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शास्त्रीजी के जीवन के प्रेरक प्रसंग
प्रयोक्ता का मूल्यांकन: / 1
बेकारअति उत्तम 
विशेष
द्वारा/by : Team Tarakash   
मंगलवार , , 02 अक्टूबर

 

 


टीम तरकश 

 

 

 

 

 

 

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जन्म जयंति विशेष

हर देश के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वो देश अपने आपको चौराहे पर खड़ा पाता है और उसे यह तय करना होता है कि वह किस रास्ते पर जाएगा. लेकिन हमारे लिए कोई दुविधा या असमंजस नही है. हमे दायें या बायें नही देखना है. हमारा रास्ता एकदम सीधा और स्पष्ट है. हमे हमारे देश मे समाजवादी लोकतंत्र बनाना है. और दुनिया में शांति औरसदभावना बनाए रखनी है.

11 जून 1964 को पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री का देश के नाम पहला संबोधन


आज, 2 अक्टूबर, को स्व. लाल बहादुर शास्त्री की 103वां जन्म जयंती है. शास्त्रीजी का जन्म उत्तर प्रदेश के रामनगर कस्बे में 2 अक्टूबर 1904 को हुआ था. शास्त्रीजी कद में जितने छोटे थे उनके विचार उतने ही बडे और मजबूत थे.

जवाहरलाल नेहरू के बाद जिन गिने चुने प्रधानमंत्रियों को याद किया जाता है, उनमें शास्त्रीजी प्रमुख हैं. वे सादा जीवन और उच्च विचार मे यकीन रखते थे. देश का दूसरा प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनकी सरलता और सहजता मे कोई कमी नही आई थी. उन्होने रेल मंत्री रहते हुए एक रेल दुर्घटना के बाद अपने पद से तुरंतइस्तीफ़ा देकर एक मिसाल कायम की थी.

आज उनके जन्म दिवस पर आइए पढते हैं उनके जीवन के कुछ प्रेरक प्रसंग.


शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बनने के बाद एक दिन अपनी पत्नी के साथ दिल्ली हाट पहुँचे. वहाँ उनकी पत्नी को एक साड़ी बहुत पसंद आई. उन्होने वह साड़ी ख़रीद ली. शास्त्रीजी ने जब दुकानदार से साड़ी की किमत पूछी तो वह दुकानदार झेंप गया. वह देश के प्रधानमंत्री से पैसे कैसे ले सकता था. उसके इनकार करने पर शास्त्रीजी ने कहा कि या तो आप इसकी मूल किमत लिजीए, अन्यथा हम भी साड़ी नही लेंगे. आखिरकार दुकान दार को साड़ी की किमत लेनी पडी.

शास्त्रीजी को मुफ्त की वस्तुओं से परहेज थी साथ ही वे किसी के साथ अन्याय भी बर्दाश्त नही करते थे. उनका स्वभाव भी अत्यंत सरल था. किसी को याद नही कि उन्होने कभी अपने नौकरों अथवा कर्मचारियों पर गुस्सा किया हो.


शास्त्रीजी के पुत्र अनिल शास्त्री ने एक सामयिक मे एक प्रसंग लिखा है.

एक बार वे अपने पिताजी के कमरे मे ही सो रहे थे. उस समय उनके अलावा उस कमरे मे केवल शास्त्रीजी ही थे. अचानक शास्त्रीजी ने उनसे कहा कि, वे उनसे खुश नही है क्योंकि वे बडो का आदर करते समय और पहली मुलाकात के समय बडे बुजुर्गों के पाँव ठीक से नही छूते हैं. इस बात पर अनिल शास्त्री ने ऐतराज जताते हुए कहा कि, ऐसी तो बात नही है. वे हमेशा ठीक से पाँव  छूते हैं. इस परशास्त्री जी अपने पलंग से उठे और अपने पुत्र के पास जाकर शांति से कहा, हो सकता है मेरे देखने में ही भूल हुई हो. परंतु मैं आज तुम्हें दिखाना चाहता हुं कि पाँव कैसे छूते हैं. इतना कहकर वे झुके और अपने पुत्र के दोनो पावों को सलीके से छूकर अपने मस्तिष्क पर लगा लिया. अनिल शास्त्री इस घटना को याद करते हुए कहते हैं कि मैं बता नही सकता उस दिन मैं कितना शर्मिंदा हुआ था. उन्होने मेरी आंखे खोल दी.

शास्त्रीजी जो बात दूसरों को करने के लिए कहते थे, पहले स्वयं उसे करते थे. वे अपने जूते भी खुद पोलिस करते थे.

सन 1965 की पाकिस्तान के साथ जंग जीतने के बाद देश में अनाज की भारी कमी के चलते उन्होने देशवासियों से आह्वान किया कि हर परिवार सप्ताह मे एक बार उपवास करे. खुद शास्त्रीजी का परिवार भी हर सोमवार को उपवास करता था.

शास्त्रीजी सही मायनों मे युग पुरूष थे. वे सादगी और सौहार्द के पर्याय थे.








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