कल मेरे कालेज के सीनियर और मेरे बेहद अजीज ज्योति पाण्डेयजी ने मुझे दो फ़ोटो भेजे। इन दोनों में मैं उनके साथ हूं। पहली फोटो में बायें से तीसरा ज्योति पाण्डेय के कन्धे पर हाथ रखे फ़ोटो-स्माइल मारते हुये (मोनेरेको इलाहाबाद में सन 1982-83 में कभी) और दूसरी फोटो टेल्को, जमशेदपुर के आफ़ीसर्स हास्टल की है जिसमें सबसे पीछे मैं कुर्ता-पायजामा में बैठा हूं (सन 1984 जून)। ज्योति पांडेयजी आजकल कैलिफ़ोर्निया के सैनफ़्रासंसिको में हैं।
पहली फोटो देखते ही मैंने टिपियाया -ओह सरजी, आप ग्रेट हैं! आपके कन्धे पर हाथ रखे इस बालक को देखकर मन कैसा नास्टलजिया गया। कह नहीं सकता। कैसे शुक्रिया कहें? इस पर उन्होंने लिखा-Thank Anup, I think we had some wonderful times together in Telco, what a place!
इन फोटुओं को देखकर न जाने कितनी यादें भड़-भड़कर खुलती गयीं। एक दूसरे से संबंद्ध और असंबद्ध। सिलसिलेवार और गैरसिलसिलेवार। सब एक दूसरे से बेपरवाह। जिस फोटो को देखकर मुझे अपने कालेज के बिताये दिन याद आये उसई को देखकर ज्योति जी को टेल्को जमशेदपुर के सुनहरे दिन याद आ गये। अपने फ़ेसबुक पर पाण्डेयजी ने और भी बहुत सारे फोटो लगाये हैं। उनको देख रहा हूं और अपने हिस्से की यादें दोहरा रहा हूं।
कई दिन से यादों के सिलसिले चल रहे हैं। मुझे लगता है कि यादें भी हायपर लिंक की तरह होती हैं। किसी भी लिंक को छुओ भड़भड़ाकर बीते हुये दिन बिना मे आई कम इन सर कहे सामने आकर खड़े हो जाते हैं। उजबक से मुंह बाये,ताकते। थोड़ी देर उन पर ध्यान न दो तो वापस चले जायेंगे-ऐंठते हुये, गरदन अकड़ाये या फ़िर मुंह छिपाये।
एक ही समय की यादें एक ही हायपर लिंक से अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग तरह से खुलती हैं। जिस फोटो से मुझे अपने कालेज के दिन याद आये उसई से ज्योति पाण्डेय जी को टेल्को के सुनहरे दिन याद आ गये। टेल्को की जब मैं याद करता हूं तो मुझे केवल तीन सीन याद हैं- जमशेदपुर की सड़कों के बिजली के खम्भे, ज्योति पाण्डेय जी के कमरे में लगा मेरा होल्डाल का सिरहाने वाले हिस्सा और टेल्को की ट्रक असेम्बली लाइन के एक मिस्त्री का ट्रक कसते हुये हाथ।
बताते चले कि सन 1984 की गर्मियों में मैं समर ट्रेनिंग के लिये टेल्को जमशेद्पुर गया था। रात को पहुंचा। सड़क के बिजली के खम्भे की रोशनी अभी भी याद है। ठहरने की जगह नहीं थी तो ज्योति पाण्डेयजी के कमरे में ही जमीन पर बिस्तरबंद खोल के जम गये। महीना जमे-जमे निकाल दिया। ज्योति पाण्डेयजी ने आगे लिखा –मुझे तुम्हारे सुनाये चुटकुले अभी भी याद हैं। लेकिन मुझे वो चुटकुले बिल्कुल याद नहीं कौन से सुनाये थे। मुझे जो याद आता है उनमें ज्योतिजी कालेज की किसी स्किट में भाग ले रहे हैं, एक्टिंग रत हैं और सामने पब्लिक मुंह फ़ाड़कर हंस रही है।
सच में एक ही समय की यादें दो अलग-अलग लोगों के लिये एकदम जुदा हो सकती हैं। एक ही समय घटी किसी घटना को याद करके कोई मगन मन फ़ूल की तरह खिल सकता है और उसी को ध्यान करके ही कोई अगिया बैताल बन सकता है। कदली,सीप, भुजंग मुख स्वाति एक गुन तीन वाला मामला।
वैसे सच तो यह है कि यादों का कोई गणित नहीं है। कोई चीज या लोग हमें क्यों याद आता है इसका कुछ सिलसिला नहीं मिलता। अभी अचानक मुझे याद आया कि आज से पचीस साल पहले जब मैं इलाहाबाद पढ़ने चला गया था तो कानपुर के मेरे दोस्त विकास गंगाधर तेलंग ने मुझे लिखा था – मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। मुझे याद नहीं मैंने उसको क्या लिखा था लेकिन इस समय मुझे विकास का मनीराम बगिया वाले घर का वह जीना याद आ रहा है जिससे उतरकर विकास मुझसे मिलने आता था और कभी-कभी हम घंटों बतियाते थे। नीचे खड़े-खड़े ही बतियाकर मैं वापस घर लौट जाता था। आज मैं सोचता हूं कि मैं गांधी नगर से मनीराम बगिया (आठ-दस किमी) तक पैदल या साइकिल से चला जाता था सिर्फ़ अपने दोस्त से बतियाने के लिये।
यादों की बात करने पर मुझे नंदनजी की एक कविता याद आती है:
सुनो,
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो मुझे तुम्हारी आंखों में
ठिठके हुये बेचैन समंदर की याद आती है।
इसके अलावा कविता की और कोई लाइन दोहराने का मन नहीं करता न याद करने का। एक ही बिम्ब पर ठहरा रहता हूं। कोई झील कैसे डबडबाती है मुझे नहीं पता लेकिन आंख में ठहरे आंसू कई बार देखे हैं। बहुत बार, बहुत लोगों की आंखों में। ये आंसू न जाने कितनी परिस्थियों में देखे हैं किसी के दुख के , किसी के सुख के , किसी के बेबसी के , किसी के बेचैनी के और किसी के बस यूं ही।
आंखों में ठिठका हुआ बेचैन समंदर वाली बात न जाने कब पहली बार सुनी थी लेकिन जब भी याद करता हूं हमेशा एक ही सी याद आती है। कोई बेपहचाना चेहरा और उसकी आंख पर ठहरा हुआ आंसू। यह एक कठिन समय की बानगी है। किसी प्रिय की याद करते हुये उसके आंख में ठहरे हुये आंसू की याद दुख का कारण बनते होंगे। लेकिन जब पुरानी बातें हम जब याद करते हैं तो उनमें से दुख और सुख बहुत कुछ फ़िल्टर हो जाते हैं। वे बहुत कुछ एक हायपर लिंक सी हो जाती हैं। जिन पर हाथ रखते ही यादों के न जाने कित्ते पन्ने फ़ड़फ़ड़ाते हुये खुल जाते हैं। कभी-कभी कोई दुख भरी याद करते हुये उससे जुड़े तार न जाने किन-किन खुशनुमा, खिलखिलाते क्षणों में ले जाकर आपके मन में गुदगुदी करने लगता है और आप अनायास मुस्कराने लगते हैं। आंख में ठहरा हुआ आंसू अपने से उदासी को गेट लास्ट कहकर मुस्कान से गलबहियां करने लगता और इसी समय मुझे इस आंख में ठहरा हुआ एक और आंसू या रहा है:-
यह मैंने सीमा गुप्ताजी की एक कविता में शामिल बिम्ब को याद करते हुये लिखा था:
वो बोला- जईबे अम्मा, पहिले गाल से कचरा क्रीम का हटवाओ!
इस पोस्ट पर सीमाजी की प्रतिक्रिया थी:
आंखें बोली -बेटा आंसू! निकलो जरा होंठ तक जाओ,
वो बोला- जईबे अम्मा, पहिले गाल से कचरा क्रीम का हटवाओ!
प्रदूषण हर तरफ़ फ़ैला है।
” ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha Anup jee to aapne apna kmal dikha hee diya….. hum to smej gye, fir bee ager ye btaa daite kee aapko ye lines likhne ke inspiration khan se milee to soney pe suhaga ho jata, vaise aacha lga jordar humor se navaja hai aapne ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha wah”
Regards
मैं सीमाजी से कभी मिला नहीं लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से कल्पना में कोई बेसाख्ता हंसता हुआ चेहरा याद आता है। याद आता रहता है।
यह याद आते ही न जाने कित्ता यादें और भड़भड़ाकर सामने आ रही हैं, कुछ पीछे से धकिया रही हैं। सब की सब रूपा फ़्रंट लाइन बनियाइन पहने हैं। किसको पहले आगे करें!
आप को भी कुछ याद आ रहा है क्या?
मेरी पसंद
सुनो,
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो मुझे तुम्हारी आंखों में
ठिठके हुये बेचैन समंदर की याद आती है।
और जब भी वह बेचैनी
कभी फ़ूटकर बही है
मैंने उसकी धार के एक-एक मोती को हथेलियों में चुना है
और उनकी ऊष्मा में
तुम्हारे अन्दर की ध्वनियों को बहुत नजदीक से सुना है।
अंगुलियों को छू-छूकर
संधों से सरक जाती हुई
आंसुओं की सिहरन
जैसे आंसू न हो
कोई लगभग जीवित काल-बिन्दु हो
जो निर्वर्ण,
नि:शब्द
अंगुलियों के बीच से सरक जाने की कोशिश कर रहा हो
किसी कातर छौने-सा।
और अब अपनी उंगलियों को सहलाते हुये
समय
मुझे साफ़ सुनाई देने लगा है।
इसीलिये जब भी तुम्हारा दुख फ़ुटकर बहा है
मैंने उसे अपनी हथेलियों में सहेजा।
भले ही इस प्रक्रिया में
समय टूट-टूट कर लहूलुहान होता रहा
लेकिन तुम्हे सुनने के लालच में
मेरे इन हाथों ने
इस कष्टकर संतुष्टि को बार-बार सहा है।
और अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो रफ़्तार की बंदी बेचैनी
मेरी हथेलियों में एक सिहरन भर जाती है।
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है……..।
कन्हैयालाल नंदन
अच्छा लगा जानकर के कभी कभी आप भी सेंटिया लेते है ……यानी नोस्टेल्जिया के जींस में अब भी दम है …..वर्ना हम सोच रहे थे के शायद लोगो में रेसिसटेंट आने लगा है ….
वो चमकीले दिन कभी लौटकर नहीं आते……अलबत्ता उन दिनों में आपकी जेब में कभी कल का जुगाड़ नहीं होता …………….बाइक में रिज़र्व की क्नोब घूमी हुई……ओर ऊपर एक मुट्ठी भर आसमान होता है …..दुनिया बदलने की फिलोसफी….सपने….मोहब्बत….चाय ओर सिगरेट में डूबे होते है ….फिर भी वो दिन कितने चमकीले होते है ……..
नंदन जी की ये कविता …..ये मेरी पसंदीदा कविता है …किशोर दिनों की डायरी में पांचवे पेज पर जमा की हुई…….
कौन सी क्रीम लगाते रहे 82-83 से अब तक ? बहुतै गोरे हो गए हैं पहिले के मुकाबले ।
ना जाने कितने आपके संस्मरणो से मिल्ते जुलते किस्से आन्खो के सामने तैर गये . वह लडकपन खासकर जब आप उडने के लिये पन्ख फ़डफ़डाते हो उस समय के साथी हमेशा याद रहते है .
विवेक के प्रश्न के उत्तर से मै धन्य होउंगा
आंखें बोली -बेटा आंसू! निकलो जरा होंठ तक जाओ,
वो बोला- जईबे अम्मा, पहिले गाल से कचरा क्रीम का हटवाओ!
” हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा जानते हैं आनुप जी, ये हमारी बेहद पसंदीदा पंक्तियाँ हैं…..हम ने हमारे आस पास सभी को सुनाई हैं और सुनाते रहते हैं, हास्य व्यंग का एक अनुपम नमूना है आपकी ये पंक्तियाँ, आभार इन्हें आज फिर से अपनी यादो तले संजोने का. ”
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो मुझे तुम्हारी आंखों में
ठिठके हुये बेचैन समंदर की याद आती है।”
” वाह और वाह बेमिसाल… फिर से आभार कन्हैयालाल नंदन जी की इतनी उत्कृष्ट रचना पढवाने के लिए”
और हाँ आपकी इत्ती पुरानी तस्वीरे देख कर अच्छा लगा…
regards
ना भी बताते तो आपको हम पहचान ही लेते …..खूबसूरत कविता
ये यादें बहुत जालिम होती हैं अनूप जी….कभी कभी बेसाख्ता रूलाती हैं….इसलिए मैं कम से कम का ही अनुसरण करता हूँ
जानकर पुरानी तस्वीरों को हाँथ नहीं लगाते है क्योंकि छूते ही ऑटोमेटिक rewind का बटन दब जाता है और वापस आने में २ घंटे तो लग ही जाते है, और हम गंगा किनारे वालो को तो तस्वीरों की क्या कोई भी नदी देख कर अपना गाँव याद आता है
सबसे पहले एक ’वाह’ इस मारू लाईन के लिये कि ’…यादें हायपर लिंक की तरह होती हैं’…
और एक ’जय हो’ आपके रूपा फ़्रंट लाइन बनियाइन के ऎडवरटाईजमेन्ट पर…
अल्टीमेट हाईपरलिन्क्स (यादे) है… हमारे भी पन्ने खुल रहे है…. लेखन शैली के तो हम कायल हो ही चुके है..
आप को सेंटिमेटल होते देख हमें भी अच्छा लग रहा है, विवेक का सवाल हमारा भी समझिये, कौन सी फ़ेअर एंड लवली क्रीम लगायी जी जो अब पहले से ज्यादा गोरे दिखते हैं?
वैसे यादों में डूबना, ये कहना कि वो भी क्या दिन थे, बुढ़ाने की निशानी है। हमारी जमात में आप का स्वागत है…:)
नंदन जी की कविता की तो बात ही क्या, उनकी तो हर कविता हमें अच्छी लगती है।
बहुत कुछ भरभरा कर भहराय जाता है !
यादों का आंसू से इतना गहरा नाता क्यों होता है , ये झीलों को
क्यों आमंत्रित करती हैं ?
शायद , पानी में बिम्ब साफ़ बनते हैं इसलिए
शायद , यादें बहना चाहती हैं और बहना पानी का गुण है इसलिए
शायद , रक्त आंसुओं को पानी की सप्लाई करके ज्यादा गाढा होना चाहता है इसलिए
शायद , अतीत में पड़ी-पड़ी यादें सूख चुकी होती हैं और उनका ‘इंट्रेंस’ नमी के
आई.कार्ड. { eye-card भी } के बिना संभव नहीं इसलिए , या
शायद , ‘क्षिति , जल ,पावक , गगन , समीर ‘ में स्मृतिपूरित नेत्रों का प्रिय जीवन-तत्व
‘जल’ है इसलिए … …
……….
आपने कहा ‘आपको भी कुछ याद आ रहा है क्या ‘ , तो क्या कहूँ , १० वाँ साल होस्टल-लाइफ
का चल रहा है , काफी कुछ याद आया !
ऐसे अवसरों पर आपकी ‘मौज’ भी विषयवस्तु की सहचरी बन कर आती है |
इससे यह जाहिर होता है कि यह मौज-पैराहन ओढ़ा हुआ नहीं बल्कि सहज है !
……….
यह खंड बहुत प्यारा लगा—
” इसीलिये जब भी तुम्हारा दुख फ़ुटकर बहा है
मैंने उसे अपनी हथेलियों में सहेजा।
भले ही इस प्रक्रिया में
समय टूट-टूट कर लहूलुहान होता रहा
लेकिन तुम्हे सुनने के लालच में
मेरे इन हाथों ने
इस कष्टकर संतुष्टि को बार-बार सहा है। ”
………
आभार , एक अच्छे-सच्चे काल-खंड को याद करने के लिए , साझा करने के
लिए , एक सुन्दर कविता से परिचित कराने के लिए !!!
एक नशा है, लड़कपन के मित्रों की यादों में उतराना । सब नया भूल जाता है और पुराना धीरे धीरे खुलता जाता है । आनन्द आ गया आपको उतराते देख ।
बीते दिनों की याद सताती है आज भी,
क्या वो जमाने फ़िर कभी वापस न आयेंगे….
एक ही लड़का पढाऊ दिख रहा है दोनों फोटुओ में बाकी तो अपने जैसे लफंगे ही लग रहे हैं. उन दिनों की यादें भी कोई पूछने की बात है ? धड़ल्ले से आती रहती हैं… धड धडा धड जैसे किसी वायरस वाले हाइपरलिंक पे पहुच गए हों… यहाँ तो शट डाउन का आप्शन भी नहीं है !
[...] की आंख का आंसू हमें परेशान करे तथा हम कहने के लिये मजबूर हों: सुनो , अब जब भी कहीं कोई झील [...]
ठीक एक साल पहले का कमेन्ट है ऊपर वाला। आज दुबारा पढ़कर वही बात कहने का मन हो आया। शायद पिछली बार ऑडियो नहीं चलाया था। गज़ब गूँजती हुई आवाज है।
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..तुम नहीं समझोगी !
[...] …यादें हायपर लिंक की तरह होती हैं [...]