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कहीं कूड़ा उठा रहा बॉक्सर, तो कहीं पतंग बनाकर मैरी कॉम बनने का ख्वाब देख रही हैं रुखसार

 
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कहीं कूड़ा उठा रहा बॉक्सर, तो कहीं पतंग बनाकर मैरी कॉम बनने का ख्वाब देख रही हैं रुखसार

पतंग बनाकर नेशनल्स की तैयारी करतीं रुखसार।

कानपुर: भारत में खेल से खिलवाड़ की कई तस्वीरें हम आपको दिखाते रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि अगली बार ऐसी कहानियां हमारे सामने ना आएं, लेकिन कानपुर में दो बॉक्सरों की हालत देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद खिलाड़ियों के लिए कोई मुकाम हासिल करना क्यों मुश्किल है।

कानपुर की रहने वाली 19 साल की रुख़सार पतंग बनाकर अपने मां-बाप की मदद कर रही हैं ताकि बॉक्सिंग रिंग में वो सपनों की उड़ान भर सकें। कानपुर में पतंग बनाकर नेशनल्स की तैयारी करतीं 19 साल की रुखसार बाने अगले महीने होनेवाले सीनियर नेशनल्स में हिस्सा लेना चाहती हैं। रुख़सार अलग-अलग स्तर पर मेडल्स जीतती रही हैं और शोहरत भी बटोरती रही हैं।

रुखसार का परिवार पतंग बनाकर दिनभर में क़रीब 80 रुपये कमा पाता है। ऐसे में मुक्केबाज़ी कर रही बेटी रुख़सार को मुक्केबाज़ी के लिए तैयार करना इनके बस में नहीं।

इन दिनों रुख़सार खुद ज़्यादा से ज़्यादा पतंग बना रही हैं ताकि अगले महीने होनेवाले नेशनल्स के लिए पैसे इकट्ठा कर सकें। रुख़सार कहती हैं कि वो पिछली दफ़ा नेशनल्स में ख़ासकर पैसे की कमी की वजह से ही हिस्सा नहीं ले पाई थीं। उनके पिता मोहम्मद अशरफ़ कहते हैं, "रुख़सार बॉक्सर हैं। उनके हिसाब का ख़ाना कहां से लाएं? इसके अलावा उनके किट और जूतों की ज़रूरत है जो काफ़ी महंगे हैं।"

उनकी मां क़मर जहां भी बेटी की ज़रूरतों को लेकर फ़िक्रमंद हैं। वो कहती हैं कि रुख़सार के लिए ग्लव्स, मोज़े और दूसरी ज़रूरत की चीज़ों को इकट्ठा करना इतने पैसे में आसान नहीं है।

बॉक्सिंग की शायद इससे भी गई-गुज़री और दिल दहला देनेवाली तस्वीर कमल कुमार की है। कमल राष्ट्रीय स्तर पर मुक्केबाज़ी कर चुके हैं लेकिन अपने लिए कोई सरकारी नौकरी नहीं ढूंढ सके। कूड़े उठाने के काम के सहारे वो अपना और परिवार का पेट पालते हैं। भारतीय मुक्केबाज़ी संघ खुद इन दिनों ढुलमुल हालत में है जिसका ख़ामियाज़ा हर स्तर के मुक्केबाज़ों को झेलना पड़ रहा है।

ओलिंपिक पदक विजेता मुक्केबाज़ कहते हैं कि भारतीय बॉक्सिंग संघ जिन हालात से गुज़र रहा है ऐसे में भारतीय मुक्केबाज़ों के लिए अगले दो-तीन साल
और मुश्किल होने वाले हैं। वो कहते हैं कि 2008 से 2010 का दौर शायद भारतीय बॉक्सिंग के लिए बेहतरीन रहा जब भारत के मुक्केबाज़ों ने ओलिंपिक्स, एशियाड और वर्ल्ड चैंपियनशिप्स जैसे बड़े टूर्नामेंट में पदक भी जीते और उनका ख़याल भी रखा गया।

वो कहते हैं कि 2-3 साल से नेशनल्स हो नहीं रहे। खिलाड़ी इन टूर्नामेंट में हिस्सा नहीं ले पा रहे तो उन्हें नौकरी नहीं मिल रही। वो पूछते हैं कि ऐसे में कौन मां-बाप अपने बच्चों को मुक्केबाज़ी के लिए रिंग में भेजना चाहेगा?

मुक्केबाज़ मैरीकॉम या विजेन्दर सिंह तो बनना चाहते हैं। लेकिन अगर हालात ठीक नहीं किए गए तो इस खेल के प्रति बेरुख़ी का बुरा असर पड़ते देर नहीं लगेगी। हैरानी इस बात पर होती है कि बॉक्सिंग की हालत तब ऐसी है जब इस खेल के ज़रिये भारत ने पिछले दो ओलिंपिक खेलों में पदक जीते है।
 

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