रवि भाई साहब के विचार पड़ कर एक पुरानी हिंदी फिल्म न्यू देहली टाईम्स का एक संवाद याद आता है "हम पत्रकार इस उम्मीद में छींकते है कि शायद सत्ता को जुकाम हो जाये|" रतलाम की मिर्च सरीखे नुक्ते सीधे व्यवस्था पर वार करते हैं। रवि साहब की चुटीली उक्तियाँ पड़ कर लगता है कि उत्तर भारत के किसी शहर की हवा मन को छूकर निकल गयी, वह हवा जिसमें गज़ल की खुशबू , जमीनी हकीकत, सामजिक पीड़ाओं के बीच भी हँस सकने की हिम्मत और नींद से झझकोर देने वाली अपील शामिल है। सामयिक मुद्दो के साथ गजलों का मिश्रण एक अनूठा प्रयोग है। गजल भी गंगा जमुनी भाषा में, यानि हिंदी भी और उर्दू भी,"बोले तो फुलटुस हिन्दुस्तानी"। वैसे गज़ल और शेर उर्दू के बंधक नही यह मशहूर कवियित्री माया गोविंद भी स्वीकार चुकी हैं। रवि साहब लगे रहिए कभी तो सवेरा होगा।
पद्य की हमारी सीमित जानकारी के आधार पर कहें तो रवि आशु कवि है, विषय देते ही पद्य की धारा बहने लगती है। रवि कहा जाए तो बिंदास लिखते हैं, खुद रवि मानते हैं
मेरी ग़ज़लों को लेकर पाठकों की यदा कदा प्रतिक्रियाएँ प्राप्त होती रहती हैं. जो विशुद्ध पाठक होते हैं, वे इन्हें पसंद करते हैं चूंकि ये क्लिष्ठ नहीं होतीं, किसी फ़ॉर्मूले से आबद्ध नहीं होतीं तथा किसी उस्ताद की उस्तादी की कैंची से कंटी छंटी नहीं होतीं। वे सीधी, सपाट पर कुछ हद तक तल्ख़ होती हैं।
हिन्दी चिटठा विश्व की बात करें तो रवि काफी और नियमित रूप से लिखते हैं। आजकल रवि के चिट्ठे चित्रमय होने लगे हैं, अक्सर ये अखबार की कतरनों पर त्वरित टिप्पणीयाँ होती हैं। इन टिप्पणियों के साथ की गज़लें कई बार झकझोर देती हैं, जैसे कि यहः
ये उम्र और तारे तोड़ लाने की ख्वाहिशें
व्यवस्था ऐसी और परिवर्तन की ख्वाहिशें।
आदिम सोच की जंजीरों में जकड़े लोग
और जमाने के साथ दौड़ने की ख्वाहिशें।
तंगहाल घरों के लिए कोई विचार है नहीं
कमाल की हैं स्वर्णिम संसार की ख्वाहिशें।
कठिन दौर है ये नून तेल और लकड़ी का
भूलना होगा अपनी मुहब्बतों की ख्वाहिशें।
जला देंगे तुझे भी दंगों में एक दिन रवि
फ़िर पालता क्यूँ है भाई-चारे की ख्वाहिशें।
यदाकदा रवि की लेखनी गूढ़ तकनीकी विषयों पर भी चलती है, कुछ दिनों पहले के चिटठे देखें तो लगता है कि रवि का चिटठा ब्लॉगज़ीन या चिट्ठा पत्रिका का रूप धरने वाली है। रवि की लेखनी की गंगा युँ ही झर झर बहती रहे यही हमारी दिली तमन्ना है।
[आलेखः अतुल अरोरा व देबाशीष चक्रवर्तीः १७ अक्तुबर, २००४]