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साहित्य, संस्कृति व भाषा का अन्तरराष्ट्रीय मंच



लेखन के क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे आई हैं, और आ रही हैं। लिख रही हैं। कलम तोड़कर लिख रही हैं। वर्जनाएं तोड़कर लिख रही हैं। लाज आउटडेटेड शब्द हो गया है, लजा नहीं लजवा रही हैं। लिख क्या ललकार रही हैं। लहका रही हैं। धू धू कर जल रही हैं, रूढि़वादी सोच। जल रहे हैं जंगली मानसिकता वाले घास। जल रही हैं स्त्रियों को घूरने वाली गंदी आंखें। जी हां, भारतीय महिलाओं की तेज लेखनी की धार से सब्जियों की तरह कटते जा रहे हैं, तमाम पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक बंधन। स्त्री मुक्त हो गई है, दिल से, दिमाग से, और देह से भी। स्त्री मुक्ति के बोल समूचे दिग दिगंत में सुनाई पड़ रहे हैं। फिर भी हम इन आवाजों को ठीक से नहीं जानते।

 'द संडे इंडियन' ने जानने की कोशिश की है कि कौन हैं इस सदी में हिंदी विश्व की श्रेष्ठ 25 महिला रचनाकार और कौन हैं देश की 111 कलमकार महिलाएं, कौन हैं विश्व की 25 श्रेष्ठ प्रवासी महिला रचनाकार और कौन हैं राज्यों में खास पहचान रखने वाली देश की 20 अन्य श्रेष्ठ लेखिकाएं। 21वीं सदी में हिंदी विश्व की महिलाओं के मौजूदा लेखन पर 'द संडे इंडियन' की एक विशिष्ट और समग्र प्रस्तुति-

देश-विदेश में साहित्य का मजबूत स्तंभ- कृष्णा सोबती  

कृष्णा सोबती का जन्म 1925 में, गुजरात (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने संयमित अभिव्यक्ति और साफ-सुथरी रचनात्मकता के जरिए साहित्य जगत में अपने लिए खास जगह बनाई है। उनकी पहली कहानी 'लामा' 1950 में प्रकाशित हुई थी। पंजाब के ग्राम्य जीवन को केंद्र में रखकर लिखे उपन्यास 'जिंदगीनामा' ने उन्हें विशेष ख्याति दिलाई। ग्रामीण जीवन का कोई भी रंग ऐसा नहीं है, जिसे जिंदगीनामा में जगह न मिली हो। 'डार से बिछुड़ी', 'मित्रो मरजानी', 'यारों के यार तिन पहाड़', 'बादलों के घेरे', 'सूरजमुखी अंधेरे के', 'ऐ लड़की', 'दिलोदानिश', 'हम हशमत' और 'समय सरगम' उनकी अन्य रचनाएं हैं। उन्हें शलाका सम्मान, शिरोमणी पुरस्कार, हिंदी अकादमी अवार्ड, साहित्य अकादेमी अवार्ड समेत कई अन्य सम्मानों से नवाजा जा चुका है।

आलोचना की कठिन राह पर- निर्मला जैन

हिंदी आलोचना संसार में विशिष्ट स्थान रखने वाली निर्मला जैन का जन्म 1932 में हुआ था। आलोचना की डगर मुश्किल होती है और उस डगर पर अगर कोई स्त्री हो तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। इन्हीं मुश्किलों के बीच से रास्ता बनाते हुए डॉ. निर्मला जैन ने हिंदी आलोचना को मजबूती प्रदान की है। उनका काम ऐसा है कि उनके हिस्से में ज्यादातर नाराजगी ही आती है खासकर तब, जब वह किसी खेमेबाजी में भरोसा न करती हों और अपने ऊपर किसी का दबाव न आने देती हों। 'आधुनिक हिंदी काव्य में रूप विधाएं', 'रस सिद्धांत और सौंदर्यशास्त्र', 'आधुनिक साहित्य: मूल्य और मूल्यांकन', 'आधुनिक साहित्य: रूप और संरचना', 'समाजवादी साहित्य : विकास की समस्याएं' और 'पाश्चात्य साहित्य चिंतन' उनकी प्रमुख कृतियां हैं। निर्मला जी को हरजीमल डालमिया पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

जीवन की पीड़ा पर पैनी निगाह- मन्नू भंडारी

मध्य प्रदेश के भानपुरा नगर में 1931 में जन्मी मन्नू भंडारी को श्रेष्ठ लेखिका होने का गौरव हासिल है। मन्नू भंडारी ने कहानी और उपन्यास दोनों विधाओं में कलम चलाई है। राजेंद्र यादव के साथ लिखा गया उनका उपन्यास 'एक इंच मुस्कान' पढ़े-लिखे और आधुनिकता पसंद लोगों की दुखभरी प्रेमगाथा है। विवाह टूटने की त्रासदी में घुट रहे एक बच्चे को केंद्रीय विषय बनाकर लिखे गए उनके उपन्यास 'आपका बंटी' को हिंदी के सफलतम उपन्यासों की कतार में रखा जाता है। आम आदमी की पीड़ा और दर्द की गहराई को उकेरने वाले उनके उपन्यास 'महाभोज' पर आधारित नाटक खूब लोकप्रिय हुआ था। इनकी 'यही सच है' कृति पर आधारित 'रजनीगंधा फिल्म' ने बॉक्स ऑफिस पर खूब धूम मचाई थी।

सबकी प्रिय शब्दसाधक- उषा प्रियंबदा

उषा प्रियंवदा उन कथाकारों में हैं, जिनके उल्लेख के बिना हिंदी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं होता। कानपुर में जन्मी उषा जी ने उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हासिल की। अंग्रेजी की अध्येता रहीं उषा जी की लेखनी से हिंदी साहित्य कोश हमेशा समृद्ध होता रहा। 'जिंदगी और गुलाब के फूल', 'एक कोई दूसरा', 'मेरी प्रिय कहानियां' (कहानी संग्रह) और 'पचपन खंभे, लाल दीवारें', 'रुकोगी नहीं राधिका', 'शेष यात्रा' और 'अंतर्वंशी' उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उषा जी की गणना उन कथाकारों में होती है, जिन्होंने आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट, संत्रास और अकेलेपन की स्थिति को पहचाना और व्यक्त किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में एक ओर आधुनिकता का प्रबल स्वर मिलता है तो दूसरी ओर उसमें विचित्र प्रसंगों तथा संवेदनाओं के साथ हर वर्ग का पाठक तादात्म्य का अनुभव करता है।

 

संवेदना का शब्दचित्र- मृणाल पाण्डे 

टीकमगढ़, मध्य प्रदेश में 1946 में जन्मी मृणाल पाण्डे किसी परिचय की मोहताजा नहीं हैं। लेखक, पत्रकार एवं भारतीय टेलीविजन की जानी-मानी हस्ती मृणाल को साहित्यानुराग विरासत में मिला। मां शिवानी जानी-मानी उपन्यासकार एवं लेखिका थीं। पहली कहानी प्रतिष्ठित हिंदी साप्ताहिक 'धर्मयुग' में उस समय छपी, जब वह युवावस्था की दहलीज पर थीं। मृणाल ने अपनी कहानियों में शहरी जीवन और सामाजिक परिवेश में महिलाओं की स्थिति को केंद्रीय विषय बनाया है। उनकी कहानियां। तेजी से बदलता सामाजिक परिवेश, रिश्तों की उधेड़-बुन भी उनकी कहानियों मे प्रमुखता से नजर आती है। मृणाल की रचनाओं में 'अपनी गवाही', 'हमका दियो परदेस', 'रास्तों पर भटकते हुए', 'पटरंग', 'देवी' और 'ओ ओबेरी' जैसे उनके उपन्यास भी खूब चर्चित हुए। हिंदी पत्रकारिता की सशक्त स्तंभ मृणाल जी संप्रति प्रसार भारती की अध्यक्ष हैं। 

अग्रणी हस्ताक्षर- ममता कालिया

ममता कालिया का जन्म 1940 में भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा में हुआ था। अंग्रेजी साहित्य में एमए, ममता समकालीन हिंदी लेखन जगत की अग्रणी हस्ताक्षर हैं। ममता जी ने कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, कविता और पत्रकारिता यानी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी कलम का जादू बिखेरा। उन्होंने अपने लेखन में रोजमर्रा के संघर्ष में युद्धरत स्त्री का व्यक्तित्व उभारा। अपनी रचनाओं में वह न केवल महिलाओं से जुड़े सवाल उठाती हैं, बल्कि उन्होंने उनके उत्तर देने की भी कोशिश की हैं। 'उसका यौवन', 'एक अदद औरत' और 'बोलने वाली मशीन' आदि उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं। 'बेघर', 'नरक दर नरक' और 'प्रेम कहानी' आदि उनके उपन्यास हैं। उन्हें यशपाल सम्मान और अभिनव भारती सम्मान से नवाजा जा चुका है।

 कलम की जादूगर- मृदुला गर्ग

कोलकाता में 1938 में पैदा हुई मृदुला जी ने एमए तो किया था अर्थशास्त्र में, पर उनका मन रमा हिंदी साहित्य में। कथानक की विविधता और विषयों के नए पन ने उन्हें अलग पहचान दी। शायद यही वजह थी कि उनके उपन्यासों को समालोचकों की सराहना तो मिली ही, वे खूब पसंद भी किए गए। मृदुला जी ने 'उसके हिस्से की धूप', 'वंशज', 'चितकोबरा', 'अनित्या', 'मैं और मैं' और 'कठगुलाब' जैसे उपन्यास लिखे तो 'कितनी कैदें', 'टुकड़ा टुकड़ा आदमी', 'डैफोडिल जल रहे हैं', 'ग्लेशियर से', 'शहर के नाम' जैसे कविता संग्रह भी। 'समागम', 'मेरे देश की मिट्टी अहा', 'संगति विसंगति' और 'जूते का जोड़ गोभी का तोड़' उनकी चर्चित कहानियां हैं। 'एक और अजनबी', 'जादू का कालीन', 'तीन कैदें' और 'साम दाम दंड भेद', उनके चार नाटक तो 'रंग ढंग' तथा 'चुकते नहीं सवाल' उनके दो निबंध संग्रह हैं। 'कुछ अटके कुछ भटके' यात्रा संस्मरण है, जबकि 'कर लेंगे सब हजम' उनके व्यंग्य संग्रह। 'कठगुलाब' के लिए उन्हें व्यास सम्मान तथा ज्ञानपीठ के वाग्देवी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। 'उसके हिस्से की धूप' और 'जादू का कालीन' को मध्य प्रदेश सरकार पुरस्कृत कर चुकी है।

 हिंदी साहित्य की सेठ -राजी सेठ


मानव मन की कुशल चितेरी राजी सेठ का जन्म, 1935 में छावनी नौशेरा (पाकिस्तान) में हुआ था। राजी विद्यार्थी तो रहीं अंगे्रजी साहित्य की, लेकिन साहित्य साधना के लिए उन्होंने चुना हिंदी को। लेखन भले ही उन्होंने देर से शुरू किया, पर कब वह हिंदी की माथे की बिंदी बन गईं, उन्हें खुद भी नहीं पता लगा। 'निष्कवच' और 'तत्सम' (उपन्यास), और 'अंधे मोड़ से आगे', 'तीसरी हथेली', 'दूसरे देशकाल में', 'यात्रा मुक्त', 'यह कहानी नहीं', और 'खाली लिफाफा' जैसे कहानी संग्रहों ने उन्हें हिंदी साहित्य में एक नया मुकाम दिया। साहित्य साधाना के लिए राजी को अनंत गोपाल शेवड़े पुरस्कार, हिंदी अकादमी सम्मान, वाग्मणि सम्मान और रचना सम्मान से नवाजा जा चुका है।

प्रेम गाथा की प्रणेता- पुष्पा भारती

हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पुष्पा भारती का जन्म 1935 में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए पुष्पा जी ने कुछ समय तक कोलकाता में अध्यापन भी किया। धर्मवीर भारती से विवाह के बाद मुंबई आईं और मुक्ताराजे के छद्म नाम से लेखन की शुरुआत की। पुष्पा जी ने विश्व प्रसिद्ध लेखकों और कलाकारों के निजी प्रेम प्रसंगों पर आधारित उनकी निजी प्रेम गाथाएं लिखीं। वेंकटरामन, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर समेत तमाम विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार लिए। राजस्थान शिक्षा विभाग के आग्रह पर 'एक दुनिया बच्चों की' का संपादन किया। लंबे समय तक बाच चित्र निर्माण संस्था (सीएफएसआई) से जुड़ी रहीं।

विद्रोही तेवर ने दिखाई रचना संसार की राह- चित्रा मुद्गल

आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य की बहुचर्चित और सम्मानित लेखिका चित्रा मुद्गल का जन्म 1944 में चेन्नई (तमिलनाडु) में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा पैतृक गांव उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में स्थित निहाली खेड़ा और उच्च शिक्षा मुंबई विश्वविद्यालय में हुई। बकौल चित्रा जी, 'विद्रोह, संघर्ष और कायरता, मनुष्य को ये सभी चीजें घर से वातावरण से ही मिलती हैं। मुझे भी घर के माहौल ने विद्रोही बनाया।' संयोग देखिए कि इसी विद्रोह ने चित्रा जी को रचना संसार की राह भी दिखाई। पहली कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों पर थी जो 1955 में प्रकाशित हुई। उनके अब तक तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। बहुचर्चित उपन्यास 'आवां' के लिए उन्हें व्यास सम्मान से नवाजा जा चुका है।

सांस्कृतिक विषयों ऌपर पकड़- नासिरा शर्मा

हिंदी साहित्य में रुचि रखना वाला शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जो नासिरा शर्मा की कहानियों से परिचित न हो। 1948 में इलाहाबाद में जन्मी नासिरा शर्मा को साहित्य विरासत में मिला। नासिरा जी फारसी भाषा व साहित्य में एमए किया, उर्दू, अंग्रेजी और पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है, लेकिन उनके समृद्ध रचना संसार में दबदबा हिंदी का ही है। ईरानी समाज और राजनीति के साथ-साथ उन्हें साहित्य, कला व सांस्कृतिक विषयों का भी विशेषज्ञ माना जाता है। नासिरा जी ने 'दहलीज' और 'पत्थर गली' जैसे नाटक लिखे हैं, तो उनके 'शामी कागज', 'इब्ने मरियम', 'संगसार', 'ख़ुदा की वापसी', 'इंसानी नस्ल', 'बुतखाना', 'दूसरा ताजमहल' शीर्षक से प्रकाशित कहानी संग्रह भी खूब चर्चित हुए। 'सात नदियां एक समंदर', 'ठीकरे की मंगनी', 'जिंदा मुहावरे', 'अक्षयवट', 'कुईयांजान', 'जीरो रोड' उपन्यास हैं।  कुइयांजान के लिए उन्हें यूके कथा सम्मान से नवाजा गया।

हर चीज के प्रति मुक्त नजरिया- सूर्यबाला


समकालीन कथा साहित्य में सूर्यबाला का लेखन विशिष्टï महत्व रखता है। समाज, जीवन, परंपरा, आधुनिकता एवं उससे जुड़ी समस्याओं को सूर्यबाला एकदम खुली, मुक्त एवं नितांत निजी दृष्टिï से देखने की कोशिश करती हैं। उनमें किसी विचारधारा के प्रति न अंधश्रद्घा देखने को मिलती है, न एकांगी विद्रोह। 1943 में वाराणसी में जन्मी सूर्यबाला जी ने बीएचयू से हिंदी साहित्य में उच्च शिक्षा ली। पहली कहानी 1972 में प्रकाशित हुई, जबकि पहला उपन्यास 'मेरे संधिपत्र' 1975 में बाजार में आया। सूर्यबाला की अब तक 19 से भी ज्यादा कृतियां (पांच उपन्यास, दस कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह के अलावा डायरी व संस्मरण) प्रकाशित हो चुके हैं। 'मेरे संधि पत्र', 'सुबह के इंतजार तक', 'अग्निपंखी', 'यामिनी कथा' और 'दीक्षांत' उनकी प्रमुख कृतियां हैं। सूर्यबाला को प्रियदर्शिनी पुरस्कार, व्यंग्य श्री पुरस्कार और हरिशंकर परसाई स्मृति सम्मान से नवाजा जा चुका है। 

कृतियों में बसा है गांव- मैत्रेयी पुष्पा

मैत्रेयी पुष्पा अकेली ऐसी महिला साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी में ग्रामीण भारत को साकार किया। अलीगढ़ जिले के सिर्कुरा गांव में 1944 में पैदा हुईं मैत्रेयी जी के लेखन में ब्रज और बुंदेल दोनों संस्कृतियों की झलक दिखाई देती है। अब तक उनके नौ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। 'चाक', 'अल्मा कबूतरी', 'कस्तूरी कुंडली बसैं', 'इदन्नमम', 'स्मृति दंश', 'कहैं इशुरी फाग', 'झूला नट' और 'बेतवा बहती रही' उनकी प्रमुख औपन्यासिक कृतियां हैं। इसके अलावा उनके तीन कहानी संग्रह भी है जिनमें 'चिन्हार' और 'ललमनियां' प्रमुख है। 'लकीरें' शीर्षक से उनकी एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुकी है। मैत्रेयी जी को अब तक कई सम्मान हासिल हो चुके हैं जिनमें सुधा स्मृति सम्मान, कथा पुरस्कार, साहित्य कृति सम्मान, प्रेमचंद सम्मान, वीरसिंह जू देव पुरस्कार, कथाक्रम सम्मान, हिंदी अकादमी का साहित्य सम्मान, सरोजिनी नायडू पुरस्कार और सार्क लिटरेरी अवार्ड प्रमुख हैं। मैत्रेयी पुष्पा जी को रांगेय राघव और फणीश्वर नाथ 'रेणु' की श्रेणी की रचनाकार माना जाता है।


कश्मीर और कश्मीरियत है पहचान- चंद्रकांता

जानी मानी लेखिका चंद्रकाता का जन्म श्रीनगर में 1938 में हुआ था। कश्मीरी पंडित परिवार से ताल्लुक रखने वाली चंद्रकांता की पहली कहानी 1966 में 'खून के रेशे' शीर्षक से प्रकाशित हुई। कश्मीर की आवोहवा में पली बढ़ी चंद्रकांता जी की रचनाओं में कश्मीरियत और कश्मीरी होने के दर्द, दोनों की झलक मिलती है। अब तक उनके 13 कहानी संग्रह, पांच कथा संकलन, आठ उपन्यास, एक कविता संग्रह के अलावा दो संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। 'हाशिए की इबारतें' 'कथा सतीसर', 'पोशनूल की वापसी', 'ऐलान गली जिंदा है', 'यहां वितस्ता बहती' और 'अपने अपने कोणार्क' उनकी अन्य प्रमुख कृतियां हैं। उन्हें व्यास सम्मान सहित कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है। 

रचनाधर्मिता का बृहद संसार - सुनीता जैन


कवियत्री के तौर पर प्रसिद्घि बटोर चुकीं सुनीता जैन का जन्म 13 जुलाई, 1941 में अंबाला में हुआ था। स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क से अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का से पीएचडी की उपाधि हासिक की। सुनीता जैन हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में लेखन करती हैं। उनकी अब तक 70 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 20 कविता संग्रह के अलावा हिंदी में उनके पांच उपन्यास एवं चार कहानी संग्रह भी बाजार में आ चुके हैं जिनमें 'बोज्यू', 'सफर के साथी', 'मरणातीत', 'गूंज अनुगूंज' और 'पांचों समग्र: तितिक्षा' उनके उपन्यास और 'हम मोहरे दिन रात के', 'इतने बरसों बाद', 'पालना' और 'पांच दिन' कहानी संग्रह हैं। उन्होंने कई पुस्तकों के अनुवाद भी किए हैं, जिनमें मन्नू भंडारी का उपन्यास 'आपका बंटी' का अनुवाद शामिल है।

दलितों और वंचितों की फिक्रमंद- रमणिका गुप्ता

साहित्य, सियासत और समाज सेवा, तीनों ही क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय रमणिका गुप्ता का जन्म 1930 में सुनाम (पंजाब) में हुआ था। अलबत्ता उनका कर्मक्षेत्र बिहार और झारखंड रहा। रमणिका जी की लेखनी में आदिवासी और दलित महिलाओं बच्चों की चिंता उभर कर सामने आती है। उनके खाते में कई चर्चित पुस्तकें हैं। उनके द्वारा संपादित पुस्तक 'दलित चेतना साहित्य', 'दलित चेतना सोच' और 'दलित सपनों का भारत' में दलितों के प्रति उमका दर्द पढ़ा और महसूस किया जा सकता है। रमणिका त्रैमासिक हिंदी पत्रिका 'युद्घरत आम आदमी' की संपादक हैं। वह विधान परिषद की सदस्य रही हैं और कई गैर सरकारी एवं स्वयंसेवी संगठनों से संबद्घ हैं। जीवन के आठ दशक की सीमा रेखा लांघने के बाद भी साहित्यिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता से कई लोग प्रेरणा हासिल करते हैं।

कथा जगत की नई हलचल- अलका सरावगी

हिंदी साहित्य जगत में अलका सरावगी की एक विशिष्टï पहचान है। 1960 में कोलकाता में जन्मी अलका जी ने हिंदी साहित्य में एमए और 'रघुवीर सहाय के कृतित्व' विषय पर पीएचडी की उपाधि हासिल की। उनका पहला कहानी संग्रह 1996 में 'कहानियों की तलाश में' आया। इसके दो साल बाद उनका पहला उपन्यास 'काली कथा, वाया बायपास' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 'काली कथा, वाया बायपास' में नायक किशोर बाबू और उनके परिवार की चार पीढिय़ों की सुदूर रेगिस्तानी प्रदेश राजस्थान से पूर्वी प्रदेश बंगाल की ओर पलायन, उससे जुड़ी उम्मीद एवं पीड़ा की कहानी बयां की गई है। इस पहले उपन्यास के लिए ही उन्हें 2001 में साहित्य कला अकादेमी पुरस्कार और श्रीकांत वर्मा पुरस्कार से नवाजा गया। यही नहीं, इस उपन्यासको देश की सभी आधिकारिक भाषाओं में अनूदित करने की अनुशंसा की गई। वर्ष 2000 में उनके दूसरे कहानी संग्रह 'दूसरी कहानी' के बाद उनके कई उपन्यास प्रकाशित हुए। पहले 'शेष कादंबरी' फिर, 'कोई बात नहीं' और उसके बाद एक ब्रेक के बाद।

 

मध्यवर्ग को बनाया लेखन का विषय- मालती जोशी

मालती जोशी का जन्म 1934 में औरंगाबाद (पूर्व हैदराबाद रियासत, वर्तमान महाराष्ट्र में) में हुआ था। उनके पिता ग्वालियर स्टेट में जज थे। मालती जी की उच्च शिक्षा आगरा में हुई। बकौल मालती जी, 'पिता में सामाजिक समस्याओं एवं मुद्दों को लेकर जो विचार थे, भले ही वे कहानी एवं उपन्यास की शक्ल नहीं ले पाए, पर उसका अनुवांशिक असर मुझ पर पड़ा और मैं लेखन में आ गई।' उनकी ज्यादातर कहानियों का केंद्रीय विषय मध्यम वर्ग है। मालती जी ने अबतक 42 पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें उपन्यास, कहानी संग्रह, बालकथा संग्रह, गीत संग्रह, व्यंग्य संग्रह शामिल हैं। उनके साहित्य का अनुवाद कई भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में हो चुका है। उन्हें मध्य प्रदेश शासन का साहित्य शिखर स मान, मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य स मेलन का भवभूति अलंकरण, मध्य प्रदेश के राज्यपाल द्वारा अहिंदी भाषी हिंदी लेखिका का सम्मान मिल चुका है। 

मध्यवर्ग की विद्रूपताओं पर लेखनी- डॉ. कृष्णा अग्निहोत्री


हिंदी की शीर्ष कथाकार डॉ. कृष्णा अग्निहोत्री का जन्म 1934 में नसीराबाद (राजस्थान) में हुआ था। अंग्रेजी एवं हिंदी साहित्य में एमए एवं पीएच डी कृष्णा जी का पहला उपन्यास 'जोधा मीरा' 1978 में प्रकाशित हुआ था। 'टपरेवाले', 'नीलोफर' एवं 'बीता भर की छोकरी' उनके अन्य चर्चित उपन्यास हैं। अब तक उनके 12 से ज्यादा उपन्यास, 15 कहानी संग्रह, पांच बालकथा संग्रह, दो आत्मकथा एवं एक रिपोर्ताज प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी साहित्य रचना में स्त्री पात्र प्रमुखता से आती हैं। मध्यम वर्ग की विदू्रपताओं के साथ-साथ उनकी खुशियों को भी उन्होंने अपनी रचनाओं में जगह दी है। कृष्णा जी को रत्नभारती पुरस्कार, अक्षरा सम्मान सहित कई राष्ट्रीय एवं पंजाब, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान से राज्य स्तरीय पुरस्कार एवं सम्मान मिल चुके हैं। फिलहाल इंदौर में रहकर वह साहित्य साधना कर रही हैं।

परिस्थितियों ने बनाया रचनाकार- मेहरुन्निसा परवेज

मध्य प्रदेश के आदिवासी जिला बालाघाट में 1944 में जन्मी सुश्री मेहरुन्निसा परवेज साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ते एवं आसपास के वातावरण को देखते हुए वह साहित्यिक लेखन के बहाव में बह चली। सुश्री परवेज कहती हैं, 'घर में साहित्य का माहौल नहीं था, पर परिस्थितियां ऐसी थीं, जिन्होंने मेरे मन को साहित्य रचना की ओर प्रेरित किया।' परवेज की कहानियों में पारंपरिक घरों की बंदिशें, महिलाओं के संघर्ष, आदिवासी अंचल की समस्याएं बहुधा आती हैं। 1969 में उनका पहला उपन्यास 'आंखों की दहलीज' प्रकाशित हुआ था, पर बाद के उपन्यास 'कोरजा' और 'अकेला पलाश' ज्यादा चर्चित हुए।

परिवेश मिला तो परिपक्व हुईं- ज्योत्स्ना मिलन

ज्योत्स्ना मिलन को उनकी कृतियों के साथ-साथ, गुजराती साहित्य का हिंदी में अनुवाद करने के लिए भी जाना जाता है। 1941 में मुंबई में जन्मीं ज्योत्स्ना मिलन का पारिवारिक माहौल साहित्यिक रहा है। वह कहती हैं, 'गजानन माधव मुक्तिबोध के सहपाठी मेरे पिता कवि थे। पति रमेशचंद्र शाह देश के विख्यात हिंदी लेखक हैं। साहित्य के प्रति अनुराग बचपन से ही विकसित होता गया। 12 साल की उम्र में लिखी पहली कविता की सराहना हुई और फिर मैं लेखन में आगे बढ़ती गई।' उन्होंने लगभग सभी विधाओं में यानी कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण रचा लिखा है। गुजराती एवं अंग्रेजी साहित्य से एमए करने के बावजूद वह भोपाल में रहकर हिंदी साहित्य की सेवा कर रही हैं, उनके दो कविता संग्रह, तीन उपन्यास, पांच कहानी संग्रह एवं एक संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। 'अ अस्तु का' उनका चर्चित उपन्यास है। 

व्यंग्य विधा में अतुलनीय- डॉ. सरोजनी प्रीतम

व्‍यंग्य से हिंदी साहित्य जगत को समृद्ध करने वाली और 'हंसिकाएं' नाम की नई विधा की जन्मदात्री के  लेखन की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। प्रीतम जी को नारी वेदना की सजीव अभिव्यक्ति के लिए खास तौर पर जाना जाता है। हिंदी साहित्य की अध्येता रहीं प्रीतम जी ने पहली रचना महज 11 साल की उम्र में प्रकृति को कथ्य मानकर लिखी। उनके लेखन में गद्य एवं पद्य- दोनों में समान अधिकार से व्यंग्य एवं वेदना व्यक्त हुई है। ऌप्रीतम जी ने अपनी 'हंसिकाओं' से दुनिया भर के श्रोताओं को प्रभावित किया। उनकी हंसिकाओं का अनुवाद नेपाली, गुजराती, सिंधी और पंजाबी सहित कई भारतीय भाषाओं में हुआ है। 'आख्रिरी स्वयंवर', 'बिके हुए लोग', 'लाइन पर लाइन', 'छक्केलाल', 'डंक का डंक' और 'लेखक के सींग' उनकी प्रमुख कृतियां हैं। प्रीतम जी को वूमेन आफ द ईयर, दिनकर सम्मान, कामिल बुल्के अवार्ड, राजा राममोहन राय अवार्ड समेत कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

देश ही नहीं, विदेशों में भी पहचान- गगन गिल

बात हिंदी कविता की हो और गगन गिल का जिक्र न आए, ऐसा संभव नहीं। हिंदी कविता रचना कर्म की पहली कतार में खड़ी गगन गिल का जन्म 1959 में नई दिल्ली में हुआ था। अंग्रेजी साहित्य में एमए गगन गिल ने अगर अपनी रचनाधर्मिता से हिंदी साहित्य कोष को समृद्ध किया, तो अंग्रेजी साहित्य को भी निराश नहीं किया। 'एक दिन लौटेगी लड़की', 'अंधेरे में बुड्ढा' ,'यह आकांक्षा समय नहीं', 'थपक-थपक दिल थपक थपक' उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं। 'दिल्ली में उनींदें, 'गद्य संग्रह है और 'अवाक' उनका यात्रा वृत्तांत है। उनकी कविताएं कई अमेरिकी, ब्रिटिश एवं जर्मन विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। गगन जी ने विभिन्न भाषाओं के शीर्ष लेखकों की प्रतिनिधि रचनाओं का अनुवाद भी किया है।गगन जी को भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, संस्कृति पुरस्कार और केदार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।

गाथा प्रवासी चिडिय़ा की- सुषम बेदी

जानी मानी कथाकार/ उपन्यासकार सुषम बेदी का जन्म 1945 में फीरोजपुर (पंजाब) में हुआ था। उच्च शिक्षा दिल्ली और पंजाब में हासिल की। सुषम जी की पहली कहानी 1978 में प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'कहानी' में प्रकाशित हुई। 1984 से वह नियमित रूप से छपती रही हैं। उनकी रचनाओं में भारतीय और पश्चिमी सांस्कृति के बीच झूलते प्रवासी भारतीयों के मानसिक आंदोलन का सुंदर चित्रण होता है। रंगमंच, आकाशवाणी और दूरदर्शन की जानी पहचानी शख्सियत सुषम जी 1979 में अमेरिका चली गईं। वहीं रहकर अध्यापन कर रहीं सुषम जी अनेक रचनाओं का अंग्रेजी और उर्दू में अनुवाद भी हुआ है। उपन्यास  'हवन', 'लौटना', 'नव भूम की रसकथा', 'गाथा अमरबेल की', 'कतरा दर कतरा', 'इतर', 'मैंने नाता तोड़ा', 'मोर्चे' (उपन्यास) और 'चिडिय़ा और चील' (कहानी संग्रह) उनकी प्रमुख कृतियां हैं। सुषम जी साहित्य के क्षेत्र में तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं।

बिंबधर्मिता पर बेहतर पकड़- अनामिका

समकालीन हिंदी कविता की चंद सर्वाधिक चर्चित कवयित्रियों में शुमार अनामिका का जन्म 1961 में मुजफ्फरपुर (बिहार)में हुआ था। अंग्रेजी की प्राध्यापिका होने के बावजूद अनामिका ने हिंदी कविता कोष को समृद्ध करने में कोई कसर बाकी नहीं लगाई है। प्रख्यात आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय के मुताबिक,'भारतीय समाज एवं जनजीवन में जो घटित हो रहा है और घटित होने की प्रक्रिया में जो कुछ गुम हो रहा है, अनामिका की कविता में उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।' बकौल दिविक रमेश, 'अनामिका की बिंबधर्मिता पर पकड़ तो अच्छी है ही, दृश्य बंधों को सजीव करने की उनकी भाषा भी बेहद सशक्त है।' 'खुरदरी हथेलियां', 'गलत पते की चिट्ठी', 'दूब-धान', 'बीजाक्षर' और 'कविता में औरत' (सभी कविता संग्रह) और 'प्रतिनायक' (कहानी संग्रह) और 'दस द्वारे का पिंजरा', 'तिनका तिनके पास' और 'अवांतर कथा' (उपन्यास) उनकी प्रमुख कृतियां हैं।

  

 
         
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