कालमेघ से भागे डेंगू व चिकनगुनिया

भोपाल। एलोपैथी दवाओं से नुकसान और होम्योपैथी के धीमे असर को देखते हुए मलेरिया, टाइफाइड, चिकनगुनिया, डेंगू जैसे अनेक प्रकार के बुखार से निजात पाने के लिए यदि आयुर्वेद पर भरोसा किया जाए, तो वनों में पाई जाने वाली कालमेघ जड़ी-बूटी रामबाण का काम करती है। वनस्पति विज्ञान में इसका नाम एंड्रोग्राफिस पेनीकुलाटा है।

जानकार कहते हैं कि पंद्रह दिनों तक कालमेघ काढ़ा पीकर आप भी एक साल के लिए बुखार को बाय-बाय बोल सकते हैं। मलेरिया, टाइफाइड, चिकुनगुनिया, डेंगू और अन्य प्रकार के बुखार से पीड़ित अशिक्षित गांव वाले अक्सर ओझा अथवा झोलाछाप डाक्टरों के चंगुल में फंस जाते है, जिसका उन्हें दो-तरफा नुकसान उठाना पड़ता है। बीमारी के इलाज के लिए पैसे खर्च होने के साथ ही वे जितने अधिक दिन बिस्तर पर रहते हैं उतने दिन तक उन्हें मजदूरी का भी नुकसान होता है।

कालमेघ वनौषधि विशेषज्ञ वैद्यराज राजेंद्र परिहार का दावा है कि जहां पंद्रह दिनों तक कालमेघ का काढ़ा पीने वाला व्यक्ति एक साल तक बुखार से बच सकता है, वहीं साल भर के अंतराल पर पंद्रह से बीस दिनों के इसके सेवन से जीवन भर बुखार नहीं घेर सकता। यूं तो राजेंद्र परिहार मध्यप्रदेश के दमोह जिले के हटा में निवास करते हैं, लेकिन वह आजकल वन विभाग के वनौषधि एवं रोग परामर्श केंद्र संजीवनी में मरीजों का इलाज करने आए हुए हैं।

ठेठ ग्रामीण परिवेश में रहने के आदी राजेंद्र अपने बुजुर्गो से प्राप्त अनुभव और ज्ञान के आधार पर आयुर्वेदिक नुस्खों से मरीजों का इलाज करते हैं। उनका व्यक्तित्व भी एक आम ग्रामीण जैसा है और शहरों में रहने वाले लोग उन्हें सहसा वैद्य के रूप में स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं। उनका यह भी दावा है कि यदि सब लोग सस्ती और कारगर वनौषधि कालमेघ का काढ़ा पीने लगें, तो उन्हें खतरनाक से लेकर आम बुखार तक से हमेशा के लिए छुटकारा मिल सकता है।

कालमेघ जैसा नाम है वैसा ही इसका काम है। सभी प्रकार के बुखार के वायरस के लिए यह सचमुच काल के समान है। जंगलों में पाई जाने वाली यह औषधि गांवों के ओझा और झोलाछाप डाक्टरों का विकल्प बनने की क्षमता रखती है।

वन संरक्षक आर जी सोनी ने बताया कि बालाघाट जिले में तो वन विभाग ने कालमेघ को प्रत्येक गांव में घर-घर पहुंचाने का बीड़ा उठाया है। जिले की सभी ग्राम, वन समितियों एवं वन सुरक्षा समितियों के पास कालमेघ उपलब्ध करा दिया गया है। कालमेघ का 200 ग्राम का पैकेट मात्र 12 रुपए में खरीद कर कोई भी व्यक्ति अपने परिवार की बुखार से सुरक्षा का इंतजाम कर सकता है।

वन संरक्षक सोनी बताते हैं कि यह औषधि जंगलों में पाई जाने वाली एक जड़ी-बूटी है। आयुर्वेद में भी इसका उल्लेख किया गया है। बुखार आदि से बचने के लिए प्राचीन काल से इसका उपयोग किया जाता रहा है। यह भुई नीम के नाम से भी पहचानी जाती है।

इंडियन ड्रग इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया है कि कालमेघ में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता पाई जाती है और यह मलेरिया और अन्य प्रकार के बुखार के लिए रामबाण दवा है। इसके नियमित सेवन से रक्त शुद्ध होता है तथा पेट की बीमारियां नहीं होतीं। यह लीवर यानी यकृत के लिए एक तरह से शक्तिवर्धक का कार्य करता है। इसका सेवन करने से एसिडिटी, वात रोग और चर्मरोग नही होते।

वैद्य राजेंद्र परिहार ने बताया कि 50 ग्राम कालमेघ पंचाग को एक लीटर पानी में एक चौथाई पानी बचने तक उबालना चाहिए। इस प्रकार तैयार काढे़ का नियमित रूप से सेवन लाभप्रद है। वयस्क व्यक्ति को प्रतिदिन सुबह खाली पेट एक कप और बच्चों को एक चौथाई कप काढ़ा पीना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार के बुखार से पीड़ित हो तो दिन में दो बार काढ़ा पिलाना चाहिए। इसके सेवन का कोई दुष्प्रभाव नहीं होता।




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