हाल के दशकों में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच झगड़े की वजह रहा कावेरी जल विवाद, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने आदेश की पुष्टि करने के बाद, एक बार फिर से हिंसक रूप ले लिया। अदालत ने सांबा की फसलों को बचाने के लिए कर्नाटक सरकार को आगामी दिनों में तमिलनाडु को कावेरी नदी का 15,000 क्यूसेक पानी देने का आदेश दिया है।
कावेरी होराता समिति, कर्नाटक में इस मुद्दे से जुड़ा मुख्य एसोसिएशन, ने, राज्यव्यापी "बंद" किया जिसमें किसानों द्वारा विरोध प्रदर्शन किया गया। ये प्रदर्शन बेहद नींदनीय था। बंद ने मंड्या में सार्वजनिक परिवहन, कार्यालयों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों और सरकारी दफ्तरों को प्रभावित किया।
कावेरी जल विवाद ने काफी समय से स्थानीय राजनीति को भी प्रभावित किया है। विवाद में स्थानीय जनता के लिए नदी के गहरे सामजिक, आर्थिक और धार्मिक महत्व की भावना को भी शामिल कर लिया गया है। इस प्रकार यह एक ऐसी स्थिति को बयां करता है जहां आम आकलन समय के साथ अधिक सख्त होता गया और राजनीतिक दलों के लिए एक साझा फैसला करना अधिक मुश्किल भरा बना दिया।
कावेरी पर इतना गुस्सा क्यों?
कावेरी जलमार्ग दक्षिण भारत का सबसे बड़ा जलमार्ग। यह पश्चिमी घाट की तरफ समुद्र के तल से 1,341मी (4400 फिट) की ऊंचाई पर कुर्ग इलाके के मरकारा से निकलती है, और बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले पूर्व दिशा की तरफ रुख करते हुए कर्नाटक और तमिलनाडु से गुजरती है।
कावेरी का पहाड़ी के उपर का जलग्रहण क्षेत्र कर्नाटक और केरल में पड़ता है। यह जून से सितंबर तक चलने वाले दक्षिण– पश्चिम तूफान से आमतौर पर प्रभावित होता है। इसका नीचला हिस्सा तमिलनाडु के मैदानी इलाके में पड़ता है जो वास्तव में अक्टूबर से दिसंबर तक चलने वाले उत्तर– पूर्व मानसून पर निर्भर नहीं है।
विशिष्ट जल कानून भाषा में कर्नाटक उपरी तटवर्ती राज्य है जहां से जलमार्ग शुरु होता है, तमिलनाडु नीचला तटवर्ती राज्य है। पुडुचेरी इस तथ्य के आधार पर कि बंगाल की खाड़ी में कावेरी पुडुचेरी में ही मिलती है, अपना दावा पेश करता है। इसके अलावा, केरल, अपनी स्थलाकृति की वजह से इस जलमार्ग में पानी का योगदान अधिक करता है और उपयोग कम।
कावेरी पर विवाद कितना पुराना है?
यह विवाद 150 से भी अधिक वर्ष पुराना है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में, मैसूर (कर्नाटक का तत्कालीन नाम) प्रशासन अलग– अलग प्रकार की नई सिंचाई परियजनाओं को मिलाना चाहती थी। इस बात ने जल प्रणाली के लिए कावेरी पर निर्भर मद्रास को चिंता में डाल दिया।
दोनों राज्यों और भारत सरकार के बीच बातचीत के कुछ दौर के बाद 1892 में एक समझौता हुआ। इसके तहत विभिन्न अंतरराज्यीय नदियों को शामिल किया गया। एक अन्य समझौता 1924 में हुआ जिसमें खास तौर पर कावेरी के पानी के उपयोग, संवहन और नियंत्रण की पहचान की गई थी।
दोनों ही समझौतों से यही बात सामने आई कि वर्तमान जल प्रणाली पर उपर किए जाने वाले नए कार्यों की वजह से बाधा नहीं डाली जाएगी और नीचले इलाकों में होने वाली सिंचाई के लिए पानी की कटौती नहीं होगी। इसके अलावा, व्यवस्था चरण के सभी कार्यों की पुष्टि अनुप्रवाह राज्य सरकार (यानि कावेरी के मामले में तमिलनाडु) करेगी।
आखिरकार, कानून के तहत मैसूर ऐसा कुछ भी नहीं करेगा जिससे नीचे के तटवर्ती राज्य– तमिलनाडु की जल आपूर्ति कम हो।
कर्नाटक ने इन व्यवस्थाओं या समझौतों पर अमल नहीं किया। बजाए इसके, उसने केंद्र सरकार, योजना आयोग और केंद्रीय जल आयोग की अनुमति लिए बगैर कावेरी की सहायक नदियों पर बांध बनाकर चार नई परियोजनाएं शुरु कर दीं।
वर्ष 1910 में मैसूर प्रशासन ने कन्नाम्बाडी में एक जलाशय बनाने का प्रस्ताव दिया और 1892 में हुए समझौते के तहत मद्रास सरकार से सहमति की उम्मीद की। चूंकि मद्रास सरकार इस बात से सहमत नहीं थी, मामला मध्यस्थता के अधीन चला गया।
मध्यस्थता बोर्ड का अनुदान मद्रास सरकार के लिए पर्याप्त नहीं था और उन्होंने इस पर पुनर्विचार करने को कहा। जब भारत सरकार ने मध्यस्थता नहीं की तब 1924 के समझौते पर सहमति बनाने का प्रयास शुरु कर दिया गया।
विवाद का घटनाक्रम:
• 5 फरवरी 2007: 16 वर्षों के बाद, कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण ने तमिलनाडु के पानी के बंटवारे के लिए मद्रास और मैसूर सरकारों के बीच हुए 1892 और 1924 के दोनों समझौतों को वैध माना। अंतिम फैसले में एक सामान्य वर्ष में कावेरी बेसिन में उपलब्ध कुल 740 टीएमसी (TMC ) पानी में से सालाना – तमिलनाडु को 419 टीएमसीएफटी (tmcft), कर्नाटक को 270 टीएमसीएफटी (tmcft), केरल को 30 टीएमसीएफटी (tmcft), और पुडुचेरी को 7 टीएमसीएफटी (tmcft) देने का फैसला किया गया।
• 19 सितंबर 2012: सीआरए की सातवीं बैठक में, मनमोहन सिंह ने कर्नाटक को बिलिगुंडलू में तमिलनाडु के लिए कावेरी का 9,000 क्यूसेक पानी छोड़ने का निर्देश दिया था। दोनों ही मुख्यमंत्री– जयललिता और जगदिश शेट्टार– ने इसे "अस्वीकार्य" कहा। वर्ष 2004 में केंद्र में यूपीए के सत्ता में आने के बाद से सीआरए की यह पहली बैठक थी।
• 28 सितंबर 2012: प्रधानमंत्री के निर्देश का पालन नहीं करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को फटकार लगाई।
• 29 फरवरी 2013: केंद्र ने कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण (सीडब्ल्यूडीटी) को अंतिम फैसले की सूचना भेजी। इसके साथ ही 19 फरवरी को अंतिम फैसले की राजपत्र अधिसूचना के साथ केंद्र सरकार का कावेरी प्रबंधन बोर्ड (सीएमबी) का गठन करना अनिवार्य था।
• 10 मार्च 2013: तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने कहा कि अंतिम फैसले का केंद्रीय राजपत्र में अधिसूचित किए जाने के उनके प्रयासों के लिए तंजावुर में आयोजित किए जाने वाले सम्मान समारोह के दौरान वे कावेरी जल बोर्ड के गठन पर काम करेंगी।
• 19 मार्च 2013: तमिलनाडु सरकार कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन के लिए जल मंत्रालय को निर्देश देने हेतु सुप्रीम कोर्ट पहुंची।
• 28 मई 2013: तमिलनाडु सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची, कर्नाटक द्वारा कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के आदेशों का पालन नहीं करने से राज्य को हुए नुकासन की भरपाई के लिए 2,480 करोड़ रु. का मुआवजा मांगा।
• 1 जून 2013: केंद्रीय जल संसाधन सचिव ने पर्यवेक्षी समिति के साथ पहली बैठक की जिसमें तमिलनाडु ने फैसले के अनुसार जून माह के लिए पानी में अपना हिस्सा मांगा।
• 2 जून 2013: कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि तमिलनाडु जब और जितनी पानी की मांग करेगा, उतना पानी नहीं छोड़ा जाएगा।
• 6 जून 2013: कर्नाटक ने कहा कि वह जून से सितंबर के बीच तमिलनाडु को 134 टीएमसीएफटी (tmcft) पानी नहीं देगा।
• 12 जून 2013: कावेरी पर्यवेक्षी समिति ने कर्नाटक को कावेरी का पानी देने हेतु निर्देश देने संबंधी तमिलनाडु की याचिका को "अव्यवहार्य" कहा।
• 14 जून 2013: तमिलनाडु ने कावेरी पर्यवेक्षण समिति पर कर्नाटक के रवैये के खिलाफ अवमानना याचिका दायर करने का फैसला किया।
• 15 जून 2013: मुख्यमंत्री जयललिता ने कहा कि तमिलनाडु सरकार कावेरी प्रबंधन बोर्ड और कावेरी जल नियामक प्राधिकरण के गठन के लिए सुप्रीम कोर्ट जाएगी।
• 26 जून 2013: यह दलील देते हुए कि पर्यवेक्षी समिति का गठन अब निर्थक प्रयास भर रह गया है, कावेरी प्रबंधन बोर्ड के गठन के लिए तमिलनाडु सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
• 28 जून 2013: तमिलनाडु ने पर्यवेक्षी समिति के खिलाफ उपेक्षापूर्ण रवैये को लेकर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में अवमानना याचिका दायर की ।
• 15 जुलाई 2013: तमिलनाडु को मिलने वाले पानी के हिस्से पर कावेरी पर्यवेक्षी समिति की तीसरी बैठक में कर्नाटक और तमिलनाडु आपस में भिड़ गए। तमिलनाडु जहां सांबा फसल को बचाने के लिए जुलाई में 34 टीएमसीएफटी (tmcft) और अगस्त में 50 टीएमसीएफटी (tmcft) पानी की मांग कर रहा था, वहीं कर्नाटक ने कहा कि वह जून और जुलाई में 34 टीएमसीएफटी (tmcft) पानी दे चुका है।
• 13 अगस्त 2016: सिद्धरमैया द्वारा जलाशयों में पानी के न होने की बात कहने के बाद तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट से कर्नाटक से तमिलनाडु को पानी देने का निर्देश देने को कहा।
• 6 सितंबर 2016: सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को 15 सितंबर तक रोजाना 15,000 क्यूसेक पानी तमिलनाडु को देने का आदेश दिया। कर्नाटक में हिंसा भड़क उठी।
क्या नदिया उलझनों से भरी हैं?
हां, हैं। न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी। अंतरराज्यीय नदियों (जलमार्ग को कुछ राज्यों के इलाकों से होकर गुजरता है) पर कई पन्नों का अंतरारष्ट्रीय कानून है, इसमें कहा गया है कि ऐसे पानी को किसी भी एक राज्य का नहीं कहा जा सकता और कोई भी राज्य/ देश अनुप्रवाह राज्य/ देश को उनके हिस्से का पानी देने से इनकार नहीं कर सकता।
इस प्रकार, कोई भी राज्य/ देश ऐसे पानी के उपयोग पर कानून नहीं बना सकता, क्योंकि उसका प्रशासनिक दायरा उसके सीमाओं के बाहर नहीं होता।
संघीय प्रणाली में, उदाहरण के लिए, भारत, बातें कुछ ऐसी ही हैं।
तमिलनाडु की शिकायतें क्या हैं?
तमिलनाडु का कहना है कि कर्नाटक द्वारा मेत्तूर बांध के लिए दिए जाने वाले पानी की कुल मात्रा लगातार कम होती जा रही है। इसके अलावा फसल संबंधी मुद्दों खास कर तमिलनाडु के कावेरी डेल्टा के फसलों को हल करने के लिए समय पर पानी नहीं दिया जाता है।
• तमिलनाडु सालाना निर्वहन को उचित तरीके से दिए जाने की मांग करता है, जून से मई तक, साप्ताहिक ।
नया विवाद कैसे शुरु हुआ?
बहस में चार पक्ष हैं– तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और पुडुचेरी।
कर्नाटक ने कावेरी के तट पर चार परियोजनाएं बनाईं– हारांगी, काबिनी, हेमावती और सुवर्णावती। इनके लिए कर्नाटक ने तमिलनाडु सरकार से पूर्व अनुमति नहीं ली।
वर्ष 1974 से कर्नाटक ने इन चार नई आपूर्तियों में नदि का प्रवाह शुरु कर दिया। इस विवाद को हल नहीं कर पाने की हालत में केंद्र ने 1990 में कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण (सीडब्ल्यूडीटी) का गठन कर दिया।
सुप्रीमकोर्ट के आदेश ने कर्नाटकवासियों को निराश क्यों किया?
5 सितंबर को, न्यायाधीश दीपक मिस्रा और न्यायाधीश उदय उमेश ललित वाले सुप्रीमकोर्ट की खंडपीठ ने कर्नाटक सरकार को आगामी दस दिनों तक रोजाना तमिलनाडु को 15,000 क्यूसेक (प्रति सें. घन फीट) पानी देने को कहा। इसी अनुपात में तमिलनाडु को पुडुचेरी को पानी देने को कहा गया।
कर्नाटक किस बात पर सहमत था और तमिलनाडु की मांग क्या थी?
कर्नाटक कम पानी, यानी, 10,000 क्यूसेक पानी, देना चाहता था जबकि तमिलनाडु को ज्यादा की जरूरत थी। उसे 5 सितंबर से 10 दिनों के लिए शुरु होने वाली समय सीमा के लिए ज्यादा पानी यानि 20,000 क्यूसेक पानी की जरूरत थी।
सुप्रीम कोर्ट के लिए बीच का रास्ता अपनाना आसान था और इससे दोनों ही पक्ष खुश हो सकते थे?
वाकई, यही बात है जो मिस्रा–नीत सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने सोची थी, हालांकि कर्नाटक के शहर में हुई बर्बरता को ध्यान में रखते हुए अदालत के मध्यस्थता के इस तरीके से इस संकट को हल करने में मदद नहीं मिली।
12 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक से 20 सितंबर तक रोजाना 12,000 क्यूसेक पानी छोड़ने का अनुरोध किया। इसका अर्थ यह था कि कर्नाटक को अपने पड़ोसी को अधिक पानी देना होगा।
इस विवाद में सुप्रीमकोर्ट को क्यों घसीटा गया। सीडब्ल्यूडीटी इस मामले को सुलझा सकती थी?
ये बहुत दिलचस्प और लंबी कहानी है।
सीडब्ल्यूडीटी ने तमिलनाडु के लिए अपना फैसला 1991 में दिया था, जिसने तब कर्नाटक को फैसला लागू करने के लिए कहा था। कर्नाटक फैसला मानना नहीं चाहता था। इस तरह, तमिलनाडु ने 2001 में सुप्रीमकोर्ट में मुकदमा दर्ज कराया। यह अब भी लंबित है। इस मामले की अगली सुनवाई 18 अक्टूबर 2016 को होगी।
इस बीच, सीडब्ल्यूडीटी ने अपना अंतिम फैसला (जिसने वास्तव में 1892 और 1924 में किए गए जल साझा समझौते का स्थान लिया) 2007 में दिया। इसके अलावा, सुप्रीमकोर्ट के हाल में दिए गए आदेशों पर कर्नाटक के खिलाफ तमिलनाडु द्वारा विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) में अपील की गई है।
सीडब्ल्यूडीटी द्वारा 1991 में दिया गया अंतरिम आदेश क्या था?
न्यायाधिकरण ने कर्नाटक को इस बात की गारंटी देने का निर्देश दिया था कि वह एक वर्ष में जून से मई तक, तमिलनाडु के मेत्तूर जलाशय में 205,000 मिलियन घन फीट (टीएमसी) पानी देगा।
उसके बाद क्या हुआ?
कर्नाटक ने न्यायाधिकरण के फैसले के प्रभाव को बदनाम करने के लिए अधिनियम द्वारा एक कानून बनाया। फिर राष्ट्रपति ने इस पर सुप्रीम कोर्ट को अपना पक्ष रखने को कहा। सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 1991 में जवाब दिया, कहा कि कानून और अधिनियम असंवैधानिक थे और राज्य की विधान शक्ति के दायरे से बाहर थे।
वर्ष 1998 में, केंद्र ने कावेरी नदी प्राधिकरण (सीआरए) और एक निगरानी समिति (एमसी) का गठन किया। सीआरए में प्रधानमंत्री और तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और पुडुचेरी के मुख्यमंत्री को शामिल किया गया। एमसी में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री के सचिव और तीन राज्यों और पुडुचेरी के प्रमुख सचिव और केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष एवं अन्य को शामिल किया गया। सीआरए और एमसी को अब और भविष्य में जल के बंटवारे संबंधित मामलों का फैसला करना चाहिए।
सीआरए और एमसी मामले को हल करने में विफल रहे?
हां, ऐसा ही लगता है। बावजूद इनके किसी को भी नहीं पता कि इनका भी अस्तित्व है, इनके स्थान पर 2013 में एक दूसरी पर्यवेक्षण समिति का गठन कर दिया गया है।
तमिलनाडु बार– बार सुप्रीमकोर्ट क्यों जाता है?
आमतौर पर तमिलनाडु के सुप्रीमकोर्ट जाने की वजह यह है कि वह कर्नाटक पर न्यायाधिकरण द्वारा किए गए अनुरोध को स्वीकार करने और उनका पालन करने का दबाव बना सके, वर्ष के अलग– अलग महीनों के लिए पानी के पहुंचने हेतु समयसारणी बना सके।
ज्यादातर मामलों में, कर्नाटक एक ही बहाने के साथ आता है कि वर्षा की कमी के कारण अंतरिम आदेश में समन्वित रूप में पानी की जिस मात्रा का निर्वहन करने को कहा गया है वह उसके लिए व्यावहारिक नहीं है।
2007 में न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए अंतिम आदेश में क्या कहा गया है और उसका क्या निष्कर्ष निकला?
न्यायाधिकरण ने, सर्वसम्मत फैसले में, कहा कि कावेरी बेसिन में लोअर कोलेरूम एनीकट साइट में उपयोग किए जाने योग्य कुल पानी 740 टीएमसी है, इसमें पर्यावरण के संरक्षण और महासागर में जल निकासी हेतु 14 टीएमसी पानी भी शामिल है।
अंतिम फैसले में कुल कावेरी बेसिन से सालाना तमिलनाडु को 419 टीएमसी, कर्नाटक को 270 टीएमसी, केरल को 30 टीएमसी और पुडुचेरी को 7 टीएमसी पानी देने की बात कही गई।
जब कावेरी बेसिन में कुल पानी 740 टीएमसी होता है तो उसे "सामान्य या साधारण वर्ष" कहा जाता है। एक सामान्य साधारण वर्ष में, कर्नाटक को प्रति माह तमिलनाडु को बिलिगुन्डुलु से 192 टीएमसी ( अंतिम आदेश में 205 टीएमसी देने के खिलाफ) पानी देना होता है। इसमें तमिलनाडु के लिए निर्धारित 182 टीएमसी और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए 10 टीएमसी पानी भी शामिल है।
यह आपदाग्रस्त वर्ष है, इसलिए वितरित किया जाने वाला पानी केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और पुडुचेरी के बीच अनुपातिक रूप से कम हो रहा है।
इसी प्रकार न्यायाधिकरण ने अपने आदेश को लागू करने के लिए कावेरी प्रबंधन बोर्ड (सीएमबी) के गठन का फैसला किया और कहा कि, अन्यथा, "पसंद सिर्फ कागज का एक टुकड़ा रह जाएगा"।
इसके अलावा, इसका ज्यादातर हिस्सा सिर्फ कागजों पर हैः 19 फरवरी 2013 को आधिकारिक पत्रिका में आदेश के प्रकाशित होने और बाध्यकारी होने के बावजूद, सीएमबी का गठन अभी तक नहीं हुआ है।
पर्यवेक्षी समिति क्या है?
पर्यवेक्षी समिति का गठन जल संसाधन मंत्रालय द्वारा 2013 में किया गया था। इसमें जल संसाधन मंत्रालय, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के मुख्य सचिव एवं सीडब्ल्यूसी को शामिल किया गया था।
समिति का काम था न्यायाधिकरण द्वारा 5 फरवरी 2007 को दिए गए आदेश का निष्पादन कराना।
स्पष्ट है कि, इस परिषद् ने 1998 में बनाए गए कावेरी नदी प्राधिकरण और जांच सलाहकार समूह का स्थान ले लिया और इसे न्यायाधिकरण द्वारा प्रस्तावित बोर्ड के विषम विकल्प के तौर पर देखा जाता है।
सुप्रीमकोर्ट के हालिया आदेश में यह अनुरोध किया गया है कि तमिलनाडु अपनी शिकायतों को लेकर पर्यवेक्षी समिति में जाए।
वैसे भी सुप्रीम कोर्ट इसमें शामिल है, वजह क्या थी?
जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की है, उससे यही पता चलता है कि न्यायपालिका शायक बेकार के मामलों में पड़ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस समिति से अनुरोध किया है कि वे तत्काल बैठक करे और इस संकट का सौहार्दपूर्ण ढंग से हल निकाले।
सुप्रीम कोर्ट ने अब विवाद को सुलझा दिया है?
वास्तव में यह संघीय बहस है और मुद्दे की जटिलता के आधार पर इसे राज्यों के बीच सौहार्दपूर्ण ढंग से हल किया जाना चाहिए। सुप्रीमकोर्ट द्वारा दिए जाने वाला समाधान का अनिवार्य रूप से एक राज्य समर्थन करेगा और अन्य बहिष्कार।
इस मामले में जो राज्य खुद को ठगा हुआ महसूस करेगा वह राज्य के निवासियों की भावनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाएगा और फिर वह जल्द ही अपील करेगा, और यह फिर से सुप्रीमकोर्ट के फैसले के खिलाफ होगा।
इस तरीके से, इस मामले का समाधान एक ऐसे विशेषज्ञ निकाय द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें दोनों ही राज्यों के कुशल विषय विशेषज्ञ हों।
क्या विवाद चलता रहेगा और अगली सदी तक जाएगा?
यदि संबंधित राज्य यह जानते हुए कि सुप्रीम कोर्ट न्यायाधिकरण के अंतिम आदेश को लागू नहीं कर सकती, मामले का समाधान नहीं होने देते और उसकी बजाए लगातार मुकदमे पर निर्भर करते हैं तो ऐसा ही होगा। और जिस भी मुद्दे पर अदालत में कानूनी लड़ाई लड़ी जाए, इस मुद्दे पर दोनों ही राज्यों में लोगों का गुस्सा भड़केगा ही।