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विवाद के लिए लेखन

विवाद के लिए लेखन...बुरे लोग ऐसा कहते हैं
तसलीमा नसरीन से बातचीत
 

taslima nasreen

वे सलमान रश्दी की तरह नहीं हैं और न ही एलेक्जेंडर सोल्जेनित्सिन की तरह, जिन्हें निवार्सन में रहना पड़ा. बेशक कई अर्थों में तसलीमा का निर्वासन इन सबसे अलग है और बेशक उनका संघर्ष भी. 1994 में आए अपने उपन्यास लज्जा की वजह से उन्हें निर्वासित होना पड़ा लेकिन उनका लेखन लगातार जारी रहा. उनके लेखन पर साहित्यिक चर्चाओं के बजाए विवाद ज्यादा खड़े हुए हैं.
वास्तव में साहित्यिक रूप से उनके लेखन का आकलन होना बाकी है. वे ऐसे समय में लोकतंत्रवादी और आजादी की समर्थक बनकर उभरी हैं, जब सारी दुनिया आतंकवाद, कट्टरपंथ से जूझ रही है. एक लोकतंत्रवादी के रूप में देखें तो वे म्यांमार की लोकतंत्रवादी नेता आंग सान सू ची के भी करीब खड़ी नजर आती हैं. और शायद यही वजह है कि बांग्लादेश से निर्वासित होने के बावजूद आज वे एक विश्व नागरिक की तरह जीवन जी रही हैं. लेकिन फिर एक विरोधाभास यह भी है कि भारत ने उन्हें पनाह जरूर दी है लेकिन नागरिकता के लिए उनका संघर्ष खत्म नहीं हुआ है. उन पर मौत का खतरा भी मंडरा रहा है, जैसा कि हैदराबाद में उन पर हुए हमले से जाहिर है. इन्हीं सब मुद्दों पर आलोक प्रकाश पुतुल ने तसलीमा नसरीन से बात की. प्रस्तुत है उसके अंश


पहले हैदराबाद और फिर कोलकाता में जो कुछ हुआ, उसके बाद क्या आपको लगता है कि आप हिंदुस्तान में सुरक्षित हैं ?
हिंदुस्तान में मैं अपने आप को हमेशा ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हूं. हालांकि हाल की घटनाओं से मैं थोड़ी परेशान जरूर हुई हूं. पिछले 13 सालों में कई मौकों पर मुझे तरह-तरह से धमकियां मिलीं, लेकिन हैदराबाद में प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ भी मुझे देखने को मिला, उससे उबरने में मुझे वक्त लगेगा. मेरे लेखन के साथ ही मुझे अपमानित करने, मारने, धमकी देने की कोशिशें लगातार जारी हैं, लेकिन हैदराबाद में मेरे साथ जो कुछ हुआ, उसके बारे में मैंने सोचा भी नहीं था.

बांग्लादेश में जो परिस्थितियां आपके लिए थीं, वही हालात अब हिंदुस्तान में भी बनते जा रहे हैं. इन दोनों देशों में किस तरह का अंतर आप पाती हैं ?

मैं जब आजादी की बात करती हूं तो उसका मतलब केवल मेरे लिए आजादी नहीं है. मैं सबके लिए आजादी की बात करती हूं. औरतों को तो आज़ादी मिलती ही नहीं. मैं अपने जीवन में संघर्ष कर रही हूं और जीवन को आज़ादी के लिए समर्पित कर रही हूं.
हिंदुस्तान ज्यादा लोकतांत्रिक है. यहां लंबे समय से लोकतंत्र है. इसकी तुलना बांग्लादेश से नहीं की जा सकती. और जैसा कि मैंने कहा, अभी के हालात में मैं खुद को हिंदुस्तान में ज्यादा सुरक्षित पाती हूं.

क्या एक ही समय में कम्युनिस्ट और मुसलमान होना संभव है ?

taslima nasreen


धर्म.....जैसा कि मैं जानती हूं, कम्युनिस्ट धर्म पर विश्वास नहीं करते हैं. वे नास्तिक होते हैं. कोई भी जो धार्मिक होने के साथ-साथ कम्युनिस्ट भी होना चाहता है, वह यह कर सकता है.

पिछले दो सालों से भारत सरकार के समक्ष आपकी नागरिकता का मामला अटका हुआ है, क्या सोचती हैं आप ?
मैं इस बारे में कुछ नहीं सोचती. भारत सरकार जब यह निर्णय लेगी कि मुझे नागरिकता मिलनी है तो मुझे नागरिकता मिल जाएगी. हालांकि  अभी तक भारत सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया है. लेकिन मैं चीजों को सकारात्मक तरीके से देखना चाहती हूं.

आलोचकों का कहना है कि तसलीमा जानबूझकर ऐसा लिखती-बोलती हैं, जिससे विवाद पैदा हो.
बुरे लोग ऐसा कहते हैं.

आपके लेखन में कुछ भी रचनात्मक नहीं है....
मैं ऐसा नहीं समझती. वे झूठ बोलते हैं.

आपके लिए जीवन के अर्थ क्या हैं, इस तरह एक दशक से भी अधिक समय से निर्वासन...
मेरे लिए तो यह महत्वपूर्ण है क्योंकि मैं अपने लेखन के कारण निर्वासित हुई हूं. अपने विचारों के कारण मुझे अपने देश से बाहर होना पड़ा है. इसलिए मुझे अपने विचारों को व्यक्त करना है.

इसका अर्थ क्या यह निकाला जाए कि इस निर्वासन ने आपको ज्यादा रचनात्मक बनाया है ?
हां. आप ऐसा कह सकते हैं.

निर्वासन के बाद आप एक तरह से वैश्विक नागरिक हो गई हैं …
हां. अब मैं एक वैश्विक नागरिक हूं और ये मुझे अच्छा लगता है. मैं कभी छोटे....मैं सोचती हूं कि हम सभी इस विश्व के लोग हैं.

लेकिन हिंदुस्तान में तो आप एक गैर-नागरिक की हैसियत से हैं. क्या आप कभी अकेलेपन का अनुभव करती हैं ?
गैर-नागरिक ? भारत में ?

हां !
नहीं-नहीं. मैं अकेलेपन का अनुभव नहीं करती. क्योंकि मैं जानती हूं कि बड़ी संख्या में लोग मुझे प्यार करते हैं, मेरा समर्थन करते हैं.

आपकी हत्या के लिए फतवे जारी किए गए हैं. आप कहती हैं कि आपकी हत्या हो सकती है और आप 1994 से इन सब से लड़ रही हैं. इन सारी बातों को किस तरह देखती हैं आप ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में मेरा विश्वास है. लोकतंत्र में मुझे अपनी भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार है. उसी प्रकार उन्हें भी ये अधिकार प्राप्त हैं लेकिन आपको किसी के विचारों के कारण उसको जान से मारना नहीं चाहिए.

सलमान रश्दी भी इसी तरह के संकट से जुझ रहे है. क्या सोचती हैं आप ?
मेरे लेखन का एक उद्देश्य है. मैं कुछ करने की जिम्मेदारी महसूस करती हूं. मैं तो औरत के हक और आजादी के लिए लिखती हूं. आजादी के लिए मैंने अपना जीवन समर्पित किया है और सलमान रश्दी केवल लेखक भर हैं.

अपनी एक कविता में आप अपनी मां से अपनी भावनाओं और आज़ादी के बारे में बात करती दिखती हैं. आज के हालात में आप आज़ादी को किस तरह परिभाषित करेंगी ?
मैं आज भी आजादी का आनंद ले रही हूं पर कभी-कभी यह बाधित हो जाती है. मैं आजादी के लिए लड़ रही हूं. मैं जब आजादी की बात करती हूं तो उसका मतलब केवल मेरे लिए आजादी नहीं है. मैं सबके लिए आजादी की बात करती हूं. औरतों को तो आज़ादी मिलती ही नहीं. मैं अपने जीवन में संघर्ष कर रही हूं और जीवन को आज़ादी के लिए समर्पित कर रही हूं.

 

अब आगे क्या...भविष्य के लिए क्या योजनाएं हैं ?
मैं कभी भविष्य की योजनाएं नहीं बनाती. किसी काम के लिए नहीं.

 

09.09.2007, 00.05 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

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इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ

 
 

bhagirath (gyansindhu@gmail.com) Rawatbhata(Kota)Rajasthan

 
 मैं तो औरत के हक और आजादी के लिए लिखती हूं. आजादी के लिए मैंने अपना जीवन समर्पित किया है और सलमान रश्दी केवल लेखक भर हैं.साहित्यिक लेखन में कमिट्मेंट बहुत महत्व पूर्ण है वैचारिक बल हो तो अनगढ लेखन भी ध्यान खींचता है
 
   

hh    

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