Thursday, May 15, 2014

दानेह पे दानेह दानना.... एक मस्ती भरा बलूची लोकगीत ! Daanah pe Daanah by Akhtar Chanal Zahri

लोकगीतों और लोकगायकों की सबसे बड़ी खासियत होती है कि उनके गाने का लहज़ा और रिदम कुछ इस तरह का होता है कि बिना भाषाई ज्ञान रखते हुए भी आप उस संगीत रचना से बँध कर रह जाते हैं। आज एक ऐसे ही गीत से आपको रूबरू करा रहा हूँ जिसकी भाषा बलूची है। इसे गाया है बलूची लोकगायक अख़्तर चानल ज़ाहरी  ने। बलूची रेडियो स्टेशन से पहली बार चार दशकों पहले अपनी प्रतिभा का परिचय देने वाले 60 वर्षीय ज़ाहरी पूरे विश्व में बलूची लोकसंगीत के लिए जाना हुआ नाम हैं। अपनी मिट्टी के संगीत के बारे में ज़ाहरी कहते हैं
"जिस जगह से मैं आता हूँ वहाँ बच्चे सिर्फ दो बातें जानते हैं गाना और रोना। संगीत से हमारा राब्ता बचपन से ही हो जाता है। बचपन में एक गड़ेरिए के रूप में अपनी भेड़ों को चराते हुए मैं जो नग्मे गुनगुनाता था वो मुझे आज तक याद हैं। मुझे तो ये लगता है कि हर जानवर, खेत खलिहान, फूल और यहाँ तक कि घास का एक क़तरा भी संगीत की धनात्मक उर्जा को महसूस कर सकता है।"
आज जिस बलूची गीत की बात मैं करने जा रहा हूँ उसे ज़ाहरी के साथ गाया था पाकिस्तानी गायिका कोमल रिज़वी ने।  बहुमुखी प्रतिभा वाली 33 वर्षीय कोमल गायिकी के आलावा गीतकार और टीवी होस्ट के रूप में भी पाकिस्तान में एक चर्चित नाम हैं। जिस तरह बलूचिस्तान के दक्षिणी इलाके के साथ सिंध की सीमाएँ सटती हुई चलती हैं उसी को देखते हुए कोक स्टूडियो की इस प्रस्तुति में बलूची गीत का सिंध के सबसे लोकप्रिय लोकगीत ओ यार मेरी..दमादम मस्त कलंदर के साथ फ्यूज़न किया है। फ्यूजन तो अपनी जगह है पर इस गीत का असली आनंद ज़ाहरी और कोमल रिज़वी द्वारा गाए बलूची हिस्से को सुन कर आता है।


गीत की भाषा ब्राह्वी है जो प्राचीन बलूचिस्तान की प्रमुख स्थानीय भाषा थी। ज़ाहिरी इस गीत के बारे में बताते हैं कि क्वेटा में जब वो एक दर्जी की दुकान में बैठे थे तो उन्होंने एक फकीर को दानेह पे दानेह दानना गाते सुना। इसी मुखड़े से उन्होंने बलूचिस्तान से जुड़े अपने इस गीत को विकसित किया। गीत के मुखड़े दानेह पे दानेह दानना का अर्थ है कि संसार के अथाह दानों में से एक दाना मेरा भी है। ज़ाहरी  के इस गीत में एक गड़ेरिया अपने बच्चों को बलूचिस्तान की नदियों, शहरों व प्राचीन गौरवमयी इतिहास और दंत कथाओं से परिचय कराता है। गीत के बीच बीच में जानवरों को हाँकने के लिए प्रचलित बोलियों का इस्तेमाल किया गया है ताकि लगता रहे कि ये एक चरवाहे का गीत है।


पर इस गीत का लोकगीत की सबसे मजबूत पक्ष इसकी रिदम और ज़ाहरी की जोरदार आवाज़ है जिसका प्रयोग वो अपने मुल्क की तारीफ़ करते हुए इस मस्ती से करते हैं कि मन झूम उठता है। कोमल ज़ाहरी के साथ वही मस्ती अपनी गायिकी में भी ले आती हैं। गीत के दूसरा हिस्सा मुझे उतना प्रभावित नहीं करता क्यूँकि दमादम मस्त कलंदर को इतनी बार सुन चुका हूँ कि उसे यहाँ सुनने में कुछ खास नयापन नहीं लगता।

इसलिए अगर आप सिर्फ बलूची हिस्से को सुनना चाहें तो नीचे की आडियो लिंक पर क्लिक करें।

Thursday, May 08, 2014

आज की शब तो किसी तौर गुजर जाएगी परवीन शाकिर की नज़्म मेरी आवाज़ में! Aaj ki Shab by Parveen Shakir

क्या आप  मानते हैं कि प्रेम में अनिश्चितता ना रहे, असुरक्षा की भावना ना हो तो प्रेम, प्रेम नहीं रह जाता? आप सोच रहे होंगे कि अचानक ये प्रश्न कहाँ से मेरे दिमाग में चला आया? दरअसल हाल फिलहाल में एक फेसबुक मित्र ने इसी आशय का एक स्टेटस ज़ारी किया जिसने मुझे भी इस विषय पर सोचने पर मजबूर कर दिया।

इतना तो जरूर है कि दिल का ये पंक्षी जब पहले पहल किसी के लिए फड़फड़ाता है तो अपनी हर उड़ान भरने के पहले इस दुविधा से त्रस्त रहता है कि आख़िर इस बार अंजामे सफ़र क्या होगा ? पर ये बैचैनी तो तभी तक रहती है ना जब तक आप इज़हार ए मोहब्बत नहीं कर देते ? नहीं नहीं, अगर उन्होंने हाँ कर भी दिया तो फिर कभी मूड बदल भी तो सकता है। पर एक बार रिश्ते में स्थायित्व आया नहीं कि मन के अंदर पनपने वाला ये खूबसूरत तनाव ख़ुद बा ख़ुद लुप्त सा हो जाता है। शायद यही वज़ह हो कि हम अपने साथी के प्रति थोड़ा लापरवाह हो जाते हैं।

बहरहाल प्यार की इन्हीं दुविधाओं के बारे में सोचते हुए परवीन शाक़िर साहिबा की एक नज़्म की शुरुआती पंक्तियाँ 'आज की शब तो किसी तौर गुजर जाएगी' याद आ गयीं। फिर लगा क्यूँ ना पूरी नज़्म ही खँगाली जाए। मिल गयी तो मन इसे गुनगुनाने का हुआ।  सो आनन फानन में इसे रिकार्ड किया। कहीं कहीं volume अचानक से बढ़ गया है उसके लिए पहले ही ख़ेद व्यक्त कर रहा हूँ। वैसे मेरा ये प्रयास आपको कैसा लगा बताइएगा।

 

रात गहरी है मगर चाँद चमकता है अभी
मेरे माथे पे तेरा प्यार दमकता है अभी

मेरी साँसों में तेरा लम्स महकता है अभी
मेरे सीने में तेरा नाम धड़कता है अभी

ज़ीस्त करने को मेरे पास बहुत कुछ है अभी
तेरी आवाज़ का जादू है अभी मेरे लिए
तेरे मलबूस1 की खुशबू है अभी मेरे लिए
तेरी बातें तेरा पहलू है अभी मेरे लिए
सब से बढ़कर मेरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
ज़ीस्त2 करने को मेरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब3 तो किसी तौर गुजर जाएगी

आज के बाद मगर रंग -ए-वफ़ा क्या होगा
इश्क़ हैरान है कि सर शहर- ए -सबा4 क्या होगा
मेरे क़ातिल तेरा अंदाज़ ए ज़फा क्या होगा
आज की शब तो बहुत कुछ है मगर कल के लिए
एक अंदेशा ए बेनाम है और कुछ भी नहीं


देखना ये है कि कल तुझसे मुलाकात के बाद
रंग ए उम्मीद खिलेगा कि बिखर जाएगा
वक़्त परवाज़ करेगा कि ठहर जाएगा
जीत हो जाएगी या खेल बिगड़  जाएगा
ख़्वाब का शहर रहेगा कि उजड़ जाएगा....


1 पोशाक  2. जीवन में  3. रात,  4.सुबह चलने वाली हवा

परवीन शाकिर को बहुत दिनों बाद याद कर रहा हूँ इस ब्लॉग पर। अगर आप उनकी रचनाओं के मुरीद हैं तो उनकी लिखी चंद खूबसूरत ग़ज़लों और अशआरों से जुड़े इन लेखों को यहाँ पढ़ सकते हैं..

Tuesday, April 29, 2014

आमाय भाशाइली रे ..क्या था गंगा आए कहाँ से..का प्रेरणास्रोत ? Aamay Bhashaili Ray..Ganga Aaye Kahan Se

कुछ दिनों पहले कोक स्टूडियो के सीजन 6 के कुछ गीतों से गुजर रहा था तो अचानक ही  बाँग्ला शीर्षक वाले  इस नग्मे पर नज़र पड़ी। मन में उत्सुकता हुई कि कोक स्टूडियो में बांग्ला गीत कब से संगीतबद्ध होने लगे। आलमगीर की गाई पहली कुछ पंक्तियाँ कान में गयीं तो लगा कि अरे इससे मिलता जुलता कौन सा हिंदी गीत मैंने सुना है? ख़ैर दिमाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी और तुरंत फिल्म काबुलीवाला के लिए सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध और गुलज़ार द्वारा लिखा वो गीत याद आ गया  गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे..लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे....

जब इस ब्लॉग पर सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की श्रंखला चली थी तो उसमें माँझी और भाटियाली  गीतों पर मैंने विस्तार से चर्चा की थी। बाँग्लादेश के लोक संगीत को कविता में ढालने वाले कवि जसिमुद्दीन की रचनाओं और धुनों से प्रेरित होकर सचिन दा ने बहुतेरे गीतों की रचना की। जब मैंने आमाय भाशाइली रे. सुना तो सलिल दा को भी उनसे प्रेरित पाया।  वैसे पाकिस्तान के पॉप संगीत के कर्णधारों में से एक आलमगीर ने कवि जसिमुद्दीन के लिखे जिस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है उसे सलिल दा काबुलीवाले के प्रदर्शित होने से भी पहले बंगाली फिल्म में मन्ना डे से गवा चुके थे।


ख़ैर मन्ना डे तो मन्ना डे हैं ही पर पन्द्रह साल की आयु में अपना मुल्क बाँग्लादेश छोड़कर कराची में बसने वाले आलमगीर ने भी इस गीत को इतने दिल से गाया है कि मात्र दो मिनटों में ही वो इसमें प्राण से फूँकते नज़र आते हैं। इस गीत की लय ऐसी है कि अगर आपका बाँग्ला ज्ञान शून्य भी हो तो भी आप अपने आप को इसमें डूबता उतराता पाते हैं। कोक स्टूडिओ की इस प्रस्तुति में खास बात ये है कि इस लोकगीत में संगीत सर्बियन बैंड का है जो कि गीत के साथ ही बहता सा प्रतीत होता है।

तो आइए देखें इस लोकगीत में कवि जसिमुद्दीन हमसे क्या कह रहे हैं

आमाय भाशाइली रे आमाय डूबाइली रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाई रे


मैं भटकता जा रहा हूँ..मुझे कोई डुबाए जा रहा है इस अथाह जलराशि में जिसका ना तो कोई आदि है ना अंत

चाहे आँधी आए रे चाहे मेघा छाए रे
हमें तो उस पार ले के जाना माँझी रे

कूल नाई कीनर नाई, नाई को दोरियर पाड़ी
साबधाने चलइओ माँझी आमार भंग तोरी रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाइ रे


इस नदी की तो ना कोई सीमा है ना ही कोई किनारा नज़र आता है। माँझी मेरी इस टूटी नैया को सावधानी पूर्वक चलाना ताकि हम सकुशल अपने ठिकाने पहुँचें।

दरअसल कवि सांकेतिक रूप से ये कहना चाहते हैं कि ये जीवन संघर्ष से भरा है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोख़िमों का सामना निर्भय और एकाग्र चित्त होकर करना पड़ेगा वर्ना इस झंझावत में डूबना निश्चित ही है।

काबुलीवाला में  गुलज़ार ने  गंगा की इस प्रकृति को उभारा है कि उसमें चाहे जितनी भी भिन्न प्रकृति की चीज़ें मिलें वो बिना उनमें भेद किए हुए उन्हें एक ही रंग में समाहित किए हुए चलती है। गीत के अंतरों में आप देखेंगे कि किस तरह गंगा के इस गुण को गुलज़ार प्रकृति और संसार के अन्य रूपकों में ढूँढते हैं?

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

रात कारी दिन उजियारा मिल गए दोनों साए
साँझ ने देखो रंग रूप के कैसे भेद मिटाए रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

 

Saturday, April 19, 2014

'लिखना ज़रूरी है' : सोनरूपा विशाल ( Likhna Zaroori Hai... )

अपने आप को व्यक्त करने की इच्छा हम सबमें से बहुतों की होती है। कभी जब ये कसक ज़रा ज्यादा जोर मारती है तो हम काग़ज़ के पन्नों को रंगते हैं और फिर भूल जाते हैं। पहले तो अपना लिखा देखकर ये लगता है भला इसे पढ़ेगा कौन? फिर ये भी लगता है कि अगर किसी ने पढ़ लिया और एक सिरे से ख़ारिज़ कर दिया तो फिर इस तरह नकारे जाने का दर्द ना जाने कब तक मन को टीसता रहेगा। कुछ दिनों पहले  कैफ़ी आज़मी से जुड़ा संस्मरण बाँटते समय बताया था कि ये झिझक और बढ़ जाती है जब अपने ही घर में लिखने पढ़ने वाले इतना नाम कमा गए हों कि उनके सामने अपनी हर कृति बौनी लगे। इसी संकोच की वज़ह से बहुतेरे अपने को कम आँकते हुए उसे सबके सामने लाने की ज़हमत नहीं करते और कुछ क़ैफी जैसे होते हैं तो हर उस मौके, उस दबाव को ध्यान में रखते हुए अपने हुनर का इम्तिहान देने से ज़रा भी नहीं कतराते।

सोनरूपा विशाल के पहले ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह 'लिखना ज़रूरी है' को भी इसी परिपेक्ष्य में देखना जरूरी है। लेखिका की पहचान एक ख्याति प्राप्त गीतकार कवि उर्मिलेश की सुपुत्री और एक ग़ज़ल गायिका की रही है। लेखिका भी इस पुस्तक को पाठकों के सम्मुख रखने से पहले उन्हीं मनोभावनाओं से गुजरी हैं जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है इसीलिए पुस्तक की प्रस्तावना में उनकी ये झिझक साफ दिखाई देती है जब वो लिखती हैं..
मैं वाकई इतनी काबिलियत नहीं रखती कि ग़ज़ल और ग़ज़लकारों की विराट परंपरा की फेरहिस्त में अपनी छोटी सी लेखन यात्रा से ख़ुद को एक संग्रह के माध्यम से खड़ा कर सकूँ। बस इतना मान लीजिए कि ये ग़ज़लें मेरी एहसास की शिद्दत हैं, मेरे रंग, कुछ देखे समझे तमाशे, धुँध में से रौशनी देखने की हसरत, निजत्व की तलाश, आसपास का परिवेश, विसंगतियाँ, जज़्बात, शिकन, हरारतें हैं।
ये भी है कि जो अपने अंदर की आवाज़ को समझ पाते हैं उनकी लेखनी पर ज्यादा विराम नहीं लग सकता। सोनरूपा ने अपनी इस फ़ितरत को समझा और इसीलिए वो लिखती हैं

मेरे जज़्बात को स्याही का रंग मिलना जरूरी है
मुझे रहना हो गर ज़िंदा तो फिर लिखना जरूरी है

पिता मेरे मुकम्मल थे हर इक अंदाज़ में लेकिन
तो थोड़ा इल्म उनका भी मुझे मिलना जरूरी है

इस संकलन में सोनरूपा की लिखी सौ के करीब ग़ज़लें और नज़्मे हैं जिनमें एक चौथाई हिस्सा नज़्मों का है। उनकी भाषा में एक सहजता है। पर इसी सहजता से अपने अशआरों में वो जगह जगह मानवीय भावनाओं का आकलन करती चलती हैं। मिसाल के तौर पर छोटी बहर के इन अशआरों पर गौर फ़रमाएँ

जो हर पल हँसते रहते हैं
उनके दिल सुनसान समझिए

रोज चुभेंगे काँटे दिल में
फूलों से नुकसान समझिए

और उनकी इस सोच को आप या मैं शायद ही कोई नकार सके। ज़िदगी के ये अनुभव यूँ तो हम सबने जिये हैं पर जब वो इन शेरों की शक़्ल ले कर हमसे टकराते हैं तो उनका असर कुछ और होता है।

परेशाँ जब भी होते हैं. ख़ुदा के पास आते हैं
नहीं तो एक मूरत है ये कह के भूल जाते हैं

किसी सूरत भी अपना हाले दिल उनसे नहीं कहना
ये रो रोकर जो सुनते हैं, वही हँस हँस उड़ाते हैं

और उनके ये शेर तो खास दाद का हक़दार है

कई अंदाज़ रखते हैं कई किरदार जीते हैं
यही आदत उन्हें ख़ुद से मिलने नहीं देती

हम कुछ भी लिखते हैं तो उसे लिखते समय मन में कोई ना कोई रहता ही है पर फिर सारी चतुराई इस बात पर भी रहती है कि अपनी अभिव्यक्ति के चारों ओर शब्दों का वो जाल बुने कि अगला समझते हुए भी असमंजस में रहे। तब भी लिखने वाले की वही उम्मीद रहती है जो सोनरूपा की है..

मेरे अशआर तुम समझ लेना
अपना किरदार तुम समझ लेना

जिसने सोचा न हो नफ़ा नुकसान
वो खरीदार तुम समझ लेना

सोनरूपा की लेखनी में कहीं दार्शनिकता का पुट है

ये बच्चे ये मकाँ, ये मालो दौलत सब है मुट्ठी में
मगर मिट्टी ही आख़िर में मेरा तेरा ठिकाना है

जिनको दर सस्ती लगे एहसास की
उनकी कीमत भी गिरानी चाहिए
इक कलंदर ने हमें समझा दिया
ज़िंदगी कैसे बितानी चाहिए

सच्चाई तो कछुए जैसी चलती है
झूठे किस्से पानी जैसे बहते हैं

तो कहीं रूमानियत से भरे एहसास भी

हमसफ़र हमनवाँ सा लगता है
चाँद अब आशना सा लगता है
देखने में तो कोरा काग़ज़ है
और सब कुछ लिखा सा लगता है

उनकी एक ग़ज़ल तो बेज़ान सी लगने वाली खिड़कियों को समर्पित है। प्रेम, प्रतीक्षा, हिंसा और बाहरी दुनिया से एक सेतु के रूप में देखा है उन्होंने इन खिड़कियों को अपनी ग़ज़ल में। अपनी बात करूँ तो इन झरोखों की वज़ह से मेरे दिल के रोशनदान को कई बार उम्मीदों की धूप सेंकने का अवसर मिला है इस लिए ये शेर मुझे बेहद अपना सा लगता है जब लेखिका कहती हैं

गुनगुनाती मुस्कुराती खिड़कियाँ
इश्क़ का जादू जगाती खिड़कियाँ

और अगला शेर पढ़ते हुए दंगों के बीच अपने शहर का वो दिन याद आ जाता है

हर तरफ़ सड़कों पर वो कोहराम है
डर से जिसके सहम जाती खिड़कियाँ

ये तो हुई ग़ज़लों की बातें। इस किताब में सोनरूपा की दो दर्जन नज़्में भी शामिल हैं। अगर ईमानदारी से कहूँ तो उनकी लिखी नज़्मों में मुझे उनकी ग़ज़लों से ज्यादा प्रभावित किया। नज़्मों में लेखिका के व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। इन नज़्मों में वो अपने उन सभी रंगों में नज़र आती हैं जिसे उन्होंने अपने जीवन के विभिन्न पड़ावों पर जिया है। कुछ नज़्मों का खास जिक्र करना चाहूँगा। अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता को वो प्यारे अंदाज़ में यूँ व्यक्त करती हैं।

बुहार देती हो तुम
हर दर्द मेरा
बिखरती हूँ मैं
जब भी
तुम्हारे आगे
पत्ते की तरह !


उनकी नज़्म 'आसानियाँ भी दुश्वारियाँ हैं..' में भौतिक सुख सुविधाओं के बीच पली बढ़ी एक स्त्री के मन का कचोट सामने आता है। ये प्रश्न लेखिका को सालता है कि जीवन के कष्टों को बिना ख़ुद झेले हुए क्या कोई उस वर्ग का दुख समझ सकता है। एक छोटी बच्ची के साथ हुए बलात्कार पर व्यथित हृदय से लिखी उनकी नज़्म 'तुम ....' मन को झकझोर जाती है। वहीं दूसरी तरफ़ 'अल्हड़ लड़की का चाँद' में चाँद के साथ किशोरी की गुफ्तगू को पढ़कर मन ठेठ रूमानियत के धागों में बँधा चला जाता है। आपको यकीन नहीं होता तो आप ख़ुद ही लेखिका की आवाज़ में इसे सुन कर देखिए....

खुल गई अंबर की गाँठ
छिटके तारे और
बादलों के नाजुक से फाहों के बीच से
उतरे तुम
रात के चमकीले शामियानों के सजीले चितचोर
रात की झिलमिल झील की पतवार
दुनिया भर की प्रेम कथाओं के कोहीनूर..ओ चाँद....




तो चलते चलते यहीं कहना चाहूँगा कि पहली कोशिश के रूप में ये पुस्तक नई संभावनाओं को जगाती है। अगर सोनरूपा इसी तरह अपने हुनर को माँजती रहें तो वो निश्चय ही इससे भी बेहतर कर सकने का सामर्थ्य रखती हैं। एक पाठक के रूप में मेरी तो उनसे यही उम्मीद रहेगी..

जब चलें तो खुशबुओं का साथ हो
क़ैद मुट्ठी में हवाएँ ना हो जाएँ

जिनकी मंजिल हो आसमाँ से परे
वो कलम फिक्रे ज़हाँ में ना खो
जाएँ

पुस्तक के बारे में
नाम :  लिखना जरूरी है
प्रकाशक : हिन्द युग्म प्रकाशन
पृष्ठ 96, मूल्य  Rs.200

Sunday, April 13, 2014

हज़ार शानदार सूर्यों वाला काबुल ! A Thousand Splendid Suns..

अस्सी के दशक की आख़िर और नब्बे के दशक में अफ़गानिस्तान, आकाशवाणी के सुबह और रात में आने वाले समाचारों में सुनाई जाने वाली अंतरराष्ट्रीय ख़बरों का अहम हिस्सा हुआ करता था। यही वो समय था जब मैं नजीबुल्लाह, अहमद शाह मसूद, गुलुबुद्दीन हिकमतयार और दोस्तम जैसे लड़ाकों के नाम से परिचित हुआ था। समाचार पत्रों और पत्र पत्रिकाओं में छपे लेखों की बदौलत दो दशकों के अंतराल में सोवियत संघ द्वारा नियंत्रित उदारवादी व्यवस्था से लेकर भरे मैदान में जनता के सामने तथाकथित अपराधियों को सज़ा देते तालिबानी लड़ाकों तक काबुल के बदलते रूप देखे। सोवियत शासन हो या मुज़ाहिदीन या फिर तालिबान किसी भी दौर में ये देश हिंसा और प्रतिहिंसा के दौर से मुक्त नहीं रहा। समझ नहीं आता था कि इस देश के लोग किस मिट्टी के बने हैं कि इतनी आपसी तबाही के बाद भी एक दूसरे को नेस्तानाबूद करने का जज़्बा जाता नहीं है?


यही वज़ह रही कि जब अफ़गान लेखक ख़ालिद होसैनी की किताब चार दिन पहले पढ़नी शुरु की तो ये आशा थी कि इस देश की व्यथा को और करीब से समझने का मौका मिलेगा। इसे कहने में मुझे कोई संशय नहीं कि ख़ालिद मेरी आशाओं पर पूरी तरह खरे उतरे। काबुल में जन्मे 49 वर्षीय होसैनी अपनी पहली किताब The Kite Runner से विख्यात हुए। 1980 में वो अमेरिका चले गए। लेखन और डॉक्टरी के आलावा वो विश्व में फैले अफ़गानी शरणार्थियों की मदद के लिए भी तत्पर रहते हैं।


सालों साल हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में सामाजिक संरचना ही क्षत विक्षत हो जाती है और अगर ये समाज कट्टर इस्लामी अनुयायियों द्वारा संचालित हो तो सबसे बुरी दशा होती है महिलाओं और बच्चों की। ख़ालिद ने अपनी किताब में  इस सामाजिक प्रताड़ना को सहती और उससे सफलता पूर्वक जूझती दो महिलाओं की कथा कही है। यूँ तो कथा अफ़गानिस्तान के शहर हेरात से शुरु होती है पर उपन्यास का केंद्र काबुल ही है और इसीलिए लेखक ने पुस्तक का शीर्षक सत्रहवीं शताब्दी में साइब ए तबरीज़ी द्वारा लिखी कविता 'काबुल' से लिया है। साइब काबुल के बारे में लिखते हैं..

One could not count the moons that shimmer on her roofs,
Or the thousand splendid suns that hide behind her walls. 
(Translated by Josephine Davis)

साहित्य समीक्षकों का ऐसा मानना है कि यहाँ चाँद और सूरज की तुलना काबुल के नर नारियों से की गई है। जहाँ काबुल की छतों पर चमकते चाँद वहाँ के घरों के जाँबाज़ मुखिया हैं तो वहीं घर के परकोटों में रहने और उसे सँभालने वाली स्त्रियाँ हज़ारो चमकते सूर्य की भांति हैं जिनकी सुंदरता और ममत्व से अफ़गानी समाज जीवंत है। पर मुगलिया सल्तनत की हुकूमत वाला सत्रहवीं शताब्दी का वो काबुल तीन सौ सालों बाद भी क्या वैसा रह पाया? ख़ालिद इस प्रश्न का जवाब विगत चार दशकों के अफ़गानिस्तान के हालातों को बताते हुए पुस्तक के दो मुख्य महिला चरित्रों के माध्यम से देते हैं।

उपन्यास के ये दो चरित्र है मरियम और लैला । पहले बात मरियम की। मरियम का सबसे बड़ा दोष ये है कि वो एक हरामी है और इसीलिए रईस बाप के होते हुए भी अपनी माँ के साथ हेरात शहर से दूर एक छोटे से दबड़ेनुमा घर में रहती है। मर्दों के बारे में अपनी माँ के सदवचनों पर मरियम कभी विश्वास नहीं करती। उसकी माँ पुरुषों के बारे में उसे हमेशा कहा करती थी
"A man's heart is a wretched, wretched thing. It isn't like a mother's womb. It won't bleed. It won't stretch to make room for you.............. Learn this now and learn it well, my daughter: Like a compass needle that points north, a man's accusing finger always finds a woman."
वो उसे एक हारी हुई औरत की निराशा मानती। पर ज़िंदगी की राहों पर भटकते हुए उसे इनकी सत्यता का अनुभव हुआ। मरियम के हालात किसी भी विकासशील देश के निम्न मध्यम वर्गीय गरीब महिला जैसे ही हैं जो अपने घरों में अकारण पिटती हैं। जिनकी एकमात्र खासियत उनका शरीर है और जिसे जब चाहे भोगना एक पुरुष का अधिकार। शरीर से खेलते खेलते अगर उनकी कोख एक बेटे को जन्म दे दे तो सौभाग्य नहीं तो फिर किसी दूसरे शरीर से खेलने की पति को छूट। 

मरियम के विपरीत लैला एक मध्यमवर्गीय परिवार में अपने बुद्धिजीवी पिता की लाड़ली बेटी है। अपनी कुशाग्र बेटी के लिए पिता काबुल के बिगड़ते हालातों के बीच भी अच्छी ज़िंदगी की उम्मीद रखता है पर गृहयुद्ध में फँसे काबुल के चारों ओर की पहाड़ियों से चला एक रॉकेट इन सपनों पर तुषारापात करने के लिए काफी होता है। वक़्त की मार लैला को मरियम की सौत के रूप में ला खड़ा करती है। 

मरियम की लैला के प्रति नफ़रत किस तरह प्रेम में बदलती है ये तो मैं आपको नहीं बताऊँगा पर इतना जरूर कहूँगा कि ख़ालिद की लेखन शैली ऐसी है कि चार सौ पृष्ठों की इस किताब से आप बँध कर रह जाते हैं। लेखक जब प्रताड़ना के क्षणों को विस्तार देते हैं तो पाठक की रुह काँप उठती है। वहीं उन्होंने माँ और बच्चे के वातसल्य, अकेलेपन और अवसादग्रस्त ज़िदगी जीने को अभिशप्त पात्रों के मानसिक हालातों और दो प्रेमियों  के मन की भावनाओं का सजीव चित्रण किया है।

तालिबान के बारे में हम सबने सुना है पर महिलाओं के प्रति उनके नज़रिए को एक बार यहाँ फिर से दोहरा देना सही होगा। लड़कियाँ पढ़ नहीं सकती। सज नहीं सकती। घर के बाहर बिना किसी मर्द के नहीं जा सकती। अगर गई तो पीटी जाएँगी मर्दों से नज़रें नहीं मिला सकती। सबके सामने हँस नहीं सकती। काम नहीं कर सकती। बिना पूछे जवाब नहीं दे सकती। नाचना, चित्रकला और गाना, ताश, शतरंज और पतंगबाजी के लिए तो लड़कों को भी मनाही थी। पर ऐसा नहीं हैं कि अफ़गानिस्तान में ऐसी व्यवस्था सबसे पहले तालिबानी लाए। काबुल और कुछ अन्य शहरी इलाकों को छोड़ दें तो अफ़गानिस्तान का अधिकांश कबीलाई इलाका इसी तरह की पाबंदियों के बीच आज भी जी रहा है और अपने आप को बदलने की किसी भी कोशिश का पुरज़ोर विरोध करता है।

लेखक ने काबुल के हालातों को इस किताब में कई रूपकों से इंगित करने की कोशिश की है। उनमें से दो का जिक्र करना जरूरी होगा। वे हेमिंग्सवे के उपन्यास The Old Man and the Sea की बात करते हैं जिसमें एक वृद्ध मछुआरा बड़ी मुश्किल से एक बड़ी मछली का शिकार कर अपनी छोटी नाव से घसीटता हुआ एकदम किनारे तक पहुँचता ही है कि उसका शिकार कई शार्क द्वारा टुकड़े टुकड़े कर दिया जाता है। दरअसल लेखक ये बताना चाहते हैं कि काबुल की हालत उस शिकार की है जिसे जीतने के लिए सब उसे छिन्न भिन्न करने से नहीं हिचकिचाते।
 
अब ज़रा लेखक द्वारा प्रयुक्त एक दूसरे रोचक रूपक पर गौर करें। ये रूपक है फिल्म Titanic का। लेखक तालिबानी समय (2000) में आई फिल्म Titanic के काबुल में जबरदस्त लोकप्रियता का विवरण कुछ यूँ देते हैं।
That summer, Titanic fever gripped Kabul. People smuggled pirated copies of the film from Pakistan- sometimes in their underwear. After curfew, everyone locked their doors, turned out the lights, turned down the volume, and reaped tears for Jack and Rose and the passengers of the doomed ship. At the Kabul River, vendors moved into the parched riverbed. Soon, from the river's sunbaked hollows, it was possible to buy Titanic carpets, and Titanic cloth, from bolts arranged in wheelbarrows. There was Titanic deodorant, Titanic toothpaste, Titanic perfume, Titanic pakora, even Titanic burqas. A particularly persistent beggar began calling himself "Titanic Beggar.""Titanic City" was born.

Titanic की इस लोकप्रियता के कई कारण हो सकते हैं पर लेखक अपने गढ़े चरित्र लैला के माध्यम से कहते हैं कि निराशा और विध्वंस के इस माहौल में काबुल के लोग सोचते हैं कि फिल्म की नायिका की तरह उन्हें भी बचाने कोई जरूर आएगा। अफ़गानिस्तान से जुड़े कई अन्य उपन्यासों की तरह A Thousand Splendid Suns.. में भी रोज़ मरते लोगों और उनकी असहनीय पीड़ा का मार्मिक चित्रण है पर साथ ही किताब ये भी दिखाती है कि लोगों ने इतनी कठिनाइयों से जूझते हुए किस तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिशें की हैं और इसमें प्रेम की भावना किस तरह सहायक सिद्ध हुई है। ख़ालिद के शब्दों में कहें तो 
"Love can move people to act in unexpected ways and move them to overcome the most daunting obstacles with startling heroism”
निश्चय ही ये पुस्तक पढ़ने योग्य है। आज भारत में कई ताकतें इस मुल्क को पीछे खींचने पर तुली हैं। ऐसे रास्ते किन भयावह परिस्थितियों की ओर ले जाते हैं ये इस किताब को पढ़कर कोई भी महसूस कर सकता है।

Friday, April 04, 2014

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..कैसे कह पाए कैफ़ी अपनी पहली ग़ज़ल ? Tumhari Zulf ke saaye..Kaifi Azmi

साठ के दशक में एक फिल्म आयी थी नौनिहाल। संगीतकार थे मदनमोहन। इस फिल्म के सारे गीत कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे।  आज भी कैफ़ी आज़मी की पहचान गीतकार के बजाए एक शायर के रूप में ज्यादा है। पर काग़ज़ के फूल से ले कर अर्थ तक जितनी भी फिल्मों में कैफ़ी साहब ने लिखा, उनका काम सराहा गया। लोग उनकी तुलना साहिर से करते हैं। साहिर और कैफ़ी दोनों ही कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे। जहाँ साहिर ने फिल्मी गीतों में भी अपनी राजनीतिक सोच को व्यक्त किया वहीं कैफ़ी अपनी विचारधारा को अपनी शायरी की जुबान बनाते रहे पर फिल्मी गीतों में अपने लेखन को उन्होंने इस सोच से परे रखा। इससे पहले कि मैं आपसे नौनिहाल की इस ग़ज़ल की चर्चा करूँ, कैफ़ी साहब की ज़िंदगी से जुड़ा एक वाक़या आपसे बाँटना चाहूँगा।


एक इंसान.शायर कैसे बनता है ये हर काव्य प्रेमी जानना चाहता है। अब कैफ़ी साहब को ही ले लीजिए। उनके अब्बाजान ख़ुद तो शायर नहीं थे पर उन्हें कविता की पूरी समझ थी। उनसे बड़े तीनों भाई शायरी के बड़े उस्ताद थे। छुट्टियों में वो जब घर आते तो सारा कस्बा उनको सुनने उमड़ पड़ता। बालक कैफ़ी जब अपने भाइयों की वाहवाही सुनते तो उन्हें लगता कि क्या मैं भी कभी इनकी तरह शेर कह पाऊँगा। दुख की बात ये थी की इन महफिलों में उन्हें ज्यादा देर बैठना ही नसीब न होता था। उनके पिता उन्हें जब तब पान बनवाने का काम थमा कर वहाँ से भगा देते थे।

कैफ़ी के पिता जब बहराइच में थे तो वहाँ एक तरही मुशायरा हुआ। तरह थी (Word pattern for Qafiya & Radeef) मेहरबाँ होता, राजदाँ होता...कैफ़ी साहब को मौका मिला तो उनके मन में बहुत दिनों से जो चल रहा था वो शेर की शक़्ल में बाहर आ गया.. उन्होंने पढ़ा

वह सबकी सुन रहे हैं,सबको दाद ए शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा किस्सा ए गम बयाँ होता

लोगों ने तारीफ़ की  कि बड़ी अच्छी याददाश्त है, क्या बढ़िया ढंग से पढ़ते हो। दरअसल सब यही सोच रहे थे कि  कैफ़ी ने अपने भाईयों की ग़ज़ल उड़ाकर अपने नाम से यहाँ पढ़ दी है। जब उनके पिता ने भी यही शक़ ज़ाहिर किया तो  कैफ़ी फूट फुट कर रो पड़े। सब लोगों ने कहा कि अगर तुमने ये ग़ज़ल लिखी है तो तुम्हें एक इम्तिहान देना पड़ेगा। कैफ़ी साहब को मिसरा (शेर की एक पंक्ति) थमा दिया गया ''इतना हँसों की आँख से आँसू निकल पड़ें''। अब इस कठिन मिसरे पर कैफ़ी को पूरी ग़ज़ल बनानी थी। कैफ़ी उसी कमरे में दीवार की ओर मुँह कर के बैठ गए और थोड़ी देर में तीन चार शेर लिख डाले। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि  कैफ़ी साहब तब सिर्फ ग्यारह साल के थे।  कैफ़ी साहब ने लिखा था...

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल1 पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल2 पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़3 है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
1.विघ्न  2. चैन  3. उतार चढ़ाव

तो ये थी कैफ़ी आज़मी की शायर बनने की दास्ताँ। लौटते हैं नौनिहाल की उस ग़ज़ल पर। क्या लिखा था कैफ़ी आज़मी साहब ने और क्या धुन बनाई मदनमोहन ने..वल्लाह ! मदन मोहन ग़ज़लों को इस खूबी से संगीतबद्ध करते थे कि लता जी आज भी उनको ''ग़ज़लों के शाहजादे'' के नाम से याद किया करती हैं। सितार और वॉयलिन का बेहतरीन इस्तेमाल किया है इस गीत के संगीत संयोजन में उन्होंने। पर कैफ़ी के अशआरों में धार ना होती तो मदनमोहन का संगीत कहाँ उतना प्रभावी हो पाता?

इस  ग़ज़ल के हर मिसरे को पढ़ते ही मन के तार रूमानियत के रागों से झंकृत होने लगते हैं । जिस अंदाज़ में रफ़ी साहब ने इन खूबसूरत लफ्जों को अपनी आवाज़ दी है  लगता है कि वक़्त ठहर जाए, ये ग़ज़ल और उससे उभरते अहसास मन की चारदीवारी से कभी बाहर ही ना निकलें।

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..
सफ़र इस उम्र का, पल में.., तमाम कर लूँगा

नजर.. मिलाई तो, पूछूँगा इश्क का.. अंजा..म
नजर झुकायी तो खाली सलाम कर लूँगा,

तुम्हारी जुल्फ ...

जहा..न-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबा..रक हो..
रही शिकस्त. तो वो अपने नाम कर लूँगा
तुम्हारी जुल्फ ...



वैसे जानना चाहूँगा कि आप इस ग़ज़ल को सुनकर कैसा महसूस करते हैं?

Sunday, March 30, 2014

एक शाम मेरे नाम ने पूरे किए अपने आठ साल (2006-2014) !

एक शाम मेरे नाम ने पिछले हफ्ते अपने अस्तित्व का आठवाँ साल पूरा किया। आठ साल की इस यात्रा में ब्लॉगिंग ने मुझे बहुत कुछ दिया है। आज मेरे मित्रों और जानने वालों की फेरहिस्त में संगीत और साहित्य से स्नेह रखने वाले सैकड़ों जन हैं जिनमें से कईयों की प्रतिभा का मैं क़ायल हूँ। भला बताइए पेशे से एक इंजीनियर के लिए ब्लॉगिंग के बिना क्या ये संभव होता ? इसलिए मैं इस माध्यम का और इससे जुड़े मित्रों व पाठकों का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। सच मानिए मेरी इन आठ सालों की मेहनत का प्रतिफल बस आपके प्रेम की पूँजी है।

साल दर साल इस ब्लॉग से जुड़ने वाले लोगों का काफ़िला बढ़ता रहा है। सात लाख के करीब पेज लोड, हजार से ऊपर ई मेल सब्सक्राइबर्स, आठ सौ के करीब नेटवर्क ब्लॉग फौलोवर्स और तीन सौ के करीब गूगल फौलोवर्स और पिछले साल नवाज़ा गया इंडीब्लॉगर एवार्ड.. ये सभी इस इस बात का द्योतक है कि संगीत और साहित्य के प्रति अपनी रुचियों को आप तक पहुँचाने का जो तरीका मैंने चुना है वो आप सब को भा रहा है।

आजकल सब लोग सवाल करते हैं कि क्या सोशल मीडिया के आने के बाद ब्लॉगिंग का औचित्य समाप्त नहीं हो गया? सच बताऊँ तो मुझे ये प्रश्न बेतुका लगता है। ब्लॉग और सोशल मीडिया पर लेखन की प्रकृति और उद्देश्य दोनों भिन्न हैं। अगर क्रिकेट के खेल से इसकी तुलना करूँ तो मैं यही कहूँगा कि जहाँ ब्लॉग पर लिखना टेस्ट क्रिकेट है तो वही फेसबुक पर वन डे और ट्विटर पर T 20। ज़ाहिर सी बात है भीड़ T 20  ज्यादा जुटती है।   पर इनमें कितने क्रिकेट देखने वाले होते हैं और कितने तमाशाबीन उसका फैसला आप ख़ुद कर सकते हैं।पर जिसने ये खेल खेला हुआ है या जिसे क्रिकेट से सच्चा प्यार है वो ये भली भांति जानता है कि टेस्ट क्रिकेट ही इस खेल की असली धरोहर है।

मैं ख़ुद भी सोशल मीडिया पर सक्रिय रहा हूँ पर उसका उद्देश्य एक ओर तो पाठकों तक इस ब्लॉग की पहुँच का विस्तार करना है तो दूसरी तरफ़ वैसी महान विभूतियों से सीधा संपर्क साधना रहा है जिनके बारे में मैं इस ब्लॉग पर लिखता रहा हूँ। मुझे इस बात की खुशी है कि मुझे अपने इन दोनों उद्देश्यों में अच्छी सफलता मिली है।

वार्षिक संगीतमालाओं के महीने को छोड़ दें तो इस ब्लॉग पर प्रति हफ्ते मैं एक पोस्ट लिखने की कोशिश करता हूँ क्यूँकि यही कोशिश मुझे अपने यात्रा ब्लॉग मुसाफ़िर हूँ यारों के लिए भी करनी पड़ती है। अब कुछ रिसालों के लिए भी नियमित रूप से लिखना शुरु किया है। ज़ाहिर है ये सारी बातें आपका वक़्त माँगती हैं जो दिन भर की नौकरी के बाद नाममात्र ही बच पाता है। दरअसल एक ब्लॉगर के लिए सीमित समय ही उसके लेखन की विविधता और गुणवत्ता को बनाए रखने में सबसे बड़ी बाधा है। नित इसी संघर्ष के बीच आप तक अपनी पसंद को पहुँचाता रहा हूँ और आपका प्रेम इस ब्लॉग के लिए यूँ ही बना रहा तो भविष्य में भी पहुँचाता रहूँगा। एक बार फिर एक शाम मेरे नाम के पाठकों को मेरा ढेर सारा प्यार !

Wednesday, March 26, 2014

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा : वसीम बरेलवी / चंदन दास

अस्सी के दशक में जब जगजीत सिंह ग़ज़ल गायिकी को एक नया स्वरूप दे रहे थे तो उनके साथ साथ ग़जल गायकों की एक अच्छी पौध तैयार हो रही थी। उस दौर में पंकज उधास, पीनाज़ मसानी, तलत अज़ीज़ के साथ जो एक और नाम चमका वो चंदन दास का था। 

आप सोच रहें होंगे कि अचानक चंदन दास की याद मुझे कैसे आ गई। दरअसल पिछले हफ्ते चंदन दास का जन्मदिन था। अंतरजाल पर एक मित्र ने उनकी एक ग़ज़ल बाँटी। जबसे वो ग़ज़ल सुनी है तबसे उसी की ख़ुमारी में जी रहे हैं। ख़ैर ग़ज़ल सुनी तो फिर शायर पर भी ध्यान गया। शायर थे वसीम बरेलवी साहब।


ज़ाहिर है बरेलवी साहब का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से है। जनाब रुहेलखंड विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक भी रहे। कुछ ही साल पहले वे फिराक़ इ्टरनेशनल अवार्ड से सम्मानित हुए हैं।  वसीम साहब से सबसे पहला तआरुफ जगजीत सिंह की गायी ग़ज़लों से ही हुआ था। अब भला  मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो, कि मैं जमीं के रिश्तों से कट गया यारों या फिर अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे जैसी ग़ज़लों को कोई कैसे भूल सकता है। वैसे जगजीत की गाई ग़ज़लों में में ये वाली ग़ज़ल मुझे सबसे पसंद है जिसमें वसीम कहते हैं

आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया
 
आते-आते मेरा नाम-सा रह गया
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया

दिल हुआ कि जनाब वसीम बरेलवी को कुछ और पढ़ा जाए। पिछले चार पाँच दिनों में उनकी कई ग़ज़ले पढ़ डालीं। बरेलवी साहब का अंदाजे बयाँ मुझे बहुत कुछ बशीर बद्र साहब जैसा लगा यानि लफ्ज़ ऐसे जो कोई भी सहजता से समझ ले और गहराई ऐसी कि आप वाह वाह भी कर उठें। तो आइए आज की इस पोस्ट में उनके कुछ चुनिंदा अशआर आप की नज़र।

आज के दौर में समाज में बड़बोले और अपनी बेज़ा ताकत इस्तेमाल करने वालों का ही बोलबाला है। बरेलवी साहब बड़ी खूबसूरती से समाज के इस तबके पर इन अशआरों में तंज़ कसते नज़र आते हैं...

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है


मैं हमेशा ये मानता हूँ कि व्यक्ति किसी विधा के बारे में कितना भी जान ले सीखने की गुंजाइश बनी रहती है। जैसे ही ये दंभ आया कि हम तो महारथी हो गए.. औरों की मेरे आगे क्या औकात तो समझो कि अपने सीखने की प्रक्रिया तो वहीं बंद हो गई। वसीम बरेलवी विनम्रता की जरूरत को कितने प्यारे ढंग से अपने इस शेर में समझाते नज़र आते हैं

अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा


एक जगह और वो लिखते हैं
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

ये तो हुई हमारे आचार और व्यवहार की बातें। अब ज़रा देखें कि इंसानी रिश्तों और प्रेम के बारे में वसीम बरेलवी की कलम क्या कहती है? अव्वल इश्क़ तो जल्दी होता नहीं और एक बार हो गया जनाब तो उसकी गिरफ्त से निकलना भी आसान नहीं। इसीलिए बरेलवी साहब कहते हैं

बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते


और रिश्तों के बारे में उनके इन अशआरों की बात ही क्या
कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी

ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी


तो आइए अब उस ग़ज़ल की ओर रुख किया जाए जिसकी वज़ह से ये पोस्ट अस्तित्व में आई...
क्या मतला लिखा है बरेलवी साहब ने ! और अंत के दो शेर तो भई कमाल ही कमाल हैं ..एक बार सुन लीजिए फिर दिल करता है कि अपने ''उन'' के ख़यालों में डूबते हुए बार बार सुनें। क्यूँ आपको नहीं लगता ऐसा?


मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा 


ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल (बिना ताकत /हुकूमत के) है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता, बता ना देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा


हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा




चंदन दास और उनकी ग़ज़लों में कुछ और डूबना चाहते हों तो उनकी पसंदीदा ग़ज़लों से जुड़ी मेरी फेरहिस्त ये रही....

Saturday, March 15, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2013 सरताज गीत : सपना रे सपना, है कोई अपना... (Sapna Re Sapna..Padmnabh Gaikawad)

वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला 2013 के सरताजी बिगुल के बजने का ! यहाँ गीत वो जिसमें लोरी की सी मिठास है, सपनों की दुनिया में झाँकते एक बाल मन की अद्भुत उड़ान है और एक ऐसी नई आवाज़ है जो उदासी की  चादर में आपको गोते लगाने को विवश कर देती है। बाल कलाकार पद्मनाभ गायकवाड़ के हिंदी फिल्मों के लिए गाए इस पहले गीत को लिखा है गुलज़ार साहब ने और धुन बनाई विशाल भारद्वाज ने। Zee सारेगामा लिटिल चैम्स मराठी में 2010 में अपनी गायिकी से प्रभावित करने वाले पद्मनाभ गायकवाड़ इतनी छोटी सी उम्र में इस गीत को जिस मासूमियत से निभाया है वो दिल को छू लेता है।

पद्मनाभ गायकवाड़

ये तीसरी बार है कि गुलज़ार और विशाल भारद्वाज की जोड़ी एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमालाओं में के सरताज़ गीत का खिताब अपने नाम कर रही है। अगर आपको याद हो तो वर्ष 2009 मैं फिल्म कमीने का गीत इक दिल से दोस्ती थी ये हुज़ूर भी कमीने और फिर 2010 में इश्क़िया का दिल तो बच्चा है जी ने ये गौरव हासिल किया था।

विशाल भारद्वाज सपनों की इस दुनिया में यात्रा की शुरुआत गायकवाड़ के गूँजते स्वर से करते हैं। गिटार और संभवतः पार्श्व में बजते पियानो से निकलकर पद्मनाभ की ऊँ ऊँ..जब आप तक पहुँचती है तो आप चौंक उठते हैं कि अरे ये गीत सामान्य गीतों से हटकर है। गुलज़ार के शब्दों को आवाज़ देने  में बड़े बड़े कलाकारों के पसीने छूट जाते हैं क्यूँकि उनका लिखा हर एक वाक्य भावनाओं की चाशनी में घुला होता है और उन जज़्बातों को स्वर देने, उनके अंदर की पीड़ा को बाहर निकालने के लिए उसमें डूबना पड़ता है जो इतनी छोटी उम्र में बिना किसी पूर्व अनुभव के पद्मनाभ ने कर के दिखाया है।


गुलज़ार को हम गुलज़ार प्रेमी यूँ ही अपना आराध्य नहीं मानते। ज़रा गीत के अंतरों पर गौर कीजिए सपनों की दुनिया में विचरते एक बच्चे के मन को कितनी खूबसूरती से पढ़ा हैं उन्होंने। गुलज़ार लिखते  हैं भूरे भूरे बादलों के भालू, लोरियाँ सुनाएँ ला रा रा रू...तारों के कंचों से रात भर  खेलेंगे सपनों में चंदा और तू। काले काले बादलों को भालू और तारों को कंचों का रूप देने की बात या तो कोई बालक सोच सकता है या फिर गुलज़ार !अजी रुकिये यहीं नहीं दूसरे अंतरे में भी उनकी लेखनी का कमाल बस मन को चमत्कृत कर जाता है। गाँव, चाँदनी और सपनों को उनकी कलम कुछ यूँ जोड़ती है पीले पीले केसरी है गाँव, गीली गीली चाँदनी की छाँव, बगुलों के जैसे रे, डूबे हुए हैं रे, पानी में सपनों के पाँव...उफ्फ

विशाल भारद्वाज का संगीत संयोजन सपनों की रहस्यमयी दुनिया में सफ़र कराने सा अहसास दिलाता है। पता नहीं जब जब इस गीत को सुनता हूँ आँखें नम हो जाती हैं। पर ये आँसू दुख के नहीं संगीत को इस रूप में अनुभव कर लेने के होते हैं।

सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा
अँखियों की डिबिया भर दे रे निदिया
जादू से जादू कर जा
सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा.....


भूरे भूरे बादलों के भालू
लोरियाँ सुनाएँ ला रा रा रू
तारों के कंचों से रात भर  खेलेंगे
सपनों में चंदा और तू
सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा


पीले पीले केसरी है गाँव
गीली गीली चाँदनी की छाँव
बगुलों के जैसे रे, डूबे हुए हैं रे
पानी में सपनों के पाँव
सपना रे सपना, है कोई अपना
अँखियों में आ भर जा....

वार्षिक संगीतमाला 2013 का ये सफ़र आज यहीं पूरा हुआ। आशा है मेरी तरह आप सब के लिए ये आनंददायक अनुभव रहा होगा । होली की असीम शुभकामनाओं के साथ...

Thursday, March 13, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2013 : पुनरावलोकन (Recap)

तो इससे पहले कि वार्षिक संगीतमाला के सरताज गीत की घोषणा करूँ एक बार पीछे पलट कर देख तो लीजिए कि मेरे लिए इस साल के पच्चीस शानदार गीत कौन से रहे ? अगर इस फेरहिस्त के हिसाब से साल के गीतकार का चयन करूँ तो वो तमगा इरशाद क़ामिल को ही जाएगा। इरशाद ने इस साल कौन मेरा, मेरा क्या तू लागे जैसे मधुर गीत लिखे तो दूसरी ओर जिसको ढूँढे बाहर बाहर वो बैठा है पीछे छुपके जैसे सूफ़ियत के रंग में रँगे गीत की भी रचना की। इतना ही नहीं इरशाद क़ामिल ने आमिर खुसरो की कह मुकरनी की याद ऐ सखी साजन से ताज़ा तो की ही, दो प्रेम करने वालों को पिछले साल शर्बतों के रंग और मीठे घाट के पानी जैसे नए नवेले रूपकों से नवाज़ा। 


 वार्षिक संगीतमाला 2013 संगीत के सितारे

इरशाद क़ामिल के आलावा अमिताभ भट्टाचार्य ने भी  सँवार लूँ, ज़िदा, कबीरा व तितली जैसे कर्णप्रिय गीत रचे। प्रसून जोशी ने भी भाग मिल्खा भाग के लिए कमाल के गीत लिखे। पर धुरंधरों में जावेद अख़्तर की अनुपस्थिति चकित करने वाली थी। मेरे पसंदीदा गीतकार गुलज़ार ने विशाल भारद्वाज की फिल्मों मटरू की बिजली.. और एक थी डायन के गीत लिखे। उनका लिखा गीत ख़ामख़ा मुझे बेहद पसंद है पर विशाल अपनी आवाज़ और धुन से उन बोलों के प्रति न्याय नहीं कर सके वैसे भी गुलज़ार की कविता कभी कभी गीत से ज्यादा यूँ ही पढ़ने में  सुकून देती है..विश्वास नहीं होता तो गीत के इस अंतरे को पढ़ कर देखिए

सारी सारी रात का जगना
खिड़की पे सर रखके उंघते रहना
उम्मीदों का जलना-बुझना
पागलपन है ऐसे तुमपे मरना
खाली खाली दो आँखों में
ये नमक, ये चमक, तो ख़ामख़ा नहीं...


संगीतकारों में इस साल की सफलताओं का सेहरा बँट सा गया। लुटेरा में अमित त्रिवेदी, रांझणा में ए आर रहमान और भाग मिल्खा भाग में शंकर एहसान लॉय ने कमाल का संगीत दिया। नये संगीतकारों में अंकित तिवारी ने सुन रहा है के माध्यम से काफी धूम मचाई। सचिन जिगर ने शुद्ध देशी रोमांस में अब तक का अपना सबसे बेहतर काम दिखाया। प्रीतम बर्फी जैसा एलबम तो इस साल नहीं दे पाए पर  ये जवानी है दीवानी, फटा पोस्टर निकला हीरो, Once upon a time in Mumbai दोबारा के उनके कुछ गीत बेहद सराहे गए।

गायकों में ये साल बिना किसी शक़ अरिजित सिंह के नाम रहा। तुम ही हो और लाल इश्क़ जैसे गीतों को जिस तरह डूब कर उन्होंने गाया है वो आम लोगों और समीक्षकों दोनों द्वारा सराहा गया है। वैसे कुछ नए पुराने कलाकारों ने पिछले साल अपनी खूबसूरत आवाज़ की बदौलत कुछ गीतों को यादगार बना दिया। चैत्रा अम्बादिपुदी द्वारा बेहद मधुरता से गाया कौन मेरा, मिल्खा के पैरों में जोश भरते आरिफ़ लोहार,मस्तों का झुंड में थिरकने पर मजबूर करते दिव्य कुमार, ये तूने क्या किया वाली कव्वाली में अपनी गहरी आवाज़ का जादू बिखेरते जावेद बशीर, अपनी आवाज़ की मस्ती से स्लो मोशन अंग्रेजा में झुमाने वाले सुखविंदर सिंह,भागन के रेखन की बँहगिया में एक प्यारी बन्नो का अपने परिवार से जुदाई का दर्द उभारती मालिनी अवस्थी  और झीनी झीनी में अपनी शास्त्रीय गायिकी से मन मोहते उस्ताद राशिद खाँ पिछले साल की कुछ ऐसी ही मिसालें हैं।

साल के सरताज गीत के बारे में तो आप अगली प्रविष्टि में जानेंगे (वैसे ये बता दूँ कि ऊपर के कोलॉज  में सरताज गीत से जुड़े सभी कलाकारों की तसवीर मौज़ूद है।) तब तक एक नज़र इस संगीतमाला के पिछले चौबीस गीतों पर एक नज़र...

वार्षिक संगीतमाला 2013

Saturday, March 08, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2013 रनर्स अप : तुझ संग बैर लगाया ऐसा, रहा ना मैं फिर अपने जैसा (Laal Ishq )

वार्षिक संगीतमाला के पिछले दो महीनों का सफ़र पूरा करने के बाद  आज बारी है शिखर से बस एक पॉयदान दूर रहने वाले गीत की और दोस्तों यहाँ पर गीत है फिल्म गोलियों की रासलीला यानि रामलीला का। संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित फिल्मों के संगीत से मेरी हमेशा अपेक्षाएँ रही हैं। इसकी वज़ह है हम दिल दे चुके सनम, देवदास और साँवरिया का मधुर संगीत। पर जब वार्षिक संगीतमाला के गीतों के चयन के लिए मैंने रामलीला का गीत संगीत सुना तो मुझे निराशा ही हाथ लगी सिवाए इस एक गीत के। पिछले महीने जब ये फिल्म टीवी पर दिखाई गयी तो मेरी उत्सुकता सबसे ज्यादा इस गीत का फिल्मांकन देखने की थी। भगवान जाने देश के अग्रणी समाचार पत्रों ने क्या सोचकर इस फिल्म को पाँच स्टार से नवाज़ा था। गीत का इंतज़ार करते करते मुझे पूरी फिल्म झेलनी पड़ी क्यूँकि पूरा  गीत फिल्म में ना होकर उसकी credits के साथ आया। 


फिल्म चाहे जैसी हो दूसरी पॉयदान के इस गीत को बंगाल के मुर्शीदाबाद से ताल्लुक रखने वाले अरिजित सिंह ने जिस भावप्रवणता से गाया है उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी। मुखड़े के पहले का उनका आलाप और फिर पीछे से उभरता कोरस आपका ध्यान खींच ही रहा होता है कि अरिजित की लहराती सी आवाज़ आपके दिल का दामन यूँ पकड़ती है कि गीत सुनने के घंटों बाद भी आप उसकी गिरफ़्त से मुक्त होना नहीं चाहते।

मेरे लिए ये आश्चर्य की बात थी कि इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने संगीत निर्देशन की कमान भी खुद ही सँभाली है। संजय ने  पूरे गीत में ताल वाद्यों के साथ  मजीरे का इस्तेमाल किया है। साथ ही अंतरों के बीच गूँजती शहनाई भी कानों को सुकून देती है। संजय कहते हैं कि गुजारिश के गीतों को संगीतबद्ध करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि एक निर्देशक से ज्यादा कौन समझ सकता है कि पटकथा को किस तरह के संगीत की जरूरत है। मैं ऐसा संगीत रचने की कोशिश करता हूँ  जिसे मैं या मेरे साथ काम करने वाले गुनगुना सकें..गा सकें।

वार्षिक संगीतमाला में शामिल पिछले कुछ गीतों की तरह इस गीत के गीतकार द्वय भी फिल्म के पटकथा लेखक हैं। सिद्धार्थ और गरिमा की इस जोड़ी के लिए ये पहला ऐसा मौका था।

वैसे इस फिल्म के गीतों को लिखने और संजय के साथ काम करने का उनका अनुभव कैसा रहा ये जानना भी आपके लिए दिलचस्प रहेगा..संजय के साथ गीत संगीत को लेकर होने वाली तकरारों  के बारे में वे कहते हैं
"संगीत और बोल, सितार और तबले की तरह हैं। जुगलबंदी तो बनती है। कोई बोल सुनाने के बाद संजय सर की पहली प्रतिक्रिया एक चुप्पी होती थी। हम लोग उनसे पूछते थे सर वो अंतरा आप को कैसा लगा? उनका जवाब होता वो अंतरा नहीं संतरा था। और कुछ ही दिनों बाद संजय सर उस संतरे पर अपनी शानदार धुन बना देते। गीत के बोलों पर उनकी सामान्य सी प्रतिक्रिया कुछ यूँ होती थी तुम कितने cheap हो सालों !"
सिद्धार्थ गरिमा ने इश्क़ को इस गीत में लाल, मलाल, ऐब और बैर जैसे विशेषणों से जोड़ा है जो फिल्म की कथा के अनुरूप है। इश्क़  में मन के हालात को वो बखूबी बयाँ करते हैं जब वो लिखते हैं तुझ संग बैर लगाया ऐसा..रहा ना मैं फिर अपने जैसा। अब इस बैरी इश्क़ का खुमार ऐसा है कि दिल कह रहा है कि ये काली रात जकड़ लूँ ...ये ठंडा चाँद पकड़ लूँ आप मेरे साथ ये कोशिश करेंगे ना ?

ये लाल इश्क़, ये मलाल इश्क़
यह ऐब इश्क़, ये बैर इश्क़
तुझ संग बैर लगाया ऐसा
तुझ संग बैर लगाया ऐसा

रहा ना मैं फिर अपने जैसा
हो.. रहा ना मैं फिर अपने जैसा
मेरा नाम इश्क़, तेरा नाम इश्क़
मेरा नाम इश्क़, तेरा नाम इश्क़
मेरा नाम, तेरा नाम
मेरा नाम इश्क़
ये लाल इश्क़, ये मलाल इश्क़
यह ऐब इश्क़, ये बैर इश्क़

अपना नाम बदल दूँ.. (बदल दूँ)
या तेरा नाम छुपा लूँ (छुपा लूँ)
या छोड़ के सारी याद मैं बैराग उठा लूँ
बस एक रहे मेरा काम इश्क़
मेरा काम इश्क़, मेरा काम इश्क़
मेरा नाम इश्क़, तेरा नाम इश्क़
मेरा नाम, तेरा नाम...

ये काली रात जकड लूँ
ये ठंडा चाँद पकड़ लूँ
ओ.. ये काली रात जकड लूँ
ये ठंडा चाँद पकड़ लूँ
दिन रात के अँधेरी भेद का
रुख मोड के मैं रख दूँ
तुझ संग बैर लगाया ऐसा
रहा ना मैं फिर अपने जैसा
हो.. रहा ना मैं फिर अपने जैसा
मेरा नाम इश्क़, तेरा नाम इश्क़
मेरा नाम इश्क़, तेरा नाम इश्क़
मेरा नाम, तेरा नाम...



Sunday, March 02, 2014

वार्षिक संगीतमाला 2013 पॉयदान संख्या 3 : कौन मेरा, मेरा क्या तू लागे (Kaun Mera...Chaitra )

वार्षिक संगीतमाला की तीसरी पॉयदान पर एक ऐसा गीत है जिसके मुखड़े को गुनगुना कर उसमें छुपी मधुरता को आप महसूस कर लेते हैं। पिछले छः महिने से इस गीत की गिरफ्त में हूँ और आज भी इसे सुनते हुए मेरा जी नहीं भरता। ये गीत है फिल्म स्पेशल 26 से और इसके संगीतकार हैं एम एम करीम ( M M Kreem)। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इस नाम का वो प्रयोग सिर्फ हिंदी फिल्मों के लिए करते हैं। वैसे उनका असली नाम एम एम कीरावानी (M M Keeravani)  है। 


आँध्रप्रदेश से आने वाले करीम ने सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में संगीत दिया है। हिंदी फिल्मों में अपना हुनर दिखाने का पिछले दो दशकों में जब भी उन्हें मौका मिला है, उन्होंने अपने प्रशंसकों को कभी निराश नहीं किया है। याद कीजिए नब्बे के दशक मैं फिल्म क्रिमिनल के गीत तुम मिले दिल खिले और जीने को क्या चाहिए ने क्या धमाल मचाया था। फिर फिल्म इस रात की सुबह नहीं का उनका गीत तेरे मेरे नाम नहीं है और चुप तुम रहो बेहद चर्चित हुए थे। इसके बाद जख़्म, सुर, जिस्म और रोग जैसी फिल्मों में उनका संगीत सराहा गया।

फिल्म स्पेशल 26 के लिए करीम ने बतौर गीतकार इरशाद क़ामिल को चुना और देखिए क्या मुखड़ा लिखा उन्होंने..
कौन मेरा, मेरा क्या तू लागे
क्यों तू बाँधे, मन से मन के धागे
बस चले ना क्यों मेरा तेरे आगे

समझ नहीं आता ना कि जब हम किसी अनजान को पसंद करने लगते हैं तो फिर दिल के तार उसकी हर बात और सोच से जुड़ने से लगते हैं और फिर ये असर इतना गहरा हो जाता है कि अपने आप पर भी वश नहीं रहता।

एम एम करीम ने इस रूमानी गीत को तीन अलग अलग कलाकारों पापोन, सुनिधि चौहान और चैत्रा से गवाया है। पर मुझे इन सबमें चैत्रा अम्बादिपुदी (Chaitra Ambadipudi) का गाया वर्सन पसंद है। करीम गीत की शुरुआत पिआनो और फिर बाँसुरी से करते हैं। इंटरल्यूड्स में वॉयलिन की धुन आपका ध्यान खींचती है पर इन सब के बीच चैत्रा अपनी मीठी पर असरदार आवाज़ से श्रोताओं का मन मोह लेती हैं।

तेलुगु फिल्मों में ज्यादातर गाने वाली बाइस वर्षीय चैत्रा के लिए हिंदी फिल्मों में गाने का ये पहला अवसर था। दिलचस्प बात यह भी है कि चैत्रा एक पार्श्व गायिका के साथ साथ सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी हैं और फिलहाल माइक्रोसॉफ्ट में कार्यरत हैं। अपनी गुरु गीता हेगड़े से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने वाली चैत्रा दक्षिण भारतीय फिल्मों में सौ से भी ज़्यादा नग्मों में अपनी आवाज़ दे चुकी हैं। वैसे उन्हें जितना संगीत से लगाव है उतना ही सॉफ्टवेयर से भी है और वे दोनों क्षेत्रों में अपना हुनर दिखाना चाहती हैं। तो आइए पहले सुनें उनकी सुरीली आवाज़ में ये बेहद मधुर नग्मा


कौन मेरा, मेरा क्या तू लागे
क्यों तू बाँधे, मन से मन के धागे
बस चले ना क्यों मेरा तेरे आगे


छोड़ कर ना तू कहीं भी दूर अब जाना
तुझको कसम हैं
साथ रहना जो भी हैं तू
झूठ या सच हैं, या भरम हैं
अपना बनाने का जतन कर ही चुके अब तो
बैयाँ पकड़ कर आज चल मैं दूँ, बता सबको

ढूंढ ही लोगे मुझे तुम हर जगह अब तो
मुझको खबर हैं
हो गया हूँ तेरा जब से मैं हवा में हूँ
तेरा असर है
तेरे पास हूँ, एहसास में, मैं याद में तेरी
तेरा ठिकाना बन गया अब साँस में मेरी


इस गीत का पापोन वाला वर्सन भी श्रवणीय है। उनकी आवाज़ का तो मैं हमेशा से कायल रहा हूँ। एम एम करीम ने बस यहाँ संगीत का कलेवर पश्चिमी रंग में रँगा है।

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस अव्यवसायिक चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie