कुल
सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार
बिरवान के होत चीकने पात॥
क्यों
कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत
पर खोदी कुआँ, कैसे निकसे तोय॥
तोय - पानी
करत
करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी
आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
रसरी - रस्सी, सिल - [यहाँ] कुएँ का पत्थर
जैसो
गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये
दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥
मूढ़
तहाँ ही मानिये, जहाँ न पण्डित होय ।
दीपक
को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥
बिन
स्वारथ कैसें सहै, कोऊ करुवे बैन ।
लात
खाय पुचकारिये, होय दुधारू-धैन ॥
दुधारू-धैन - दूध देने वाली गाय
विद्याधन
उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना
डुलाये ना मिले ज्यों पङ्खा की पौन॥
उद्यम - प्रयत्न, कोशिश ; पौन - हवा
फेर न
ह्वै हैं कपट सों, जो कीजै व्यौपार।
जैसे
हाँडी काठ की, चढ़ै न दूजी बार॥
अति
परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि
की भीलनी, चन्दन देति जराय॥
वृन्द