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सृजनगाथा

 

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वागर्थ प्रतिपत्तये

वर्ष-2, अंक-18, नवंबर, 2007

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।। अपनी बात ।।

 

 

 

 

अमेरिका में सतीश गुप्ता का दीवाली मेला

 डैलास में रह रहे संस्कृतिकर्मी और हिंदी सेवी श्री आदित्य प्रकाश सिंह बता रहे थे कि वहाँ इस बार तीस हजार से अधिक प्रवासी एक साथ दीवाली मेला में एकत्रित होगें । पिछले साल बीस हजार से अधिक प्रवासी भारतीयों ने सामूहिक रूप से ज्योति पर्व से स्वंय को आलोकित किया था । सुनने में आश्चर्य लगता है और मन में प्रश्न उठता है कि आखिर भारत में ऐसा क्योंकर नहीं होता ? भारतीय समाज का समकालीन सच यही है कि अब यहाँ पर्व भी सामूहिकता खोने लगे हैं । व्यक्तिवादिता इस कदर हावी हो चुकी है कि वयम् की चिर संस्कृति छीजने लगी है  । सर्वत्र अहम का बोलबाला बढ़ता जा रहा है । जैसे वह सुरसा हो । अनुभव तो यह भी है कि लोग अपने पड़ोसियों के घर तक दीपावली की मिठाई तक पहुँचाने में अपने अहम् को छोटा होता मान लेते हैं । ज्योति पर्व के दिन भी लोग अपने समीपस्थ अंचलों के नाम रोशनी नहीं लिखना चाहते । एक देहरी में दीया टिमटिमाता रहता है और दूसरी देहरी घनघोर अँधेरे में डूबी रहती है । एक दूसरे को बधाई देने की बात तो दूर । हाँ, शहरो में अति सभ्य होने का प्रदर्शन करने वाले भले ही अपने चितपरिचितों, बॉस, मालिकों, नेताओं आदि को दीपावली कार्ड ज़रूर भेजते हैं पर वहाँ आत्मीयता कम और स्वार्थ अधिक होता है । यह अपनी संस्कृति नहीं आयातित संस्कृति का वह दिखावा है जिसे हम भारतीय लगातार अपनाते चले जा रहे हैं । गोया यही सभ्य होने की आधुनिक निशानी हो और सभ्य होने की होड़ में हमारी सोच में, चिंतन में, विचार में जो चिर सार्वजनिकता थी, अब लगातार नज़रअंदाज़ होती जा रही है । 

 

कम से कम दीपावली और होली भारतीय सामूहिक भावबोध को व्यापक बनाने के पर्व हैं । दरअसल पर्व होते ही इसलिए हैं कि मनुष्य सामाजिकता, सामूहिकता के बोध को सार्वजनिक कर सके, उन्हें निरंतरता बनाये ताकि व्यष्टि समष्टि में अपनी लय तलाश सके । दीपावली घर-द्वार ही नहीं मन के कोने कगरे तक उजियाला बगराने का पर्व है । सिमटने का नहीं बगरने का उत्सव है । बँटने का नहीं, बाँटने का पर्व है । छंटने का नहीं,  अंधकार को कलुषता छांटने का सांस्कृतिक उद्यम है । राम ने यही किया था । अपना सर्वस्व बाँटने के कारण ही वे राम हैं । वे अंधियारा छाँटने के कारण ही राम है । उन्होंने तात्कालीन समाज में व्याप्त तरह-तरह के अंधियारों को छांटा । वे ऋषि राज्य को आंतकमुक्त कर उसमें प्रकाश भरते हैं । पदच्युत सुग्रीव के जनपद में उजियारा बिखेरते हैं । शिला अहल्या के लिए प्रकाश-वलय रचते हैं । अंत्यज केंवट को भी वे तारनहार घोषित कर उसके दमित मन को उज्ज्वल करते हैं । वनवासिनी भीलनी तक पहुँचकर घास-फूस की झोपड़ी को उजिलाये के महल में तब्दील कर देते हैं । रावण की अनीति से व्याकुल विभीषण को वे जैसे आलोक का ताज ही पहना देते हैं । इस सारे प्रसंगों में एक चीज़ जो समान है, वह है - राम का अंधकारयुक्त क्षेत्रों तक स्वयं पहुँच जाना । राम राजा इसलिए नहीं है कि त्रास और विपदाओं से ग्रस्त जनता उनके पास चिचोरी करने जाती है बल्कि राम सबकी सुधि लेने स्वयं नंगे पाँव वहाँ दौड़े चले जाते हैं । हमने राम के कुछ भी नहीं सीखा । हम रामवादी होने का स्वांग भर करते हैं ।

 

यदि हम राम को दिल में बसाये हुए होते, उनकी अयोध्या वापसी की खुशी में सहस्त्राब्दियों से सच्चे मन से दीप बारते होते तो मन का अंधेरा कब का हट चुका होता । और इस तरह हर साल दिये जलाने नहीं पड़ते । परस्पर उदारता, विश्वास और सामूहिक बोध को इस तरह दीमक चट नहीं कर जाती। आज के भारत को देखें तो चारों तरफ़ असमानता, दमन, एक दूसरे को लूटने के गोरखधंधे ही ज़्यादा दिखाई देते हैं । प्रजातंत्र भी जनता के शोषण को रोकने में सक्षम नहीं हो पा रहा है । इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि तंत्र ही प्रजा के खिलाफ़ षडयंत्र रचता है । धन, बाहुबल और जुगाड़ से जीवन के बुनियादी सवाल हल हो पाते हैं । मुट्ठी भर वर्चस्ववादी लोग करोड़ों लोगों के भाग्य के साथ खिलवाड़ करते हैं । आज प्रजातंत्र के चारों स्तम्भों में वांछित नैतिकता का जिस तरह पतन हुआ है वह चिंता का विषय है । गांधी जी रामराज्य की बात कहा करते थे । यह कैसा रामराज्य दे रहे हैं हम ? इस गंदगी को दूर करने के लिए हर व्यक्ति दूसरे की ओर मुँह ताक रहा है । इसे क्या कहा जाय कि चाहता तो हर व्यक्ति है कि उसका परिवेश स्वच्छ-धवल रहे पर मेहत्तरी कोई और करे । यह भी उस व्यक्तिवादिता का परिणाम है जो हमारी ज़ड़ो को घेर चुकी है और हमारी सारी सामूहिकता को लील चुकी है । यह आज के भारत का सबसे बड़ा संकट है । इस सामूहिक बोध को लौटाये बिना भारत पुनः विश्व को रास्ता नहीं दिखा सकता । चाहे वह भौतिक मामलों में कितना भी गतिवान् नज़र क्यों न आये । उसका भीतरी आवरण तो खोखला है ।

  

बात कहाँ से चली थी और कहाँ पहुँच गई ! आदित्य जी की बातों से एक बात तो साबित है कि परदेश से देश का सही चेहरा दिखाई देता है । वहाँ देश यादों में लबालब होता है । मनुष्य के हर कर्म में वह अधिक सक्रिय हो उठता है । माटी की पुकार वहीं से अधिक कारगर सुनाई देती है । मन देशराग से लबालब होता है । जाति, कुल गोत्र, धर्म, मज़हब, आदि के दैत्य भी हुँकार नहीं भरते और वहाँ व्यक्ति में देशीयता प्रखर रूप में साँस लेती है । वहाँ वह हवा, आग, पानी, आकाश और पृथ्वी के बीच होकर भी स्वयं को अलग-थलग पाता है । वहाँ छोटा सा कष्ट या मुसीबत भी पहाड़ बनकर लहुलूहान करने लगती है । मन चकनाचूर हो उठता है । जबकि इसके ठीक विपरीत वह अपने देश, अपनी ज़मीन, घर-गाँव में उससे कहीं बड़ी विपदा को चुटकी में निपटाने का दमखम रखता है । जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो । परदेश की भीड़ में उसे वीरानगी दिखाई देती है । लोगों के हाव-भाव से परायेपन की गंध आने लगती है ।

 

तो क्या प्रवास या परदेश में निवास देश-प्रेम जगाने का सही ज़रिया हो सकता है ? दरअसल यह स्मृति का तकाज़ा है जो छूटे, बिछुड़े या विलग हुए चीजें मन को अधिक टेरती है । वे जीवन में अधिक स्थान घेरती हैं । जो भी हो, विश्व को हाँकने का दंभ भरने वाले दादा देश अमेरिका में भारतीय संस्कृति को प्रतिष्ठित करने की दिशा में ऐसे मेलों को मात्र मीट टूगेदर का ज़रिया नहीं माना जा सकता है । यह मात्र इंटरटेनमेंट का विकसित तरीका भी नहीं है । प्रतिक्रियावादी भले ही विदेशों में आयोजित ऐसे मेलों में बाज़ारवादी ताकतों के अंदरुनी खेल की संभावना भी तलाश सकते हैं पर यह सतीश गुप्ता जैसे भारतीय संस्कृति के दीवानों का एक दस्तावेज भी बनता जा रहा है जिसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की जा सकती है। कहते हैं इस सामूहिक पर्व में हर वर्ष भारत के हर प्रदेश से गये, हर जाति, धर्म, उम्र के प्रवासी भारतीय शरीक हो रहे हैं । एक सच्चा धार्मिक अनुष्ठान वही होता है जिसमें परस्पर सद्भाव, विश्वास और प्रेम का संचार हो, और अमेरिका में भारतीय प्रवासी सतीश गुप्ता का यह कार्य किसी पद्म अलंकरण से कतई कम नहीं आँका जाना चाहिए ।

 

हिंदी रस में पगा मन

डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी हिंदी के वैश्वीकरण के सच्चे हिमायती और सेनापति थे । पिछले दिनों वे चल बसे । उनकी उपस्थिति हिंदी संस्कृति के उन्नयन की दिशा में सजगता, सक्रियता और ईमानदार प्रायासों की उपस्थिति थी । भारतीय राजदूतों में ऐसे कम ही हुए हैं जिन्होंने विदेशियों की ज़मीन में भारतीयता को पुष्पित-पल्लवित करने की ताउम्र कोशिश जारी रखी हो । वे उन योग्य राजदूतों में थे जिन्होंने अपने देश की भाषा के माध्यम से न केवल प्रवासी भारतीयों को अपितु विदेशियों को भारतीयता से जोड़ने की कोशिश की । वे संस्कृतियों के मध्य सेतु की तरह अडिग और सदा सक्रिय रहे। दरअसल वे भारतीय संस्कृति का राजदूत थे । वे ब्रिटेन में हिन्दी के प्रणेता थे । उनके कार्यकाल में समूचे ब्रिटेन में हिंदी और साहित्य से जुड़ी गतिविधियों को काफी बल मिला । एक तरह से इसे ब्रिटेन में वास्तविक हिंदी का श्रीगणेश भी कह सकते हैं । हिन्दी डॉ. सिंघवी के रग-रग में थी। उनका मन हिंदी-रस में पगा मन था । भारत का उन्नत भविष्य उन्हें हिन्दी में दिखाई देता था । और यह धीरे-धीरे सच भी साबित होने लगा है । वे विदेश में बसे हिंदीभाषियों के लिए प्रेरणा से समुद्र थे, उनकी अनुपस्थिति से वह स्वर अब शांत हो गया है जो भारत से दूर विदेशों में गूंजा करता था । प्रवासी भारतीय दिवस की परिकल्पना देने वाले कोई और नहीं वे श्री सिंघवी ही थे जो लगातार सफल आकार ग्रहण करता जा रहा है । अंतरराष्ट्रीय स्तर के पदों को धारण करने के बाद भी उनकी सरलता एवं सहज व्यवहार छोटे-बड़ों सबको अपनी ओर खेंच लेती थी ।

 

पिछले दशक में जिन पत्रिकाओं ने बिना किसी शिविरबाजी के हिंदी की वास्तविक संस्कृति को प्रश्रय दिया है उनमें साहित्य अमृत को गिना जा सकता है । रूढ़ विचारबद्धता को त्यागकर साहित्य के सच्चे मापदंड़ों को नज़रअंदाज किये बिना हिंदी के जाने-माने विद्वान और साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने जिस परंपरा को साहित्य अमृत के माध्यम से विकसित की थी उसे सिंघवी जी ने भी बरकरार रखा । यह कम महत्वपूर्ण नहीं कि उन्होने भी श्री मिश्र की स्वस्थ परंपरा को खंडित नहीं होने दिया अपितु उसे गति प्रदान किया । भारतीय ज्ञानपीठ को भी उनकी सेवाएँ सदैव स्मरणीय रहेंगी।

सृजन-गाथा परिवार उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि देता है ।

 

शैल चतुर्वेदी को नमन

 शैल चतुर्वेदी कहते ही आम भारतीय और हिंदी प्रेमी के आँखों में एक ऐसी शख्सियत को भारी भरकम व्यक्तित्व दिखाई देता है जो लगातार साहित्य में हास्य और व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक विंसगतियों को उजागर करते रहे । वे आम आदमी के सहज और सरल कवि थे । दूरदर्शन के शुरुआती दिन जिन्हें याद है वे बखुबी जानते हैं कि दूरदर्शनी मंनोरंजन किसे कहा जाना चाहिए । श्री चतुर्वेदी मंचीय को कविता में हास्य की बादशाहत थी । उन्होंने फिल्मों के लिए कार्य किया । पंचायत विभाग की छोटी-सी नौकरी से जीवन शुरुआत करने तथा प्रसिद्धि की काफी ऊँचाई तक वाले कलाकार शैल चतुर्वेदी लम्बे समय तक याद किये जायेंगे । हम उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

 

जन्मसंस्कार के पहले ही इतिहास लेखन को उद्यत हमारे चिट्ठाकार

कुछ मित्रों, जिन्हें अंतरजाल पर अपने ब्लॉगरी प्रलाप के अलावा कुछ भी नहीं आता, को भी शुभकामना देते हैं और आशा रखते हैं कि वे हिंदी के भविष्य को केंद्र में रखकर ही अंतरजाल को हिंदी के वास्तविक चरित्र और उदात्त रूप से समृद्ध करेंगे । हाँ, उन हम नौसिखिये की बात नहीं कर रहे जिन्हें किसी भी दौर में उलजुलूल करने से एकबारगी से नहीं रोका जा सकता है । और अंतरजाल है ही अनुशासनहीन लोगों के लिए वायवी अड्डा । हमारी चिंता यह नहीं है कि अंतरजाल पर हिंदी का कचरा ज़्यादा फैल रहा है, क्योंकि ये स्वयं जानते हैं कि कचरा अपने आप सड़न पैदा करती है और धीरे से वह अप्रिय हो जाती है । लोग उसे साफ कर देते हैं । या फिर उसकी ओर ध्यान भी नहीं देते । वह उपेक्षित पड़ा रहता है । हमारी चिंता यही है कि क्यों न जब अंतरजाल पर हिंदी द्रुतगति से प्रतिष्ठित हो रही है की निंरतर समीक्षा की जाय और उसे उसके हाल पर न छोड़कर उसे हिंदी की संस्कृति के अनुरूप विन्यस्त किया जाय । जिन्हें ब्लॉग पर घूमने का अनुभव है वे अच्छी तरीके से जानते हैं कि कैसे हर कोई ब्लॉग का अपना इतिहास लिखने में अड़ा हुआ है, गोया ब्लॉग का इतिहास लिखे बिना वह अमर नहीं हो सकता और जैसे यह भी कि हिंदी को अंतरजाल पर ब्लॉग अमरत्व प्रदान करने का प्रौद्योगिकीय साधन है । क्या यही अँग्रेज़ी ब्लॉगों के साथ हुआ होगा ! शायद नहीं । आज शुरुआत की ज़रुरत है, इतिहास की नहीं । यह दुखद पहलू है जिसे देखो वह कुछ समानधर्मा ब्लॉगरों के साथ मिलकर हिंदी ब्लॉग का इतिहास लेखन पर आमादा है । यह हिंदी-श्रम की दिशाहीनता है । होना तो यह चाहिए कि साहित्य के नाम पर चिट्ठा लिखने वालों को साहित्य के विविध कोणों पर अपनी तटस्थ राय देनी चाहिए । अपना निजी साहित्य लिखना चाहिए । चाहे वह कविता हो या लेख या फिर समीक्षा । या वह कुछ भी जो हिंदी साहित्य में लेखन कहा जाता है । वह नहीं जिसे हिंदी साहित्य का हिस्सा नही माना जाता ।

 

हाल ही में दिल्ली और रायपुर दोनों जगहों से प्रकाशित मासिक पत्रिकाओं में पढ़ने को मिला कि अमुक-अमुक ही हिंदी के श्रेष्ठ चिट्ठाकार हैं । और एक पत्रिका की बात दोहराना चाहूँगा जिसमें लिखा था कि अंतरजाल पर श्रेष्ठ हिंदी पढ़ना हो तो अमुक-अमुक को पढ़ा जाय । सच मानिए मैंने इन चिट्ठाओं को दो-दो बार पढ़ा । ये सभी चिट्ठे किसी खास विचारधारा के झंडाबरदारों के नज़र आये और जहाँ हिंदी (साथ-ही-साथ साहित्य की भी) की परवाह कम अपने गुट के तथाकथित मठाधीशों के प्रति ज़्यादा आग्रह था । ऐसे कई पत्रिकाएँ और संपादक हैं जो ऐसे प्रायोजित लेखन को निरंतर छाप रहे हैं । छापते रहें, उन्हें यही छापना है तो आप और हम क्या उनका उखाड़ सकते हैं ? पर ऐसे लोगों की पहचान ज़रूर कर सकते हैं कि आखिर ये कौन लोग हैं ? इनका मोटिव्ह क्या है ? बड़े ही शर्म की बात है कि ये लेखक हिंदी अंतरजाल का कौन सा कल्याण करना चाह रहे हैं । क्या मुँहदेखी समीक्षा से हिंदी का भविष्य अंतरजाल पर संवर जायेगा । यही नाटक प्रिंट माध्यम से छपने वाले साहित्य को लेकर भी हुआ था और साहित्य, साहित्यकार खेमों में बँट गये थे । विश्वास है इतिहासप्रिय हमारे ब्लॉगर इन बातों से सबक लेंगे । हम इस मामले में यही कहना चाहेंगे कि स्वस्थ मन से चिट्ठा को हिंदी की श्रीवृद्धि के लिए कारगर मानने वालों को ऐसी बातों से दूर रहना होगा और ऐसे जोड़तोड़ में माहिर तथाकथित समीक्षक चिट्ठाकारों को तवज्जो भी नहीं देना होगा । सच कहें तो घास डालना छोड़ना होगा।  

 

हम अगले अंक से ऐसे चिट्ठों के बारे में हमारे पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने जा रहे हैं जो हिंदी और साहित्य को अपने अपने चिट्ठों के माध्यम से विकसित करने की संभावनाओं से पूर्ण है।

 

और अंत में- 

सृजनगाथा को हम हिंदी वालों की पत्रिका मानते हैं । केवल अपना नहीं । सो, अपने निजी विचारों को इसमें नहीं लादते । हमारे कुछ मित्रों को भ्रम है कि वे ही हिंदी के उद्धारक हैं । क्योंकि वे विचारक हैं । उनके पास विचार हैं । उनके विचारों में ही हिंदी साहित्य का भविष्य सुरक्षित है । हम यहाँ पुनः दोहराना चाहते हैं कि सृजनगाथा पूर्वनिर्धारित विचारों वाली पत्रिका नहीं है, वह विचारात्मक पत्रिका है । विचार को हम साहित्य से परे नहीं देखते पर केवल शुष्क और रूढ़ विचारों को ही हम साहित्य नहीं मानते । हमे खुशी है कि हमारे कुछ मित्र अपनी तथाकथित प्रगतिशीलता को दरकिनार कर गतिशीलता का परिचय देने लगें है । यह साहित्य के लिए एक सुखद शुरुवात है । हम इसका स्वागत करते हैं और उनका भी स्वागत करते हैं ।

 

यह बताना ज़रुरी नहीं है कि सृजनगाथा आज अंतरजाल पर संचालित वेब-पत्रिकाओं में सबसे ज्यादा सामग्री के साथ नियमित पत्रिका है और इतना ही नहीं वह हिंदी के अतीत और आगत दोनों को के मध्य संतुलन रखते हुए आगे बढ़ रही है । यदि हम हमारी सफलता है तो इसमे आप जैसे पाठकों, परामर्शदाताओं, सहयोगियों, लेखकों का सहयोग ही सबसे महत्वपूर्ण है । हम अपने पाठकों से यह आग्रह करना चाहते हैं कि सृजनगाथा हिंदी की लघुपत्रिकाओं की तरह घर-फूँक तमाशा देखने की ही कड़ी है जिसे शासकीय या अशासकीय विज्ञापनदाताओं का कोई सहारा प्राप्त नहीं है । शायद यह भी हमारी उपलब्धि हो सकती है । पर जाने कितने दिन, फिलहाल तो विश्वास है कि हम और आगे जा सकते है। हाँ, आपकी पाठकीयता का जबाब हमे मिलते रहना चाहिए, बस्स, और कुछ नहीं । चलते-चलते हम यह ज़रूर बताना चाहेंगे कि आने वाले दिनों में आपको यहाँ वीर प्रसुता राजस्थान के हिंदी साहित्य का विशेषांक भी जनवरी-फरवरी 2008 में पढ़ने को मिलेगा जिसकार्य में हमें राजस्थान के साहित्यकार डॉ.दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का खास स्नेह मिल रहा है ।

  जयप्रकाश मानस

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संपादकः जयप्रकाश मानस संपादक मंडलः डॉ.बलदेव,गिरीश पंकज, संतोष रंजन, राम पटवा, डॉ.सुधीर शर्मा, डॉ.जे.आर.सोनी, कामिनी, प्रगति

तकनीकः प्रशांत रथ

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