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29 September 2012

वृन्द के दोहे

कुल सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥

क्यों कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत पर खोदी कुआँ, कैसे निकसे तोय॥
 तोय - पानी

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
रसरी - रस्सी, सिल - [यहाँ] कुएँ का पत्थर 

जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥

मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पण्डित होय ।
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥

बिन स्वारथ कैसें सहै, कोऊ करुवे बैन ।
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू-धैन ॥
 दुधारू-धैन - दूध देने वाली गाय 

विद्याधन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना डुलाये ना मिले ज्यों पङ्खा की पौन॥
उद्यम - प्रयत्न, कोशिश ; पौन - हवा 

फेर न ह्वै हैं कपट सों, जो कीजै व्यौपार।
जैसे हाँडी काठ की, चढ़ै न दूजी बार॥

अति परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चन्दन देति जराय॥


वृन्द