायालय के सामने अन्तिम जवाब देने का दिन आ ही गया। अब बचने का कोई रास्ता नहीं था। सरकार को केवल यही सूचित करना शेष रह गया था कि उसने प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान दे दिया है। सो, आखिरकार सरकार ने घुटने टेक दिए और मंगलवार, 6 अप्रेल 2010 को, प्रदेश मन्त्रि मण्डल ने महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान देने का निर्णय लेकर तदनुसार घोषणा कर दी। इतना ही नहीं, इस हड़बड़ी में सरकार ने प्राध्यापकों को वह भी दे दिया जो उन्होंने माँगा ही नहीं था। प्राध्यापकों की सेवा निवृत्ति की आयु 62 वर्ष से बढ़ाकर 65 वर्ष कर दी गई।


पूर मामले को देखें तो सरकार की हठधर्मी, मूर्खता और बेशर्मी ही सामने आती है। जब यह सब करना ही था तो पहली ही बार में क्यों नहीं कर लिया? क्यों प्राध्यापकों को हड़ताल पर जाने को विवश किया गया? क्यों उन पर लाठियाँ भाँजी गई? क्यों छात्रों की पढ़ाई का नुकसान किया गया? क्यों प्राध्‍यापकों का वेतन काटा गया? काटा गया तो लौटा क्यों दिया? यदि पहली ही बार में यह सब कर लिया होता तो न केवल सरकार अपनी भद पिटाई से बचती अपितु वह समूचे प्राध्यापक समुदाय की, उनके परिवारों की और प्राध्यापकों से सहानुभूति रखनेवाले तमाम वर्गों की सद्भावनाएँ अर्जित करती। तब, भाजपा को राजनीतिक लाभ भी होता। शिवराज सिंह चैहान की टोपी में ऐतिहासिक पंख लगता। महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को समूचे समाज में अतिरिक्त आदर से देखा जाता है, उन्हें प्रबुद्ध माना जाता है। किन्तु सरकार यह सब चूक गई। अब उसने यह सब किया भी तो उसका श्रेय उसके खाते में जमा नहीं होगा। अब प्राध्यापक कहेंगे कि अपना यह हक उन्होंने लड़कर, लाठियाँ खाकर लिया है।


यह ऐसा पहला और अनूठा प्रकरण नहीं है जिसमें किसी सरकार ने दोहरा दण्ड भुगता हो। ऐसे बीसियों उदाहरण मिल जाएँगे। सरकारें (वे किसी भी पार्टी की हों) आखिरकार ऐसी मूर्खताएँ क्यों करती हैं? मुझे लगता है, कुर्सी पर बैठने के बाद तमाम मन्त्री अपनी प्राथमिकताएँ बदल लेते हैं। विभागीय कामों को निपटाने में उनकी दिलचस्पी शायद सबसे कम रह जाती है और वे अपने विवेक से कोई निर्णय लेने के बजाय अधिकारियों का कहा, आँख मूँदकर मानने लगते हैं। यहीं हमारा लोकतन्त्र परास्त हो जाता है। मन्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह अधिकारियों को हाँकेगा, उनसे जनहित के काम कराएगा। किन्तु होता इसका ठीक उल्टा है। महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को यूजीसी वेतनमान देने का यह मामला इसका ताजा उदाहरण है। इसमें किसी भी अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ा जबकि शिवराज सरकार की अच्छी-खासी फजीहत हो गई। कल तक प्राध्यापकों को व्यापारी कहनेवाले मन्त्री अब क्या कहेंगे? इस मामले में तो सरकार ने प्राध्यापकों को वेतनमान देकर सौ जूते भी खाए और काटा हुआ वेतन लौटा कर सौ प्याज भी खाए। अपनी बात को इस तरह से सच होते देखकर भी मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।


यह डॉक्टर राममनोहर लोहिया जन्म शती वर्ष है। लोकतन्त्र के प्रति वे इतने सतर्क और चिन्तित थे कि उन्होंने अपनी ही सरकार गिरा देने से पहले पल भर भी नहीं सोचा। गैर कांग्रेसवाद उन्हीं की परिकल्पना थी। कांग्रेसी मन्त्रियों की कार्यशैली पर वे कहते थे कि हमारे मन्त्री तो नौकरों के भी नौकर हो गए हैं। आईएएस अधिकारी सरकार के नौकर के होते हैं और मन्त्री आँख मूँदकर उनकी बातें मानते हैं।


मुझे अच्छा नहीं लग रहा किन्तु मैं कर भी क्या सकता हूँ? मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री शिवराजसिंह चैहान, ऐसे ही, नौकरों के नौकर साबित हो गए हैं।
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मोदी की प्रशंसनीय पहल


अब नरेन्द्र मोदी केवल, राज्य द्वारा प्रेरित, प्रोत्साहित ओर संरक्षित सामूहिक नस्लवादी नर संहार के लिए ही नहीं, भारतीय लोकतन्त्र की श्रेष्ठ सेवा के लिए भी याद किए जाएँगे।
मैं उन लोगों में से एक हूँ जो नियमित और निरन्तर यह माँग करते रहे हैं कि मतदाताओं को, सारे उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के लिए मतपत्र/ईवीएम पर ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प उपलब्ध कराया जाना चाहिए और यह प्रावधान करने के बाद मतदान अनिवार्य किया जाना चाहिए।


मेरी सुनिश्चित धारणा रही है कि हमें ‘मताधिकार’ तो है किन्तु ‘चयनाधिकार’ नहीं है। मतदाताओं की इसी विवशता का दुरुपयोग करते हुए राजनीतिक दल, ‘प्रयाशी चयन’ में ईमानदारी, चरित्र, सादगी, शिक्षा, योग्यता, पात्रता जैसे गुणों को दरकिनार कर ‘जीतने की सम्भावनावाले’ व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाते हैं। प्रत्याशियों के चयन के इस पैमाने पर प्रायः ही धन-बली और बाहु-बली ही खरे उतरते हैं। ऐसे लोगों को अधिसंख्य मतदाता स्वीकार करने की मनःस्थिति मे नहीं होते और इसी कारण वे मतदान नहीं करते।


यह ‘दीर्घ प्रतीक्षित प्रावधान’ देश को भ्रष्टाचार सहित अनेक समस्याओं से मुक्ति दिलाएगा और विधायी सदनों में हम ऐसे लोगों को देख सकेंगे जिन्हें वहाँ होना चाहिए।


भारत सरकार को भेजी अपनी 22 सिफारिशों में, भारत निर्वाचन आयोग ने यह प्रावधान भी शामिल किया हुआ था जिसमें से भारत सरकार ने कुल 5 सिफारिशें मानी जिनमें यह प्रावधान स्वीकार करनेवाली सिफारिश शामिल नहीं है। भारत सरकार ने जो चूक की उसे नरेन्‍द्र मोदी ने अपने स्तर पर, अपने प्रदेश में दुरुस्त कर भारत सरकार को रास्ता दिखाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य प्रदेश भी इस ‘मोदी-मार्ग’ पर चलने का साहस जुटाएँगे।
चूँकि इस विधेयक के विस्तृत ब्यौर सामने नहीं आए हैं इसलिए कहना पड़ रहा है कि इस प्रावधान के तहत अस्वीकार किए गए उम्मीदवारों को पुनः उम्मीदवार बनने से रोकने का प्रावधान भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। ऐसा किए बिना मोदी की यह सामयिक, ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण पहल अप्रभावी हो जाएगी।


मुझ जैसे तमाम लोगों की ओर से नरेन्द्र मोदी को बधाइयाँ और अभिनन्दन।
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जन प्रतिनिधि: ‘तब’ के और ‘अब’ के (3)

दादा का ही एक और किस्सा इस समय याद आ रहा है।

मनासा से कंजार्ड़ा की दूरी कोई 14 मील है। वहाँ बिजली नहीं थी। 14 मील की बिजली लाइन खड़ी करना काफी खर्चीला काम था। कंजार्ड़ा के लोग भोपाल पहुँचे। दादा ने तलाश किया तो मालूम हुआ कि मुख्यमन्त्री श्यामा भैया तो दिल्ली हवाई यात्रा के लिए बंगले से निकल चुके हैं। कंजार्ड़ा से आए सब लोगों को लेकर दादा बैरागढ़ हवाई अड्डे पर पहुँचे। श्यामा भैया, ‘स्टेट प्लेन’ की सीढ़ियों तक पहुँच चुके थे। वहीं दादा ने कंजार्ड़ा के लोगों से श्यामा भैया की भेंट कराई। पूरी बात समझाई। ‘सिंचाई और ऊर्जा’ श्यामा भैया के प्रिय विषय थे। उन्होंने मनासा-कंजार्ड़ा बिजली लाइन को स्वीकृति दे दी। लेकिन मौखिक स्वीकृति से काम नहीं चलता। उन्होंने कागज माँगा। किसी के पास कागज नहीं था। दादा को अचानक ध्यान आया कि कंजार्ड़ा से आए एक सज्जन सिगरेट पीते हैं। उन्होंने उनसे सिगरेट का पेकेट माँगा। पेकेट के जिस कागज पर सिगरेटें बिछा कर रखी जाती हैं, वह कागज निकाल कर श्यामा भैया के सामने कर दिया। श्यामा भैया ने उसी पर स्वीकृति लिख कर हस्ताक्षर कर दिए। उस प्रकरण की मूल और पहली नोट शीट वही, सिगेरट का कागज बना। दादा के उसी कार्यकाल में मनासा-कंजार्ड़ा बिजली लाइन का सपना साकार भी हुआ।

सुरेश सेठ अब तक इन्दौर नगर निगम के ‘ऐतिहासिक महापौर’ बने हुए हैं। कुछ सरकारी अधिकारी और परिषद् के लोग उनकी योजानाओं में जब बार-बार बाधाएँ खड़ी करने लगे तो एक दिन वे कानून की किताब घर ले गए। उन्होंने पाया कि किताब की धारा 27/2 के माध्‍यम से वे अपनी सारी योजनाएँ क्रियान्वित कर सकते हैं। उन्होंने इस धारा का ऐसा प्रचुर उपयोग किया कि उन्हें ‘महापौर 27/2’ के नाम से पुकारा और पहचाना जाने लगा। इन्दौर के जिला न्यायालय के बाहर, महात्मा गाँधी मार्ग पर बने, वकीलों के चेम्बर, सुरेश भाई ने इसी धारा का उपयोग कर बनवाए जबकि सब लोग इस योजना का विरोध कर रहे थे। नगर निगम के लिए एक मँहगी कार भी उन्होंने इसी धारा का उपयोग कर खरीदी थी।

आज जब मैं किसी ‘निर्वाचित उत्तरदायी जनप्रतिनिधि’ को ज्ञापन हाथों में लिए देखता हूँ (वह भी किसी सरकारी अधिकारी के सामने?) तो मुझे न केवल अविश्वास होता है अपितु पहले तो लज्जा आती है और बाद में हताशा घेरने लगती है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि ‘एक व्यक्ति मात्र’ नहीं होता। वह विशाल नागर-समुदाय का प्राधिकृत प्रतिनिधि होता है जो अपने मतदाताओं की इच्छाओं को मुखरित कर उनका क्रियान्वयन कराता है। इसके लिए उसे कार, बंगले, चमचों-चम्पुओं की फौज, गिरोहबाजी की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए चाहिए नैतिक और आत्म बल, भरपूर आत्म विश्वास, अपने नागरिकों की इच्छाओं को अनुभव कर उन्हें साकार कराने की शुध्द और ईमानदार नीयत।

कोई सरकारी अधिकारी किसी भी जनप्रतिनिधि पर तब ही हावी हो पाता है जब उस जनप्रतिनिधि की नीयत में खोट हो, कुर्सी पर बने रहना और उस कुर्सी के लाभ, उस कुर्सी से उपजी सुविधाएँ उसके जीवन का लक्ष्य बन जाएँ।

लालची और भ्रष्ट जनप्रतिनिधि किसी भी तन्त्र के लिए सबसे कमजोर, सबसे आसान और सर्वाधिक सुविधाजनक मोहरा होता है। ऐसे जनप्रतिनिधि ही सरकारी अधिकारियों द्वारा उपेक्षित किए जाते हैं, हड़काए जाते हैं और इन्हीं कारणों से लोक उपहास के पात्र बनते हैं।

जो जन प्रतिनिधि पद त्याग का साहस नहीं कर पाते, वे कभी भी जन सम्मान अर्जित नहीं कर पाते.

पाता वही है जो कुछ खोने का साहस कर सके.
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जन प्रतिनिधि: ‘तब’ के और ‘अब’ के (2)

प्रकाशचन्द्रजी सेठी को मध्य प्रदेश के लोग न केवल ‘कुशल प्रशासक‘ अपितु ‘कठोर प्रशासक’ के रूप में आज भी याद करते हैं। उनके बताए किसी काम को मना करने से पहले अधिकारियों को पुनर्जन्म लेना पड़ता था। सेठीजी ने जिस काम की हाँ लोगों से कर दी, तय मान लिया जाता था कि वह काम हो गया।

‘लौह पुरुष’ पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र के मन्त्रि मण्डल में एक मन्त्री हुआ करते थे - गुलाबचन्दजी तामोट। वे मूलतः समाजवादी थे। वे मतदाताओं/नागरिकों के सार्वजनिक सम्मान की सर्वाधिक चिन्ता करते थे। लोगों की अनुचित माँग का उपहास करने का साहस कोई अधिकारी, उनके सामने तो कभी नहीं कर सका। ‘खाँटी समाजवादी शब्दावली’ में तामोटजी किसी अधिकारी को जब ‘समझाते’ तो उस अधिकारी की इच्छा होती कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। जब कोई अधिकारी कानूनों की दुहाई देता तो वे कहते -‘कानून हमने ही बनाए हैं और लोगों का काम करने के लिए बनाए हैं।’

दादा का मन्त्रित्व मैंने बहुत ही समीप से देखा है। कानूनों और प्रक्रियाओं की जानकारी उन्हें, मन्त्री बनने के बाद ही हुई थी। उन दिनों अविभाजित मन्दसौर जिले के कलेक्टर मुदालियार साहब और लो.नि.वि. के कार्यपालन यन्त्री नवलचन्दजी जैन थे। पूरे मन्दसौर जिले में एक इंच सड़क भी डामर की नहीं थी। दादा के मन्त्री बनने के बाद जब ये दोनों अधिकारी दादा से मिलने मनासा पहुँचे तो दादा ने अपनी इच्छा कुछ इस तरह जताई थी - ‘मैं अपने जिले में डामर की सड़कें देखना चाहता हूँ। इसमें कोई कानून-कायदा आड़े नहीं आना चाहिए। सरकार से कुछ करवाना हो तो बता दीजिएगा। वह सब मैं करवा दूँगा।’ और, जिन सड़कों पर धूल ही धूल उड़ती थी वे सब, दादा के कार्यकाल में ही डामर की हो गईं। कोई फाइल कहीं नहीं रुकी।

ऐसी ही दो-एक घटनाएँ और, कल।

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जन प्रतिनिधि ‘तब’ के और ‘अब’ के (1)

मैं अब तक विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि यह सब हुआ है।

कोई आठ दिन पहले हमारी महापौर, अपने समर्थक कुछ पार्षदों के साथ कलेक्टर से मिलीं। निगमायुक्त के विरुद्ध एक ज्ञापन दिया। निगमायुक्त से महापौर की पटरी नहीं बैठ रही है। इससे पहले चार निगमायुक्तों से भी उनकी पटरी नहीं बैठी थी।

ज्ञापन सम्भागायुक्त को सम्बोधित था जिसमें निगमायुक्त की शिकायत की गई थी कि वे (निगमायुक्त), जनहित से जुड़े, महापौर परिषद् के निर्णयों के क्रियान्वयन में बाधाएँ खड़ी कर रहे हैं। ज्ञापन में चेतावनी दी गई थी कि यदि तीन दिन में निगमायुक्त को ‘ठीक’ नहीं किया गया तो महापौर और महापौर परिषद् के सदस्य, ‘जन आन्दोलन’ शुरु कर देंगे। कलेक्टर के अनुरोध पर ‘तीन दिन’ को ‘पाँच दिन’ कर दिया गया। किन्तु सात दिनों के बाद भी कुछ नहीं हुआ और महापौर तथा उनके समर्थक पार्षदों ने भी कुछ नहीं किया। आठवें दिन, लोकसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार संहिता प्रभावी हो गई।

अब, हमारी महापौर और उनकी मण्डली को कम से कम, लोकसभा चुनावों के परिणामों की घोषणा हो जाने तक (अर्थात् 16 मई तक) तो निगमायुक्त को झेलना ही पड़ेगा।

महापौर और निगमायुक्त में से कौन सही है और कौन गलत, यह आकलन मेरे विचार का विषय नहीं है। मुझे तो इस स्थिति पर आश्चर्य हो रहा है कि ‘लोकतन्त्र’ कहाँ से कहाँ आ गया!

निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की विधि सम्मत, जनहितकारी इच्छाओं का क्रियान्वयन कराना जिन अधिकारियों का कानूनी उत्तरदायित्व है, उनके सामने निर्वाचित जनप्रतिनिधि इतने विवश, असहाय, बौने और दुर्बल हो गए कि उन्हें ज्ञापन देने पड़ रहे हैं? वह भी अधिकारियों को ही? वह भी तब, जबकि महापौर की पार्टी की ही सरकार प्रदेश में राज कर रही है? और इससे भी बड़ी बात यह कि इतनी गम्भीर सार्वजनिक उपेक्षा, अवमानना के बाद भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी कुर्सियों पर बने हुए हैं?

यह सब देख कर मुझे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से जुड़ी कुछ घटनाएँ अनायास ही याद हो आईं। तय कर पाना कठिन हो गया कि अतीत पर गर्व किया जाए या वर्तमान पर रोया जाए?

सबसे पहले याद आए-गो. ना. सिहं अर्थात् गोविन्द नारायण सिंह।

सम्भव है, गोविन्द नारायणसिंह का नाम आज की पीढ़ी के लिए अनजाना ही हो। वे मध्यप्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्यमन्त्री थे। यह अलग बात है कि यह करिश्मा करने के लिए उन्हें दलबदलू बनना पड़ा था। वे न केवल सफल और लोकप्रिय जननेता थे अपितु कुशल प्रशासक भी थे। उन्हें नियमों, विधिक प्रावधानों और प्रक्रियाओं की पूरी जानकारी थी। कामचोर अधिकारी उनका सामना करने से कतराते और घबराते थे। कहा जाता था कि वे जब वल्लभ भवन (मन्त्रालय) के गलियारों में चल रहे होते थे तो उनका सामना करने से बचने के लिए अधिकारी को जो दरवाजा नजर आता, उसी में घुस जाता था। फिर भले ही वह दरवाजा शौचालय का ही क्यों न हो!


अपने जन सम्पर्क भ्रमण में मिलने वाले सामूहिक आवेदनों पर वे खुल कर टिप्पणी करते थे। उनकी एक ‘नोट शीट’ मैंने देखी थी. जन सम्पर्क के दौरान एक गाँव के लोगों ने, वर्षा काल में अपने गाँव का सम्पर्क बनाए रखने के लिए नाले पर ‘रपटा’ (जिसे मालवा में ‘रपट’ कहा जाता है) बनवाने का अनुरोध किया था। विभागीय प्रक्रिया पूरी कर यह आवेदन जब मुख्यमन्त्रीजी की टेबल पर पहुँचा तो विभागीय सचिव की अन्तिम टिप्पणी में रपटा निर्माण को अव्यवहारिक घोषित करते हुए निरस्त करने की अनुशंसा की गई थी। गो. ना. सिंह ने उस टिप्पणी को सिरे ही निरस्त कर दिया और लिखा - ‘सेक्रेटरी साहब! आपकी ऐसी तैसी। रपटा तो बनेगा।’

और कहना न होगा कि रपटा बना।

ऐसी ही दो-एक घटनाएँ कल।

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